Oct 8, 2014

केन के पुल पर


     बात 2003 के अक्टूबर की है। हमलोग प्रतिवर्ष दशहरा के अवकाश में कहीं-न-कहीं भ्रमण पर निकल जाते हैं। यह भ्रमण एकल तो कत्तई नहीं होता। सामूहिकता का अलग ही आनन्द होता है। इस बार भी ड्राइवर को लेकर हम दस थे। उनमें उम्र में सबसे छोटा मैं ही था। हमारी यात्रा अपनी गाड़ी से ही प्रारंभ हुई थी। दस आदमी की बैठक क्षमता वाली मार्शल गाड़ी लिया गया था। हमारा पहला विराम आजमगढ़ में कुछ घंटों के लिए हुआ। वहाँ बालमुकुंद भैया के पास चाय-पानी करने के उपरांत हम शाम होते-होते चित्रकूट पहुँच गए थे। ‘चित्रकूट में रमि रहे रहीमन अवध नरेस। जा पर विपदा पड़त है, सोई आवत एही देस।।’......मगर आज हम भगवान राम के विपत्तिकाल में व्यतीत किए गए स्थली का दर्शन करने आए थे। 
     दो रात और दो दिन चित्रकूट में बिताने के बाद हम सतना होते हुए मैहर गए। शारदा माँ का आशीर्वाद लेने। माता की कृपा और उनके भक्तों में आल्हा-उदल की वीरता की कथा तो सुना ही था, मैं एकबार दर्शन भी कर चुका था। तब ट्रेन द्वारा आया था। आज सड़क मार्ग द्वारा। संध्या की कालिमा का साम्राज्य होते-होते हम सतना में थे। मार्ग भटकने के कारण हमें वहाँ विलंब हो गया। अग्रसेन चैराहे से हमें जाना था उत्तर और आ गए थे दक्षिण। बस-स्टैंड की ओर। पहले रास्ता नहीं पता था और आज उसी सतना में पली-बढ़ी लड़की मेरी जीवन-संगिनी है। 
     दूसरे दिन सुबह मैहर वाली माता का दर्शन करने के बाद हम लोग करीब डेढ़ बजे दोपहर तक नीचे आ गए थे। खाना के बाद तीन बजे से हमारी यात्रा अब खजुराहो के लिए प्रारंभ हुई। सतना से आगे कुछ ही किलोमीटर चलने के बाद हरिशंकर परसाई जी की रचना ‘मेरी बस यात्रा’ की एक-एक पंक्तियाँ याद आने लगीं। तब मुझे प्रमाण मिल गया कि लेखक की लेखनी कितनी प्रमाणित है। उस रचना का अक्षर-अक्षर प्रमाण दे रहा था। सड़क नाम की कोई चीज भर लगती थी। कहीं-कहीं कंकरीट नज़र आ जाता तो हम ‘अब अच्छी सड़क है’ की बात कहकर प्रसन्न होते कि गाड़ी थोड़ी स्पीड पकड़ेगी। कहीं तारकोल नज़र आया तो उस क्षणिक खलेपन का सुख हमारे लिए ‘मल्टी लेन हाई वे’ होता था।
     हम जहाँ कहीं भी अपनी इस यात्रा के बोरियत को दूर करने रूकते तो लोगों से जरूर पूछते, - भाई अगले चुनाव में दिग्विजय सिंह का क्या हाल होगा? लगभग सबका एक ही उत्तर होता - ‘जमानत जब्त।’ हमने रास्ते भर तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को चाहकर खुब गालियाँ दी। उस समय उस बोरिंग यात्रा में हमारे द्वारा दी गई गाली हमें अपनी यात्रा ज़ारी रखने की शक्ति देती। कुछ पल के लिए जी हल्का हो जाता। तब लगता कि गाली तो संजीवनी है, लोग इसे बुरा क्यों कहते हैं? अब तो ऐसा ही लगता है कि हमारे कष्टों की तड़प का ही पाप उन्हें लग गया और आज तक बेचारे बिना सिर-पैर का बयान देते हुए खिसियानी बिल्ली के जैसे खंभा नोंचते हैं। खैर, हम दस बजते-बजते पन्ना पहुँचे। सतना से पन्ना तक की 74 किलोमीटर की यात्रा हमने पाँच घंटे में पूरा किया था। यात्रा की थकान और अरूचिकरता के कारण अभी यहीं रूकने का विचार बना। सारे लाॅज बंद थे, अतः हम बस स्टैंड के लाॅज में ही शरण लिए।
     लाॅज में सुविधा के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं था जिसका रत्ती भर भी तारीफ किया जाय। वह एक ऐसी रात थी जिसे मैं भूल ही नहीं पाता हूँ। उस रात हमें न खाने के लिए कुछ मिला, न सोने के लिए उचित साधन। बस, वह लाॅज हमारे लिए केवल अंधे की लकड़ी जैसे था। हम रात गुजारे और सुबह की मरीचि के दर्शन देने के पहले ही नित्यकर्म के बाद अपनी यात्रा प्रारंभ कर दिए। पन्ना की रात सबसे दुखदायी रात थी। हम अतिशीघ्र पन्ना को छोड़ना चाहते थे। उस पन्ना को, जो हीरे की खानों के शहर के रूप में प्रसिद्ध है। उस पन्ना को, जो एक ऐतिहासिक नगर है। यह नगर मध्य-प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित है। बुंदेलखंड की रियासत के रूप में इस नगर को बुंदेला नरेश छत्रसाल ने औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् अपने राज्य की राजधानी बनाया था। मुगल सम्राट बहादुरशाह ने 1708 ई. में छत्रसाल की सत्ता को मान लिया था। पन्ना में अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के भवन हैं जिनमें संगमरमर के गुंबद वाला स्वामी प्राणनाथ मंदिर और श्री बलदेवजी मंदिर शामिल हैं। यहाँ पद्मावती देवी का एक मंदिर है, जो उत्तर-पश्चिम में स्थित एक नाले के पास आज भी स्थित है। किंवदंती है कि प्राचीन काल में पन्ना की बस्ती नाले के उस पार ही थी। वहाँ राजगौंड और कोल लोगों का राज्य था। पन्ना से दो मील उत्तर की ओर महाराज छत्रसाल का पुराना महल आज भी खण्डहर रूप में विद्यमान है। पन्ना को अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में पर्णा भी कहते थे। यह नाम तत्कालीन राज्यपत्रों में उल्लिखित है।
     पन्ना में हीरे की महत्त्वपूर्ण खानें हैं, जिनमें 17वीं शताब्दी से खुदाई हो रही है। यह भारत में हीरा उत्पादन करने वाला एकमात्र खदान क्षेत्र है। यह नगर कृषि उत्पादों, इमारती लकडि़यों और वस्त्र व्यापार का केंद्र है। यहाँ के हीरे सारी दुनिया में गुणवत्ता और स्पष्टता के लिए ही नहीं बल्कि हर महीने के आखिर में जिला मजिस्ट्रेट के द्वारा नीलामी किए जाने के कारण भी विख्यात है। हमने चलते-चलते ही सब जाना और समझने का प्रयास किया। अब हम पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट से गुजर रहे थे। 

     अब हम राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या - 75 से खजुराहो की यात्रा पर थे। यह सड़क पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट के बीचोंबीच से गुजरती है। हम दोनों ओर स्थान-स्थान पर सूचना और सुझााव के लिए लगे बोर्ड देखते और रोमांचित होते बढ़े जा रहे थे। जंगल में सुबह के आगमन के साथ ही वन्य-जीवों और पक्षियों की आवाज़ें अपना अलार्म बजा रही थी। यह टाइगर रिजर्व का खूबसूरत जंगल रंग-बिरंगे प्रवासी पक्षियों के कलरव से भी जीवंत हो गया था। दुर्लभ कहे जाने वाले गिद्ध प्रजाति के प्रवासी पक्षी भी इस अभय वन के ऊँचे वृक्षों पर डेरा डाले थे। पन्ना टाइगर रिजर्व के 543 वर्ग किमी क्षेत्र में तीन सौ से भी अधिक प्रजातियों के पक्षी देखने को मिलते है। पन्ना आने वाले प्रवासी गिद्धों में हिमालयन वल्चर, यूरोपियन ग्रिफिन वल्चर तथा सेनरस वल्चर प्रमुख हैं। पर्यटन स्थल के रूप में यह राष्ट्रीय उद्यान बहुत ही महŸव रखता है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना पर्यटन का एक मुख्य आकर्षण है, यह उन सभी वाइल्ड लाइफ रिजर्व में से एक है जहां बाघों को पाया जा सकता है। यह पार्क, खजुराहो से आसान दूरी पर स्थित है। 
     पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट के बीच से गुजरने पर हमें उस सुहानी सुबह में सुखद अनुभूति हो रही थी। रात की सारी पीड़ा हम भूल गए थे। सुबह-सुबह विविध पक्षियों के कलरव के साथ किसी हरे-भरे वातावरण की मोहकता बढ़ ही जाती है। जंगल की सर्पिली सड़क अच्छी थी। अब सब कुछ हमारे मन लायक था। जंगल समाप्त हो रहा था कि अचानक एक लंबा पुल दिखाई दिया। हमारे वरिश्ट सह-यात्री विनय राय जी ने बताया कि यह केन नदी है। मध्य-प्रदेष की विशालतम नदियों में से एक। उन्होंने पुल के प्रारंभ होते ही गाड़ी रूकवा दिया। हम सब उतर गए। नीचे उतर कर देख तो पीछे जंगल की विशालता और सामने लंबा पुल। पुल के दोनों ओर असीम केन का जल-संसार। दूर खड़े पहाड़ों और दायें-बायें जंगलों की हरियाली के बीच केन का स्वरूप अंतर तक उतर गया। किसी को भी अरूचिकर नहीं लग रहा था और ना ही किसी को वहाँ से जाने का मन कर रहा था। हम सभी कभी पुल के किनारों पर बैठकर तो कभी जमीन पर बैठकर समय को अपने साथ बाँध लेना चाहते थे। अनगिनत फोटो लिया गया। सबने सड़क के कंकरीटों को उठा-उठाकर नदी की जल-घाराओं को नापने का फालतु प्रयास किया। वह प्रयास नहीं, बस केन के किनारे रूकने का बहाना था।

     केन जैसी सुन्दर नदी के विषय में मैं अज्ञानी पहले कुछ भी नहीं जानता था। विनय राय जी आदि ने बहुत ज्ञान दिया तब अपनी अज्ञानता पर हँसी आने लगी। पता चला कि केन, यमुना की एक सहायक नदी है जो बुन्देलखंड क्षेत्र से गुजरती है। दरअसल मंदाकिनी तथा केन यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं, क्योंकि इस के बाद यमुना गंगा से जा मिलती है। केन नदी जबलपुर, मध्यप्रदेश से प्रारंभ होती है। पन्ना में इससे कई धारायें आ जुड़ती हैं और फिर बाँदा, उत्तर-प्रदेश में इसका यमुना से संगम होता है। इसकी लंबाई सिर्फ 250 किलोमीटर है परन्तु प्रवाह बहुत तीब्र होता है।
     यह नदी कैमूर पहाडि़यों की उत्तरी-पश्चिमी ढाल से निकलकर मध्य प्रदेश के दमोह, पन्ना इत्यादि क्षेत्रों से होती हुई बाँदा में चिल्ला नामक स्थान पर यमुना से मिलती है। इस नदी को कियाना नाम से भी जाना जाता है। इस नदी को प्राचीन समय में ‘कर्णावती’, ‘कैनास’, ‘शुक्तिमति’ आदि नाम से जाना जाता था। ‘सोनार’, ‘वीरमा’, ‘बाना’, ‘पाटर’ इत्यादि केन नदी की सहायक नदियाँ हैं। इसकी घाटियाँ बहुत ही पथरीली हैं जिसके कारण इसमें चलने वाली नावें यमुना नदी और केन के संगम से बाँदा तक ही आती-जाती हैं। नदी में ‘पाँडवा घाट’ तथा ‘कोराई’ नामक दो जलप्रपात भी हैं। यह नदी केवल वर्षा ऋतु में ही जलमग्न रहती है। गर्मी के मौसम में नदी लगभग सूख जाती है। केन तथा मंदाकिनी यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं, क्योंकि इसके बाद यमुना गंगा से जा मिलती है। इस नदी का ‘शजर’ पत्थर मशहूर है। 


     इसके नामकरण से संबंधित एक कथा यह है कि नदी के किनारे अक्सर एक प्रेमी युगल अठखेलियाँ किया करता था। बाद में किसी ने युवक की हत्या कर उसके शव को नदी के किनारे दफना दिया। युवक की प्रेमिका ने ईश्वर से अपने प्रेमी का शव दिखाने की प्रार्थना की। तब नदी में भीषण बाढ़ आई और नदी का किनारा कटा तो शव उसके सामने नजर आया। शव देखते ही लड़की ने भी अपने प्राण त्याग दिए। इस घटना के बाद नदी का नाम कर्णवती से ‘कन्या’ हो गया। कन्या का अपभ्रंश ‘कयन’ और फिर ‘केन’ हो गया। अब उसी केन नदी के लिए कहा जाता है कि यह सात पहाड़ों का सीना चीरकर बहती है। यह नदी अपनी यात्रा में पत्थरों में रंगीन चित्रकारी भी करती है। इसमें पाए जाने वाले चित्रकारी वाले पत्थरों को ‘शजर’ कहा जाता है। शजर में झाडि़यों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, मानव और जलधारा के विभिन्न रंगीन चित्र देखने को मिलते हैं। इसके किनारों पर अवैध रूप से बड़ी ही तादाद में बालू उत्खनन का काम होता है। 
     हम अब तक की यात्रा का सबसे सुखद और चित्ताकर्षक समय केन के पुल पर व्यतीत किए थे। हमें वहाँ से जाने का मन तो नहीं कर रहा था, मगर लक्ष्य तो खजुराहो के ऐतिहासिक और विश्व-प्रसिद्ध मंदिरों का दर्शन था। हम अनमने मन से चल पड़े। 
     पन्ना से खजुराहो की दूरी 44 किलोमीटर है। पन्ना से राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या -75 पर 35 किलोमीटर आगे बामिथा जाकर वहाँ से उत्तर दिशा में अर्थात बायें मुड़ने पर नौ किलोमीटर बाद खजुराहो आ जाता है। पन्ना और बामिथा के ठीक मध्य में केन नदी मिलती है। हम बमिथा में एक ढाबा पर रूके। सुबह का दस बज रहा था। हम ढाबे पर ही स्नन किए और पूरी यात्रा का सबसे ताज़ा भोजन किया। अब सब कुछ हमारे पक्ष में जो हो गया था। केन ने हमारी पीड़ा को धो जो डाला था।
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Oct 7, 2014

कुछ घंटे नर्मदा के किनारे


     दिल्ली में रहते हुए मैं राष्ट्रीय राज मार्ग - 8 से पूर्णतः परिचित हूँ। जीवन के अनेक अध्यायों से भी परिचित हो चुका हूँ। लोग सिद्धांतों की बातें करते हुए ‘बीती ताहि बिसार दे’ की बातें करते हैं, मगर मुझे तो लगता है कि कोई तपस्वी भी बीती बातों को नहीं भूल पाता होगा। खैर, मैं तो नहीं भूल पाता हूँ। उन्हीं बीते पन्नों को पलटते वक्त मेरी नज़र कहीं ठहर जाती है तो वह 2009 का समय होता है। समय ने मुझे अपने सामर्थ्य भर पढ़ाया, ईश्वर ने मुझे पढ़ने का साहस भी भरपूर दिया। उन्हीं खट्टे वक्त का स्वाद कभी-कभी जीभ पर चटकारा भी दे जाता है।
     बात 2009 के अक्टूबर माह का है। समय के दावानल में झुलसता हुआ मैं दिल्ली का एक-एक क्षेत्र भ्रमण कर चुका था। जब लगा कि दिल्ली में गलने के लिए दाल नहीं खरीद पाऊँगा तो इंटरनेट की सहायता से भारत-भ्रमण करते हुए अपने लिए रोटी का बहाना ढूँढता रहा। उन्हीं खोज में मुझे आत्मीय विद्या मंदिर, कामरेज, सूरत तथा सर्वनमन विद्या मंदिर भरुच से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। बुलावा ई-मेल द्वारा था। सुविधा यह थी कि एक ओर से शयनयान के टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा और अगर चयन होता है तो दोनों तरफ के टिकट का पैसा दे दिया जाएगा। ..... नौकरी की तलाश थी ही, मुझे लगा कि जाना चाहिए।  वैसे, मैं चयनित हो गया था और मुझे दोनों तरफ का किराया मिल गया था।
     संयोग ही था कि दोनों विद्यालय एक ही संस्था संचालित करती है। मुझे आत्मीय विद्यामंदिर में साक्षात्कार के दौरान पता चला। दूसरे दिन भरुच आना था। मैं सुरत या भरुच को सिर्फ नाम से जानता था, आँखों से देखा नहीं था। मुंबई जाते वक्त मेरी ट्रेन यहीं से गई थी, तब मैं निशा-निद्रा में रहा था। आज आँखों में उतारने का अवसर मिला था। यह अलग बात थी कि अवसर तनाव वाला था। नौकरी के तलाश की यात्रा, परिणाम की चिंता और नौकरी-विहीन व्यक्ति के लिए यात्रा-खर्च अपना एक अलग तनाव का कारण बन गए थे। फिर भी पहली बार साक्षात् होने के कारण जिज्ञासा अनायास ही बलवती होती रहती थी। मैं कामरेज पुलिस स्टेशन के चैराहे से, फ्लाई-ओवर के नीचे से राज्य परिवहन की बस से भरुच जा रहा था। हाई वे का विस्तार हो रहा था। निर्माण के पहले का ध्वंसात्मक रूप भी मेरे लिए आकर्षक था क्योंकि इस मिट्टी की सोंधी गंध मेरे लिए नयी थी। 
     ताप्ती को पार किया तो मन हरा-भरा हो गया। मैं सुरत, भरुच, ताप्ती आदि से केवल भूगोल पढ़ते समय ही परिचित हुआ हूँ। सूरत और भरुच को तो इंडस्ट्रीज़ के कारण भी जानता हूँ। एक कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध है और एक इस्पात उत्पादों के लिए। सुरत में तो मेरे गृह-नगर के कई मारवाड़ी व्यावसायी आकर अपना कारखाना लगा लिए हैं। और ताप्ती! यह वहीं ताप्ती है जो पूरब से पश्चिम की ओर बहती हुई अरब सागर में गिरती है। अपने मन को मील के पत्थरों, बैनरों, साइन बोर्डों के गुजराती शब्दों और अक्षरों समझने में उलझाता मैं भरुच आ ही गया। तब तक बहुत सारे वर्णों के लेखन-लिपि को समझ चुका था। अभ्यास में नहीं रहने के कारण अब भूल चूका हूँ। 
    अब मैं उस भरुच की धरती पर था, जो कभी गुर्जरों द्वारा शासित रही है। भरुच का अपना एक समृद्ध और गौरवमयी इतिहास है। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार गुर्जर सूर्यवंश या रघुवंश से सम्बन्ध रखते हैं। 7वीं से 10वीं शताब्दी के गुर्जर शिलालेखों पर सूर्यदेव की कलाकृतियाँ भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है। अब मैं उसी भरुच की धरती पर अपना पाँव जमाने के लिए आ गया था। 

     वैसे मैं बता दूँ कि दोनों विद्यालय, आत्मीय विद्या मंदिर, कामरेज, सुरत और सर्वनमन विद्या मंदिर, भरुच, ही सी.बी.एस.ई. पाठ्यक्रम पर आधारित शिक्षण देने वाले पूर्णतः आवासीय हैं। यहाँ अध्यापकों के लिए भी रहना, खाना और बच्चों के निःशुल्क शिक्षण की व्यवस्था है। आत्मीय विद्या मंदिर बालकों के लिए है तो सर्वनमन विद्या मंदिर बालिकाओं के लिए। ये संस्थाएँ योगी डिवाइन सोसायटी द्वारा संचालित हैं। दोनों विद्यालयों की स्थापत्य स्थिति और वास्तु-व्यवस्था बहुत ही आकर्षक और मनोहारी है। मैं कल यानि कि 26 अक्टूबर को करीब ग्यारह बजे कामरेज में था और आज भरुच के इस राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या - 8 पर जाडेश्वर में उतर चुका था। पूछने पर एक दूकानदार सज्जन ने बताया कि सड़क के उस पार जाकर आप दायें वाली सड़क से पैदल ही चले जाइए। यहाँ से बस तीन सौ मीटर की दूरी पर है। आप पैदल ही चले जायेंगे। 
     दो सौ मीटर चलने के बाद थोड़ा वृत्त रूप में सड़क बायें घूमती है और सर्वनमन का अहाता। पहली ही दृष्टि में आकर्षक भवनों का गुच्छ। मुख्यद्वार के पहले वृत्ताकार स्थल को पार करते हुए मैं रिसेप्शन पहुँचा, प्रधानाचार्य से मुलाकात, कुछ पल की प्रतीक्षा। एक कमरे में बुलाया गया। वहाँ पहले से चार माननीयगण थे, जिसमें प्रधानाचार्य भी थे। उन्होंने हिंदी विभागाध्यक्ष तथा प्रबंध तंत्र के दो अन्य महानुभावों से परिचय करवाया। प्रश्नों की बौछार होने लगी। मैं यथाज्ञान उत्तर देने लगा। एक और प्रत्याशी थे। बनारस के रहने वाले जो कच्छ में रहते थे। अतः मुझसे कहा गया कि आप एक-डेढ़ घंटे बाद आइए। मैं कहाँ जाऊँ? तब तक बताया गया कि सामने मंदिर है, मैं घूम आऊँ। मुझे फोन कर दिया जाएगा। मैं परिणाम की प्रतीक्षा का बोझ लिए चला गया।
     अब मैं बाहर आ गया। जिस रास्ते से यहाँ आया था और जो रास्ता विद्यालय से निकलता था, से सभी एक त्रिभूज बनाते हैं वहाँ। उस त्रिभुज को पार करने के बाद नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर का प्रांगण प्रारंभ होता है। परिणाम की प्रतीक्षा में मैं ईश्वर का शरण उपयुक्त समझा। हारे को हरिनाम। बहुत ही विशाल प्रांगण है। शांत वातावरण। वृक्षों की अधिकता के कारण शीतलता रहती है। साफ-सफाई का खासा ध्यान रखा जाता है। इसमें महादेव के मंदिर के अतिरिक्त हनुमान जी का भी मंदिर है। छोटे-बड़े अन्य भी मंदिर हैं। वहाँ अभी-अभी संपन्न हुए छठपूजा का अवशेष भी देखा। मंदिर के पार मैं नीलाभ युक्त जलधाराओं को देखकर वहाँ गया तो पता चला कि यह निर्मल धारा नर्मदा का है। नर्मदा का? अरे वाह!.... मैं नर्मदा की असीम जलराशि के किनारे था।

     नर्मदा नदी मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई 1310 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ आकर यहीं भरुच से ही कुछ दूरी पर खम्भात की खाड़ी में गिरती है। नर्मदा नदी को ही उत्तरी और दक्षिणी भारत की सीमारेखा माना जाता है। यह विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधि-स्थल से जन्म लेती है। विंध्याचल और सतपुड़ा के बीचोबीच पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होती है तथा मंडला और जबलपुर, होशंगाबाद से होकर गुजरती है। यह नर्मदा का जन्म-स्थान सागरतल से 3000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। मंडला के बाद उत्तर की ओर एक सँकरा चाप बनाती हुई यह जबलपुर की ओर मुड़ जाती है। इसके बाद 30 फीट ऊँचे धुँआधार नामक प्रपात को पार कर यह दो मील तक एक संकरे मार्ग से होकर बहने के बाद जलोढ़ मिट्टी के उर्वर मैदान में प्रवेश करती है, जिसे नर्मदाघाटी कहा जाता है। यह घाटी विंध्य और सतपुड़ा पहाडि़यों में है। पहाडि़यों से बाहर आने के बाद नर्मदा फिर से एक खुले मैदान में प्रवेश करती है। इसी स्थान पर आगे ओंकारेश्वर एवं महेश्वर नामक नगर इसके किनारे बसे है। यहाँ उत्तरी किनारे पर कई मंदिर, महल एवं स्नानघाट बने हुए हैं। इसके बाद यह भरुच पहुँच कर अंत में खंभात की खाड़ी में एकाकार हो जाती है। भरुच में आने से पहले शुक्लातीर्थ से नर्मदा की बनी दो धाराएँ नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर पर फिर एक हो जाती हैं।
     मंदिर का प्रांगण आकर्षक और रूचिकर था, पेड़-पौधों का सानिध्य मनभावन था, लोगों का आना-जाना सजीवता दे रहा था, मगर मैं एक चबुतरे से उठकर दक्षिणी बाउंड्री वाल की ओर चला गया। वहाँ खड़ा होकर मैं नर्मदा की विराटता देखने लगा। एक अथाह शान्ति का अनुभव मेरे लिए आज भी प्रेरणादायक बना रहता है। जैसे उस सागर-संगिनी नर्मदा ने मेरे मन के सारे उथल-पुथल को शांत कर दिया था। साक्षात्कार के परिणाम की प्रतीक्षा मैं भूल गया। जैसे मैं उस सरिता के सानिध्य से सब कुछ पा रहा था। नदी की मंद धाराएँ मुझे प्रसन्नता दे रहीं थीं। नदी भी तो कम प्रसन्न नहीं लग रही थी। अब वह अपने विराट का हो जाएगी। खंभात की खाड़ी तो बस अब कुछ ही दूर है। कौन विरहिणी होगी जो अपने प्रिय को पाकर प्रसन्न न हो?

     मैं नर्मदा के दर्शन में खो सा गया था। आकंठ डुबकर स्वयं से दूर सा हो गया था। यात्रा का निमित्त तो मैं भूल ही गया था। यात्रा की सारी थकान गायब हो गयी थी। लगता था कि मैं किसी पुण्य का परिणाम पा रहा था कि तभी सर्वनमन विद्यालय से फोन आया। असली निमित्त तो नौकरी पाना ही था। अतः भारी मन से उस नीली जल-राशि को प्रणाम कर, उसमें एक सिक्का प्रवाहित कर, विद्यालय आ गया।
    मेरा चयन हो चुका था। वेतन पर चर्चा हुई। कुछ मैं झुका, कुछ वे बढ़े। बात तय हो गयी तो खाना खाने के उपरांत मैं स्टेशन के लिए चला। मन में ख़ुशी इस बात की थी कि अब नर्मदा को रोज ही निहारा करूँगा। वैसे, मीठास वाला खाना मुझे अरूचिकर लगा। आज ही मेरी वापसी थी। सर्वनमन विद्या मंदिर से मैं रेलवे स्टेशन के लिए चला। आॅटो लिया। हाई वे से रेलवे स्टेशन की दूरी करीब 5 किलोमीटर है। जाडेश्वर, बस स्टैंड, शीतल सर्कल रोड को पार करता मैं स्टेशन आ गया। मैं यहाँ सड़क मार्ग से आया था। आत्मीय विद्या मंदीर कोली भार थाना, कामरेज से मैं सर्वनमन विद्या मंदीर आया था। कामरेज से सर्वनमन की दूरी 63 किमी है। अब परिणाम भी अच्छा मिला था और दर्षन भी अच्छे का हुआ था, अतः सब कष्ट भूल गया।
     जब दिल्ली आया तो किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से वहाँ जा नहीं पाया। नर्मदा का फिर से दर्शन नहीं हो पाया। मन में टीस बनी रहती है। इच्छा भी बलवती होती रहती है। समय बदलता रहता है मगर नर्मदा को नहीं भूल पाता हूँ। मैं उसके तट पर कुछ ही घंटे व्यतीत किया था मगर उसका सौंदर्य और आकर्षण आज भी सम्मोहित करता है।
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Oct 5, 2014

इण्डिया गेट पर एक दिन


     दिल्ली का महत्त्वपूर्ण स्मारक, जिसे 80,000 से अधिक भारतीय सैनिकों की याद में निर्मित किया गया था, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में वीरगति पाई थी। उस महा-स्मारक को इण्डिया गेट से अभिहित किया जाता है। इण्डिया गेट नई दिल्ली के राजपथ पर स्थित 43 मीटर ऊँचा विशाल द्वार है। यहाँ वर्ष भर, हर मौसम में, हर हाल में शैलानियों की भीड़ उमड़ी रहती है। यह स्वतन्त्र भारत का राष्ट्रीय स्मारक है। इसका डिजाइन सर एडवर्ड लुटियन्स ने तैयार किया था। यह स्मारक पेरिस के आर्क डे ट्रॉयम्फ से प्रेरित है। इसे सन् 1931 में बनाया गया था। मूल रूप से अखिल भारतीय युद्ध स्मारक के रूप में जाने जाने वाले इस स्मारक का निर्माण अंग्रेज शासकों द्वारा उन 90000 भारतीय सैनिकों की स्मृति में किया गया था जो ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर प्रथम विश्वयुद्ध और अफगान युद्धों में शहीद हुए थे। लाल और पीले बलुआ पत्थरों से बना हुआ यह स्मारक दर्शनीय है। भले ही व्यक्ति किसी भी उम्र का हो, यहाँ आकर कुछ घंटे अवश्य व्यतीत करना चाहता है। चाहे व्यक्ति दिल्ली में रहने वाला हो या बाहर से आया हो, छुट्टियों में आउटिंग या पिकनिक मनाने का सबसे मनोहारी और आकर्षक स्थल है इंडिया गेट।
    इंडिया गेट के पूरब में मेज़र ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम है तो इन दोनों के बीच में ही जार्ज पंचम के पुतला वाला छतरी। दक्षिण में बाल उद्यान (चिल्ड्रेन्स पार्क) का मनोहारी दृश्य है जहाँ बच्चों की किलकारिया गुँजती रहती हैं। बाल उद्यान के ठीक उत्तर में अगस्त क्रांति मैदान है। इंडिया गेट से पश्चिम की ओर दोनों तरफ समानान्तर  ही कृतिम जलाशय है। इंडिया गेट के इर्द-गिर्द शेरशाह रोड, डाॅ. ज़ाकिर हुसैन मार्ग, शाहजहाँ रोड, अकबर रोड, अशोक रोड, के जी मार्ग, तिलक मार्ग, पुराना किला रोड, का चक्र बना हुआ है। जिस तरह इसके पूरब में मेज़र ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम है, ठीक वैसे ही इसके ठीक पश्चिम में राजपथ है। राजपथ मानसिंह मार्ग, जनपथ आदि को चिरता हुआ राष्ट्रपति भवन तक जाता है। इंडिया गेट के तल पर एक अन्य स्मारक, अमर जवान ज्योति है, जिसे स्वतंत्रता के बाद जोड़ा गया था। यहाँ निरंतर एक ज्वाला जलती है जो उन अंजान सैनिकों की याद में है, जिन्होंने इस राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। अमर जवान ज्योति की स्थापना 1971 के भारत-पाक युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों की याद में की गई थी।

     इंडिया गेट से राजपथ की लंबाई नौ सौ मीटर है जिसे पैदल ग्यारह मिनट में पूरा किया जा सकता है। राजपथ को 1947 के पूर्व ‘किंग्स् वे’ के नाम से जाना जाता था। यह पश्चिम में राष्ट्रपति भवन से विजय चौक होकर पूर्व में इण्डिया गेट होकर ध्यानचंद राष्ट्रीय स्टेडियम तक जाता है। इसके दोनोँ ओर घास की हरितिमा से परिपूर्ण सुन्दर मैदान हैं। राजपथ के साथ ही दोनों ओर एक-एक कृत्रिम झील साथ-साथ चलती है, जो कि इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाती है। यहाँ घासों की हरियाली के साथ ही छायादार पेड़ों का भी भरमार है। इन पेड़ों की छाया के कारण इंडिया गेट के आस-पास दिन के दोपहरी में भी आगंतुकों की भीड़ रहती है। पश्चिम में रायसीना की पहाड़ी पर चढ़ कर हम राष्ट्रपति भवन जा सकते हैं। राष्ट्रपति भवन के दोनो ओर सचिवालय है एवं उत्तरी खण्ड नार्थ ब्लॉक व दक्षिणी खण्ड साउथ ब्लॉक हैं। विजय चौक पर यह रफी मार्ग को काटती है, जहाँ से संसद भवन दिखाई देता है। अगला चौक जनपथ के काटने से बनता है। फिर मानासिंह मार्ग के काटने से अगला चौक है। आगे शान से सीना ताने विराजमान - इण्डिया गेट। 
     कहते हैं कि जब इण्डिया गेट बनकर तैयार हुआ था तब इसके सामने जार्ज पंचम की एक मूर्ति लगी हुई थी। जिसे बाद में ब्रिटिश राज के समय की अन्य मूर्तियों के साथ कोरोनेशन पार्क में स्थापित कर दिया गया। अब जार्ज पंचम की मूर्ति की जगह प्रतीक के रूप में केवल एक छतरी भर रह गयी है। 
     अगर मैं कहूँ कि यह दिल्ली को एक पहचान तो देता ही है, साथ ही सबसे बेहतर स्थान पर भी स्थित है, तो कोई मिथ्या नहीं। दिल्ली की कई महत्वपूर्ण सड़कें इण्डिया गेट के कोनों से निकलती हैं। वैसे तो दिलभर यहाँ लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है, मगर रात के समय यहाँ मेले जैसा माहौल होता है। मैं इस वर्ष के दशहरे की अवकाश में एक दिन पत्नी और अपने सुपुत्र के साथ एक दिन पहुँचा। रेंट के कमरे की कैद से आज़ाद और इतना खुला स्थान पाकर मेरा बेटा कुलांचे मारने लगा। उसकी प्रसन्नता उसके चेहरे, हाव-भाव और क्रिया-कलाप से दिखाई दे रही थी। कभी दौड़कर अपने माँ को पकड़ता कभी मुझे अपने साथ दौड़ने का न्योता देकर आगे निकल जाता। बच्चा तो नहीं समझ रहा था, मगर मैंने पत्नी को समझाया कि अभी पाँच ही दिन हुए, 28 सितंबर को यहीं से एक तीन वर्ष की बच्ची जाह्नवी गायब हो गई है। घरवालों से लेकर पुलिस तक खोज रही है, बच्ची का कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तो इंडिया गेट पर भी कोई महफूज नहीं है। बेटे पर नज़र रखना।


     अब तो इण्डिया गेट सुरक्षा चाक-चौबंद रहती है। मैं पहले भी एकबार पत्नी को लेकर आया था। पास तक नहीं जा पाया था। जनपथ के बाद बैरेकेटिंग थी। बैरेकेटिंग तो अभी भी है, मगर हम पैदल जा सकते हैं। छू तो कभी नहीं सकते। बस, बगल से ही छू सकते हैं। पूरब-पश्चिम की ओर से लौहे का मोटा जंजीर लटका रहता है। उस पर सूचनार्थ एक तख्ती भी है, - ‘स्मारक की दीवार, जंजीर व खंभे को नहीं छुए।’ अमर जवान ज्योति के पास एक जवान मूर्तिवत खड़ा था, दूसरा लोहे की जंजीर के अंदर ही गस्त लगा रहा था। हमने अपनी सुविधा और माध्यम से तो फोटो लिया ही, एक प्रोफेशनल कैमरा मैन से भी तीन फोटो बनवाए। फोटो की प्रतीक्षा करते-करते पानी का बोतल गटका। लोगों की भीड़ और बेटे की प्रसन्न्ता के बीच का सामन्जस्य थोड़ा हर्षक इसलिए भी था कि यहाँ से यातायात के साधन नहीं आते-जते। सभी जनपथ से गुजर जाते हैं। कहते हैं कि पहले इसके आसपास होकर काफी यातायात गुजरता था। परन्तु अब इसे भारी वाहनों के लिये बन्द कर दिया गया है। शाम के समय जब स्मारक को प्रकाशित किया जाता है तब इण्डिया गेट के चारो ओर एवं राजपथ के दोनों ओर घास के मैदानों में लोगों की भारी भीड़ एकत्र हो जाती है। 625 मीटर के व्यास में स्थित इण्डिया गेट का षट्भुजीय क्षेत्र 306000 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में फैला है। इस परिसर में अब जो वाहन दिखाई दे रहे थे, वे सुरक्षा कारणों से आ-जा रहे थे या रूके थे।
     दिल्ली के सभी मुख्य आकर्षणों में से पर्यटक, इंडिया गेट जाना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। दिल्ली के हृदय में स्थापित यह भारत के एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में शान से खड़ा है। अबकी बार मैं लगभग आठ माह बाद यहाँ परिवार लाया था। इस बार भागमदौड़ की भी कोई बात नहीं थी। पर्याप्त समय था। मैं अपने मोबाइल से हर पाँच-दस मिनट पर बेटे का चित्र लेता रहता था। उसकी प्रसन्नता के कारण मैं सबको लेकर बाल-उद्यान की ओर चला गया। झूला और बस झूला। खेल के इतने साधनों को देखकर बेटा हमारे पास ही नहीं रहता था। उसकी तो अलग दुनिया बन गई थी। कभी इसपर, कभी उसपर। बाल उद्यान में हम उत्तरी द्वार से प्रवेश किए थे और अपने दाँये से परिक्रमा करते हुए उस छोटे से उद्यान से लगभग दो घंटे बाद निकले। जब पूर्वी छोर पर गए तो पापड़ खाने के चक्कर में वह थोड़ा रूका। चेहरा खेलने और धूप के कारण लाल हो गया था मगर इधर झूला न देखकर थोड़ा उदास हो गया। अब बाहर निकलने के लिए बेचैन। 
बाल उद्यान के उस उत्तरी द्वार पर बैठे खोमचे वाले बहुत ही अच्छी तरह से बाल-मनोविज्ञान के ज्ञाता होते है। बबल्स, पाॅपकोर्न, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक और बाॅल। सबकुछ के लिए आवाज़ लगाने लगते हैं। मेरा बेटा जूस के लिए बेचैन हो गया। उसके लिए जूस का अर्थ है - फ्रूटी। फ्रूटी नही तो कोई भी शीतल पेय।.…..हम उसे बहलाने का प्रयास करते हुए इंडिया गेट की बाँयी ओर वाली कृत्रिम नहर के पास एक पेड़ की छाया में बैठ गए। बेटा जूस के लिए परेशान कर रहा था। हमने कॉर्न खाया। जब वह नहर के फव्वारे से पानी निकलता देखा तो बारिश का पानी समझ नहाने की इच्छा व्यक्त करने लगा। मैं उसकी हर एक क्रिया-कलाप का फोटो लेता रहा। वह जूस के लिए परेशान करता रहा। ‘मैं जूस ले लूँ?’ कह कर कुछ दूर गया और आकर पैसा माँगने लगा। अब मैं कोल्ड ड्रिंक खरीदने के लिए मन बना चुका था। हम चल पड़े, मगर मैं उसका फोटो लेता रहा। मेरे बार-बार फोटो लेने से वह इस कदर परेशान हो गया कि दोनों हाथों से सिर पकड़ कर कहने लगा, - ‘मेले समझ में कुछ नहीं आ रहा।...अब मैं क्या कलूँ?’ 

     हँसी की एक लहर फूटी। भले ही मैं पत्नी को नहीं बताया, मगर मेरे द्वारा बार-बार फोटो लेने का वास्तविक कारण तो यह था कि जाह्नवी की घटना चर्चा में है। एक तीन वर्षीय बच्ची अपहृत या गायब हो गई थी। मैं बार-बार फोटो ले रहा था, उसी के बहाने मेरी नज़र बेटे पर रहती थी। अगर सावधानी नहीं रहेगी तो क्या पता, विपदा किस रूप में आ जाए। .....खैर, मैंने एक शीतल पेय लिया। माँ-बेटे ने आनन्द लिया। इंडिया गेट के समक्ष का सारा पसारा अपने आकर्षण से सबको सम्मोहित तो करता ही है, आज मेरे बेटे ने भी पूरा आनन्द उठाया।
     अब हम राजपथ पर थे। मैं अपने आप में गर्वित हो रहा था। मैं उस राजपथ पर था, जहाँ राजपथ 26 जनवरी को परेड होता है। जहाँ रिवलुएशन के नाम पर कैंडल लेकर या मौन रूप से या उग्रता के रूप में भी लोग पहुँचा करते है। …मेरा बेटा आनंदातिरेक से भर उठा था। उसके साथ हम पति-पत्नी भी बच्चे हो गए थे। अब हम आॅटो के लिए जनपथ की ओर बढ़ चले थे। बैरेकेटिंग पर एक सूचना चस्पा किया गया था। जान्ह्वी के गुमशुदा की सूचना। पत्नी को दिखाया तो रूक कर पढ़ने लगी और उस मासूम की पीड़ा की कल्पना कर के द्रवित भी हो गईं। मैं का नहीं। वे भी आ गई। इंडिया गेट पर एक पूरे दिन को व्यतीत कर के अब हम अपने बसेरे की ओर चल दिए।
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Oct 4, 2014

‘बाक़ी जग वाले कह लेंगे’ (पुस्तक-चर्चा)

     सजग चेतना वालों में सिसृक्षा का बीज बोने के लिए निरंतर तत्पर श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव अर्थात रूद्र देव नारायण श्रीवास्तव का जन्म 10 दिसंबर 1939 को ग्राम बैरिया, नन्दा छपरा, रामकोला, जनपद कुशीनगर में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया परन्तु रचनाएँ हिंदी में करने लगे। उन्होंने लोकमान्य इंटर कालेज, सेवरही से प्रधानाचार्य पद से अवकाश लिया है। उनकी रचनाओं की धार बहुत ही तीक्ष्ण होती हैं। वे अपने अंदाज़ में ग़ज़ल लिखते हैं, अपने अंदाज़ में पढ़ते भी हैं। उनकी कविताएँ उच्च कोटि के हास्य और व्यंग्य से परिपूर्ण हैं। ‘वक्त की परछाइयाँ’, ‘ये ग़ज़ल’, ‘कविता समय’, ‘शब्द कुंभ’, ‘सितारे धरती के’, ‘मोती मानसरोवर के’, ‘नव ग़ज़लपुर’ में संग्रहित तथा ‘थाल में बाल’ 2010, दिल भी है, दीवार भी है’ 2014 में प्रकाशित उनके काव्य-संग्रह में उनके विचारों मानदंडों और जीवन-मूल्यों को देखा जा सकता है। समय-समय पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित होते रहने वाले श्रीवास्तव जी का नवीनतम गज़ल-संग्रह ‘दिल भी है, दीवार भी है’ मेरे हाथ में है। मुझे ईष्वर के अनुग्रह का अनुभव हो रहा है। श्रीवास्तव जी की अनुकंपा ही ही है कि उन्होंने मेरे लिए एक प्रति गोरखपुर से कुरियर किया। इसका प्रकाशन ‘नमन प्रकाशन, दिल्ली’ ने किया है जिसका मूल्य 175 रुपये निर्धारित किया गया है।

     मुझे ग़ज़ल के विशय में गहराई से कुछ नहीं पता, पर पढ़ने में आनंद आता है। आनंद के अतिरेक में मैंने अनुभव किया कि आर. डी. एन. श्रीवास्तव की ग़ज़लें जहाँ अपने मतला, रदीफ़ और काफि़या की बुनावट के लिए समीक्षकों को आकर्षित कर लेती हैं, वहीं अपने विषय-शिल्प, शब्द-संयोजन और चित्र-प्रस्तुति के कारण पाठकों और श्रोताओं को अपना बना लेती हैं। वे जितने सुलझे व्यक्ति हैं उतने ही एक लोकप्रिय प्रधानाचार्य भी रह चुके हैं। उनकी सोच विलक्षण और भावात्मक होने के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबिंब को प्रदर्शित करती हैं। 
    कलमकार की सार्थकता सामाजिक सोच की दृष्टि पर ही निर्भर करती है। कलमकार समाज को अपनी ही दृष्टि से देखता है और समाज के सामने उसी का चित्रांकन करता है। श्रीवास्तव जी की ‘दिल भी है, दीवार भी है’ पाठकों को सोचने पर विवश करती है, नए प्रश्नों को उजागर करती है और अपने समाज के नव-रचनाकारों को तैयार भी करती हैं। नए संग्रह की उनकी ग़ज़लें जितना चमत्कृत करती हैं, उनके व्यंग्य उससे अधिक अवाक्। उनका व्यंग्य सीधे शब्दों से व्यक्त हुआ है। सीधे शब्दों की मारक क्षमता बड़ी तीखी होती है। सहज शब्दों का ऐसा चमत्कार देखना हो तो उनकी ‘दिल भी है, दीवार भी है’ संग्रह को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए। 
    इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के दिसंबर अंक के आधार पर गोपालदास ‘नीरज’ तथा बेकल ‘उत्साही’ ने उनके शेरों को सराहा है। डाॅ. कुँअर बेचैन ने ‘दिल भी है, दीवार भी है’ की ग़ज़लों को सुख-दुख, हर्ष-विषाद तथा घर और बाहर से बात करते हुए बताया है। दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के हिंदी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रामदेव शुक्ल ने अपनी पारखी आँखों से खुब निहारा है और श्रीवास्तव जी ने इस संग्रह की ग़ज़लें और उससे सन्नद्ध परिबोध पर दृष्टिपात करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि - ‘हिंदी की इस लम्बी ग़ज़ल परंपरा में आर.डी.एन. श्रीवास्तव जैसे ग़ज़लकार की क्या अहमियत है, देखना भी शायद हिंदी ग़ज़ल विधा के विकास को खुली आँखों से देखना होगा।’
    मैं स्वयं श्रीवास्तव जी की नवीन कृति ‘दिल भी है, दीवार भी है’ के विषय में अपनी मंद बुद्धि और कमजोर सोच से समझना चाहूँ तो शीर्षक ग़ज़ल का ही एक शेर प्रस्तुत करना चाहूँगा कि -
बात अगर होठों तक आई कानों तक भी जायेगी
बाक़ी जग वाले कह लेंगे, कहने का अधिकार भी है।

    इस ग़ज़ल-संग्रह में प्रेम की पराकाष्ठा भी है, उसके भंगिमाओं का चित्र भी है और विविध रूप भी। श्रृंगार का स्वरूप  है, समर्पण है और सामाग्री भी है। साथ ही आस्था और विश्वास का सौंदर्य भी। जीवन-दर्शन भी है, आत्म-विश्लेषण भी है, राजनीति भी, भ्रष्टाचार भी और वर्तमान सामाजिक परिदृश्य भी। उन्हें भारत पर हावी होते इंडिया से पीड़ा है तो धार्मिक उन्माद से कोफ्त भी होता है। वे न्याय व्यवस्था पर चोट करते हैं तो सांसारिक मोह की महिमा का ज्ञान भी। वे संबंधों का बुनियाद विश्वास पर देखते हुए कहते हैं -
हमारे पास न खिदमत न पैसे
उन्हें अपना बना पायें तो कैसे।

    डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय के शब्दों में अगर कहूँ तो यह कहा जा सकता है कि ‘इस संग्रह की हर ग़ज़ल और तमाम ग़ज़लों के तमाम-तमाम मानीखेज शेर आपको पसंद आयेंगे। आपको कभी ठहर कर सोचने, कभी अतीत को बिसुरने, कभी वर्तमान पर सिर धुनने, कभी खुश तो कभी गमगीन होने, कभी हैरान तो कभी परेशान होने को मजबूर कर देंगे।
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मेरा गाँव बदल गया है . . . (संस्मरणात्मक यात्रा)


लगभग तीन-चार साल बाद अपने गाँव, अपने जन्म-स्थान जाने का अवसर प्राप्त हुआ। निर्णय यह हुआ कि इस बार हम साइकिल से चलेंगे। मेरा वजन अब पहले जैसा नहीं रहा। 55 किलो की सीमा पार करके 75-80 किलो का भारी-भरकम बंदा हो गया हूँ। मेरे पास पैंडिल-मार द्विचक्र वाहिनी (साइकिल) तो है नहीं, तथा गाँव के सौंदर्य और ममत्व भरे मिट्टी में द्वेष और तिकड़म का घिनौना रूप देखा हूँ, तो कोई अधिक रुचि नहीं हुई। सहयात्री बनने वाले नहीं माने। अब जाना तो है ही, साइकिल की व्यवस्था हो जाएगी। कल सुबह 6 बजे निश्चित किए गए स्थान पर आना है। अनमने मन से, इतने दिनों बाद, गंडक के बलात्कार के बाद, मान-मर्यादा और बहुत हद तक अस्तित्व-हीन अपने गाँव को निरखने का उत्साह भी गुदगुदी कर रहा था। सुबह उठकर प्रथम कार्य से निवृत ही हुआ था कि मोबाइल की बाँसुरी बज गई। दातुन-ब्रश, चाय-नाश्ता, सब गाँव में ही करने का निर्णय किया और नियत स्थान पर चल पड़ा। वहाँ अन्य तीन पहले से ही मौजुद थे। मेरी वाहिनी नदारत! मेरी विवशता और शिकायत ने तीव्रतर गति से कार्य किया। एक नई-नवेली साइकिल सामने हाजिर हो गई। बाप रे! अगर इतनी तेजी से कार्यालयों का काम होता तो देश कहाँ का कहाँ पहुँच गया होता? खैर, कुछ पल की प्रतीक्षा और हम छः यात्रियों की यात्रा आरंभ! उन सबमे उम्र के हिसाब से सबसे छोटा मैं ही था, पर हास्य-गाथा बराबरी की पढ़ी जा रही थी।
ओह! कुछ भी तो नहीं बदला! वहीं पगडंडियाँ। वैसे ही उजड्ड लगते लोग। वहीं चरवाहे। वहीं खेत-खलिहान और परती पड़ी जमीन। . . . अरे! हम तो रास्ता ही भटक गए। हममे से जो सबसे बड़े हैं, उनकी साइकिल का चेन उतर गया। वे पीछे छूट गए, बाकी हम, बहादुरी में आगे निकल आए। रास्ता भटकने पर उस उम्र में बड़े भाई की याद आई। आज का जेनरेशन ऐसा ही है। जोश में गलत-सही रास्ते का ध्यान रखे बिना ही सफर पर निकल पड़ता है और फिर भटकाव के समय बुजुर्गों की याद आती है। वैसे तो उनकी बातें जहर लगती हैं। . . . शुक्र है संदेश-वाहक के आधुनिक अवतार मोबाइल का। हमने संपर्क साधा और वे दूर से ही हाथों का ईशारा करके सही रास्ता निर्देशित किए। यह हमारी यात्रा में पहला बदलाव, जो खुशी के बदले थोड़ा टीस दे गया। ताना-तानी भरे चर्चाआंे के बीच सफर जारी रहा। जारी रहा प्रकृति का मौसमी नजारा। . . .गेहूँ के खेत। गन्ने के नवागत पौध। बरसात और बाढ़ की पानी से रक्षा के लिए बने मेढ़ों से होते हुए हम गाँव के विकास और स्थिति पर पछताते, तरस खाते, पैंडिल मारते, पसीना पोंछते चले जा रहे थे। सबसे अधिक परेशान मैं ही था, क्योंकि सबसे अधिक दिनों बाद जा रहा था। जो उम्र में सबसे बड़े भैया थे, इस प्रगति का हमारे द्वारा किए गए पोस्टमार्टम को सुनकर मुस्कुराते थे। उनका मुस्कुराना मुझे कुछ अजीब लग रहा था।
हम कुछ ही दूर आगे बढ़े थे कि पहले की अच्छी सड़क, इस समय टूटी, उखड़ी और बदहवास सी मिली। एक बारगी मन किया कि वहाँ से वापस लौट जाऊँ, पर मिट्टी की खींचाव में खींचा चला जा रहा था। पूरब से सूरज पलकें झपकाते आँखें खोलने लगा था। शरीर में गर्मी की अनुभूति तेज होने लगी थी। खेतों में किसानों की संख्या कम होने लगी थी। यहाँ के किसान भोर के पहले ही खेतों में आ जाते हैं और शरीर में धूप के गरम होते ही पानी पीने घर चले जाते हैं। यहाँ पशुपालन काफी तादाद में होता है। हाँ, पालकों के पशुओं की संख्या गिनती में कम होती है। संख्या से पता चलता है कि इनका उद्देश्य व्यावसायिक कम, स्वांतःसुखाय अधिक है। शायद इसी कारण से यहाँ के अनपढ़, बेरोजगार युवक-नौजवान भी हृष्ट-पुष्ट और ताकतवर होते हैं। अक्सर सूर्य की प्रचण्डता के साथ पशु चराने का काम प्रारंभ होता है। उस समय खेतों में किसानों के नहीं रहने पर चरवाहे कभी लापरवाही से, तो कभी परवाह करके अपने पशुओं को लहराती फसलों में एक-आध बार मुँह मार लेने देते हैं। कभी-कभी तो बड़ी सादगी से दुश्मनी भी निभा ली जाती है। गाँव की पावन मानसिकता में घातक दुश्मनी और कलुषता का दीमक गाँवों को खोखला कर रहा है। इस दर्द को मैं बारीकी से समझता हूँ। हमलोगों के पलायन के कारणों में एक यह भी तो कारण था। बस, बहाना बन गई गंडक की कटान।
अब आगे का रास्ता कुछ आश्चर्य में डालने लगा। बाढ़ की जलधारा के बने भयंकर एवं खतरनाक गड्ढों वाले रास्ते पर अब पुल बन गया है। मैंने अपना आश्चर्य व्यक्त किया तो उम्र में सबसे बड़े वाले भैया ने बस इतना ही कहा, - ‘अभी आगे चलो मेरे भाई।’
मन में पहेली को समझने का साहस जागा। अर्थात् आगे कुछ और विकास का कार्य हुआ है! पैंडिल पर कुछ तेज दबाव पड़ने लगा। हमारी बेचैनी बढ़ने लगी। एक, दो नहीं, पूरे चार किलोमीटर तक आगे बढ़ गए, कोई विशेष अंतर नहीं। हाँ, ग्राम देवी (सोना भवानी) के स्थान पर थोड़ी अधिक चहलकदमी नजर आई। उनके स्थान के चारों ओर घेरा बन गया है। दीवारों पर ताजा रंगरोगन किया गया है। उस स्थान पर जाने के लिए सड़क से सटा एक बड़ा सा प्रवेश-द्वार बन गया है। वहाँ पहुँचते ही मेरा माथा उस आदि शक्ति के सामने झूक गया। वहाँ के विकासशील पीपल का वृक्ष देखकर मुझे अपने द्वार के विशालकाय पीपल की याद आ गई। याद आते ही मन कसैला हो गया। अपने गाँव का सारा दृश्य आँखों के सामने एक बारगी जीवंत हो गया। . . .
मेरा गाँव! जहाँ प्रार्थना जैसी पवित्र महकती सुबह का स्वागत हरिहर बाबा के शिव-भजन एवं दूर से मस्जिद के आजान से हुआ करता था। आँख खोलते ही कंधे पर हल सम्भाले, खेतों की ओर जाते किसान, सीना ताने, बसवाड़ी के अखाड़े में जाते जवान, रम्भाती गायंे, किलकते बछडे़, मेंमियाती बकरियाँ और धूल-धूसरित, नंग-धड़ंग हम सब बाल-गोपाल। मेरे गाँव के लगभग सारे  मकान कच्चे थे, लेकिन लिपे-पुते और सुन्दर थे। घरों पर लहराती लौकी और तरोई की लताएँ सबके मन को बरबस मोह लेती थीं। जेठ की दोपहरी में पीपल की छाँव का आनंद कौन भूल सकता है? बूढ़े, बच्चे और जवान, सभी तो हूजुम लगाए रहते थे। बूढ़ों की अपनी अनुभवी चर्चा के साथ ताश का खेल होते-होते आर. एम. पी. चाचा और जे. एन. पी. चाचा का शोर कौन भूल सकता है? हम बच्चों का पीपल की सबसे नीचली डाल पर ओल्हा-पाती, झूला, लुका-छिपी खेलना। जवानों की अपनी बेरोजगारी की चर्चाएँ। उन्हीं चर्चाओं में हमारे गाँव के जवानों ने रामलीला-मंडली का गठन किया था। उस रामलीला के दशरथ, परशुराम, रावण, वशिष्ट, नारद, राम, लक्ष्मण, सीता. . .  किसे नहीं जानता हँू मैं? आज वे यहाँ नहीं मिलेंगे। समय की आँधी ने सबकुछ तहस-नहस कर दिया। विकास से कोशों दूर मेरा गाँव आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरों का मुँह ताकता रहा। रामलीला मंडली से मन का गुजारा चल जाता, तन तो अंदर और बाहर, दोनों ओर से नंगा होने लगा। जो थोड़े पढ़े-लिखे लौजवान थे, वे मुंबई, पंजाब, दिल्ली का राह पकड़ लिए। कुछ बहके मानसिकता के नौजवान खाकी, खादी को छोड़ काली वर्दी को श्रेष्ठ मानने लगे थे। मेरा गाँव तबाह होने लगा। अपनी बेटी-बहुओं की आबरु और अपनी नाक की रक्षा के लिए लोग शहर जाकर जमीन लेने लगे। तब अपनी ही मिट्टी का गंध असहनीय हो गया। जो दूसरे जगह बसने में सामथ्र्यवान नहीं थे, गंडक ने उनके आबरु और नाक की रक्षा की। गंडक की कटान और उसके बरसाती उन्माद की तबाही से वहाँ का जमीन-जायदाद बेंचकर भी लोगों को दूसरे जगह बसना ही पड़ा। 
मेरे बाबुजी कुछ अलग किस्म के आदमी थे। उनके लिए यह गाँव और मिट्टी माँ है। मिट्टी और माँ को बदला नहीं जाता। जिस धरती पर जन्म लिए वह धरती पूर्वजों की भी माँ होती है। वह तो शुक्र है ऊपर वाले का कि उनके घर में मेरे जैसे कुपुत्र ने जन्म ले लिया। मेरे आँखों के सामने ही एक घटना घटित हो गई। (मेरी भोजपुरी कहानी-‘लिट्टी’ वाली घटना)। उसके बाद तो मैं अपनी कसम दिलाकर उन्हें शहर में जमीन लेने के लिए तैयार कर लिया। . . . आज मेरे बाबुजी होते तो समझते कि कितना फायदा हुआ है मेरे उस कसम का। उनके चार में से तीन बेरोजगार बेटे भी आज अपने पैरों पर खड़े होकर अपने ढंग से अपनी जिन्दगी जी रहे हैं।
यह मिडिल स्कूल है। यहीं मेरी 6वीं से 8वीं तक की पढ़ाई हुई है। पहले खपड़ैल का था, अब पक्का मकान हो गया है। . . . यह है राम-जानकी मंदिर! इसके तल को हम सुरंग कहते थे। आज बेसमेंट कहते हैं। दिल्ली में लगभग सभी मकान बेसमेंट वाले होते हैं। हाँ, मंदिर का जीर्णोद्धार हो गया है। कुछ देवताओं की नई प्रतिमा स्थापित की गई है। पूरब की ओर है हाई-स्कूल! अरे! टूटे कमरों से थोड़ा दक्षिण तो दो मंजिली ईमारतें हैं। सबने बताया कि अब यह इंटर काॅलेज हो गया है। मैं भ्रम में था कि पूरुवा हवा ने आकर जैसे समझाया कि विकास देख रहे हो? सहयात्रियों में से किसी ने कहा,- वह तो स्कूल है, नीचे देख रहे हो?
क्या बात है? मेरा गाँव जैसे बदल गया है। जैसे चिढ़ा रहा है मुझे कि मैं भी बदल गया हूँ। नीचे चमचमाती सड़क है। बाजार में धान की भूसी से बिजली पैदा करने का संयंत्र लगा है। सबके यहाँ शाम को 6 बजे से आधी रात अर्थात् 12 बजे तक बिजली की सप्लाई की जाती है। गाँव में मोबाइल कंपनियों का आठ-दस टावर लगा है। अब शहर से गाँव तक निरंतर गाडि़याँ चल रहीं हैं। आगे बढ़े तो मजा ही आ गया। यह साफ-सुथरी, धूली हुई सी सड़क, नदी की विराटता को ललकारती, बंधे तक गई है। कमाल हो गया। यहाँ पर भी कई प्राइवेट विद्यालय चल रहे हैं। बंधे के ऊपर रेल दौड़ेगी। मुआयना हो गया है। मिट्टी डालने का काम चालू है। पूरब में, मोती टोला के आस-पास विद्युत स्टेषन बनने वाला है। नदी के कछार को पत्थरों की जाल से बाँध दिया गया है। आस-पास के गुलमोहर अपने हरे कपड़ों में लाल फूल बटोर कर खेल रहे थे। बाँस की फुनगी हवा से लचक कर नदी के जल का चुंबन कर रही थी।
मैं पागल सा हो गया। इस धरती पर मुझे कभी यह सब नहीं मिला था। मैं पाना चाहता था। सबको एक साथ आत्मसात् करना चाहता था। नदी किनारे बैठकर, खड़ा होकर, कूदकर, झूम कर . . . कई फोटो खिंचवाया। आनंद ने मस्त किया, उमंग ने आस्वस्त किया और इन्हीं के साथ एक टीस मेरे आशाओं को कूरेद गई। मैंने देखा कि कई बच्चे आज भी भैंसों का झूंड चराने ले जा रहे हैं, कई टोलियाँ आज भी कंचे खेल रही है, और कई नौजवान अपने ही गाँव की लड़कियों को देख फब्तियाँ कस रहे हैं, तो किलकती हुई नदी की धारा ठहाका लगाने लगी। एक बार लगा कि यहाँ से पलायन का निर्णय सही था।
दोपहर के पहले-पहले हम अपने-अपने घर आ गए। मेरा मन भारी था। अपने गाँव की कई खट्टी-मिट्ठी यादों ने मन पर दबाव डाल दिया था। कुछ सहज हो कर मैं एक लड़के को फोन किया। वह भी गजब का जीव है। मुँह बोला रिश्ता कैसे निभाया जाता है, कोई उससे सीखे। वह मुझे कहता है चाचा, है दोस्त से बढ़कर। . . . मैंने उससे अपील की कि अगर कहीं कुछ सस्ती जमीन मिले तो बताना, मुझे एक झोपड़ी डालनी है। कम से कम उसी बहाने तो अपने बदले हुए गाँव जाया करूँगा! 
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उत्सवों का महिना कार्तिक


    भारत उत्सवों, पर्वों और सांस्कृतिक वैभव का देश है। भारत के कण-कण में जीवन का आनन्द झलकता है। उत्सव का वेग मिलता है और प्रेम-सौहार्द्र का प्रकाश मिलता है। जीवन इसी से तो है।कार्तिक मास को उत्सवों का महिना भी कह सकते है। दशहरा समाप्त होते ही दीपावली के दीपों की आभा से मानव-मन दिप्त हो जाता है। दीपावली कार्तिक मास के अमावस्या की काली रात को मनाया जाता है। अमावस्या को प्रकाश का पर्व मनाने का यह अनूठी स्वरूप हमेशा आदरणीय रहा है। तमसो मा ज्योर्तिगमय से अभिसिक्त भाव में मानव अपने अंदर ज्योति को अनुभूत करता ही है। भगवान श्रीराम के संघर्षों की कथा का भी साक्षी हो जाता है। संघर्ष के बाद जीवन रामराज्य तुल्य हो ही जाता है।
    दीपावली के एक दिन पूर्व धतेरस। लक्ष्मी जो कि सुख-शांति की देवी है, उनका स्वागत आज का ही नहीं किसी भी समय-काल का मानव करता रहा है। धनात् धर्मम्, तत् सुखम्। धन है तो जीवन में उत्सव है। सच्चाई भी तो यही है। अधिकता के कारण धन कभी-कभी दुख के निमित्त भी बन जाते हैं। तभी तो सामाजिक समानता की बात करते हुए कहा जाता है - ‘ना अति वर्षा, ना अति धूप। ना अति वक्ता, ना अति चुप।।’ भारतीय समाज में इस माह में उत्सवों, पूजा-अनुष्ठानों का दौर निरंतर चलता रहता है। यह दौर कभी व्यक्तिगत, कभी जातिगत, कभी सामूहिक तो कभी सर्वसमर्पण के रूप में देखा जाता है।
    दीपावली के अगले दिन चित्रगुप्त भगवान पूजित होते हैं। उसके अगले दिन भारतीय समाज में गोवर्धन पूजा की जाती है। गोवर्धन पूजा को लोग अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्योहार का भी भारतीय लोकजीवन में बड़ा महत्त्व है। गोवर्धन पूजा में प्रकृति के साथ मानव का सीधा संबंध द्रष्टव्य होता है। गोवर्धन में गोधन अर्थात गाायों की पूजा होती है। भारतीय संस्कृति में गायों को गंगा के समान पवित्र माना जाता है। गाय को लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। लक्ष्मी जिस प्रकार मानव को समृद्ध करती हैं, गौ भी अपने दूध, दही, गोबर, बछड़ा आदि से मानव को समृद्ध करती हैं। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन की पूजा की जाती है जिसमें गोबर से ही प्रतिकृति का निर्माण किया जाता है। गोवर्धन की कथा इंद्र के कोप और भगवान श्रीकृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने से भी है। कोप समाप्त होने के उपरांत जब श्री कृष्ण ने गोवर्धन को नीचे रखा तथा अन्नों को कूट कर गोवर्ध की पूजा करने की बात कही।
     अब आता है सूर्योपासना का महा पर्व छठ। यह कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक पवित्र पर्व है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को छठ माता का व्रत किया जाता है। पहले इस व्रत को केवल स्त्रियाँ ही करती थी, परन्तु अब बड़ी तादात में पुरुषों ने भी सहभागिता लेनी शुरू कर दी है। इस व्रत का अत्यधिक निमित्त तो पुत्र-प्राप्ति और दीर्घायु था परन्तु आज छठ व्रत सभी अभीष्टों के लिए रहा जाता है। वास्तव में छठ माता का व्रत भगवान भाष्कर का व्रत है। भगवान भाष्कर को अर्घ्य देने के बाद ही व्रती-जन अन्न ग्रहण करते हैं। छठ व्रत का समूचा विधान इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में परिलक्ष्ति होता है। लोक-उत्सवों का असली उमंग तो इन अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों के विविध रंगों से ही स्फूटित होता है। सूर्यदेव से प्रार्थना करती स्त्री अपनी दयनीय दशा का वर्णन कर रही है, -
काल्ह के भुखले तिरियवा
अरघ लिहले ठाढ़।
हाली-हाली उग ये अदितमल,
अरघा जल्दी दियाव।।

    छठ व्रत में पारण के पूर्व संध्या को अस्ताचल जाते तथा पारण के सुबह उदयाचल जाते सूर्यदेव को व्रती अर्घ्य अर्पित करते हैं। सूर्य देव को अर्घ्य देने की यह प्रक्रिया नदी, सरोवर या तालाबों के किनारे की संपन्न किया जाता है। छठ के गीतों में गंगा जी के स्वच्छ जल का भी वर्णन मिलता है। एक चित्र देखें, छठ माता का एक भक्त परिवार नाव से पूजा के घाट पर जा रहा है, -
ग्ंगा जी के झिलमिल पनीया
न्इया खेवे ला मल्लाह,
ताही नइया आवेले कवन बाबू
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।।

    लोक जीवन के इस बृहद् उत्सव के लिए कुछ दिन पहले से ही सामाग्रियों की व्यवस्था की जाने लगती है। छठ पूजा में लगने वाले अधिकांश सामान प्रकृति की गोद से ही प्राप्त हो जाते है या कृषि आधारित होते हैं। कहीं से केला, कहीं से नीबू, कही दही, कहीं सेब, सिंघााड़ा, गन्ना, हल्दी, अदरक आदि की व्यवस्था की जाती है। ये सामान सगे-संबंधियों के यहाँ से भी आते हैं। एक गीत देखें -
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघ लिहले।

    भारत का लोकमन यहाँ के मिट्टी जैसा उर्वर और निर्मल होता है। जिस प्रकार लोगों के मन में असंख्य लालसाओं का जन्म होता है, उसी प्रकार भारत की मिट्टी पर भी असंख्य फल-फूलों की ऊपज होती है। भारत की धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से परिपूर्ण है। यह रत्नगर्भा वसुन्धरा माँ हमें सबकुछ देती है। सबकुछ से समपन्न करती है। हमारे सुख-दुख, सबका ध्यान रखती हे। यहाँ के गाँवों में, जहाँ छठ, पिडि़या आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप् में जीवित हैं, उन अवसरों पर सामाग्रियों की व्यवस्था भी सोची जाती है। शहरी गति से पिछड़े हमारे गाँवों में कार्तिक-अगहन ही नहीं, वर्षभर उपयुक्त मौसम के फल-फूल, साग-सब्जी की मचलती लताएँ बेसुध होकर घरों के छतों-छप्परों पर पड़ी रहती हैं और अपनी हरितिमा से मानव-मन को आकर्षित करती रहती हैं। कहीं लौकी, कहीं कद्दू, कहीं नेनुआ हो या नीबू, केला, हल्दी, ओल का आकर्षक हो। सब मन को मोहते ही हैं, -
केरवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगाा गिरे मुरछाय।

     लोक जीवन! अर्थात सहजता का जीवन। इस सहजता में अपनत्व है, प्रेम है और अमर्ष भी है। व्रत-त्योहारों के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में भी आशीष और प्रेम के वर्णन के साथ ईर्ष्या और गालियों का भी स्वरूप मिल जाता है। बंरी नजर का डर लगता है, -
काँच ही बाँस के बहँगिया
बहँगी लचकत जाय।
बाट जे पूछेला बटोहिसर
ई बहँगी केकरा घरे जाय?
आँख तोर फूटो रे बटोहिया
ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।।

    छठ के गीतों का सांस्कृतिक पक्ष भी अद्भुत है। कहीं पार्वती माता शिव जी की फूलवारी से फूल तोड़ती हैं तो कहीं मालिन अपने कर्म में लीन है। सब श्रद्घा भाव से छठ माता के पूजन-अर्चन में लीन हैं। इस व्रता को सामाग्रियों का भी व्रत कहाजा सकता हे। सब प्रकार की सामाग्रियों की व्यवस्था की जा रही है। सामाजिक सहयोग की कोई सीमा नहीं रहती। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा के भेद-भाव के आडंबर से परे सभी उत्सव के सहयोग में जुट जाते हैं। आनन्द का निमित्त बन जाते हैं। मंगल के याचक बन जाते हैं। - 
महादेव के लगाावल फूलवरिया
गउरा देई फूल लोढ़े जाँय,
लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
सुति गइली अँचरा बिछााय।

   कार्तिक स्वच्छता का महीना है, स्नेह का महीना है। कार्तिक संबंधों का महीना है, जीत का महीना है। इस माह में विविध उत्सव होते हैं। सभी उत्सव कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी प्रकार से जोड़ते है।  अगर हम अपने उत्सवों से भी सीख लेते चलें तो पतित होती मानवता का पुनरुत्थान हो जायेगा। जीवन सुखमय हो जायेगा। 
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आस्था और आध्यात्म के प्रतिमूर्ति राधा बाबा (व्यक्तित्व)


    हमारा देश एक धर्म-प्राण देश है। यहाँ जीवन के लिए जैसे साँसों की आवश्यकता है, वैसे ही आस्था और आध्यात्म आवश्यक है। भारत में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर, धार्मिक प्रवृत्ति एवं परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन तथा उनके प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर महान संतों का अविर्भाव होता रहा है। उन्हीं महान संतों के पावन श्रृंखला में ‘प्रीतिरसावतार’ राधा बाबा थे।
    राधा बाबा का आविर्भाव बिहार के गया जिले के अन्तर्गत फखरपुर ग्राम में सन् 1913 की पौष शुक्ल नवमी को हुआ था। उनके बचपन का नाम चक्रधर मिश्र था। उनके परिवार का पालन-पोषण प्राचीन परिभाष्य कार्य पौरोहित्य से होता था। बालक चक्रधर के विलक्षण योग्यता के बारे में अध्यापकों को प्रारंभ में ही ज्ञान हो गया था। होनहार विरवान के होत चिकने पात। भला कैसे छिपता? अपने सहपाठियों में वे अग्रणी थे। उनमें नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भारत माता को अंग्रेजी पाश से मुक्त कराने के लिए उन्होंने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम में उन्हें दो बार जेल की भी यात्रा करनी पड़ी। जेलर क्रूर था। उसने बाबा को असनीय कष्ट दिया। उन कठोर यातनाओं के में उन्हें कई बार भगवत्कृपा की विशिष्टानुभूति हुई। इन दिव्य अनुभूतियों ने बालक चक्रधर के मन में यह प्रेरणा जगा दी कि जेल से बाहर आने के बाद भगवदीय जीवन व्यतीत करना है।

     जेल से बाहर आने के बाद उनके अग्रजों ने उन्हें आगे के अध्ययन के लिए कलकत्ता बुला लिया। वहाँ स्कूली अध्ययन के साथ उनका स्वाध्याय भी होता रहता था। स्वाध्याय करते-करते उनके मन का झुकाव वेदान्त की ओर होने लगा और वे शांकरमतानुयायी हो गए। जब वे इण्टर कक्षा के विद्यार्थी थे, तब भगवदीय प्रेरणा से शारदीय पूर्णिमा के दिन उन्होंने संन्यास ले लिया। इससे उनके परिजनों को मर्मान्तक पीड़ा हुई, परन्तु सब जानते थे कि चक्रधर अपने निश्चय से डिगने वाला नहीं है। वे स्वयं के स्थिति की परीक्षा लेने के लिए कलकत्ते में गंगा के किनारे कुष्ठ रोगियों के बीच बैठने लगे। 
    एक दिन जब वे कलकत्ता के गोविन्द भवन गये तो वहाँ पूज्य रामसुखदास जी महाराज से उनका सम्पर्क हुआ। उनके माध्यम से सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से भी मिलन हुआ। सेठजी साकार एवं निराकार-दोनों प्रकार की निष्ठाओं के विश्वासी थे, पर बाबा की निष्ठा सिर्फ निराकार में थी। कई दिनों तक पारस्परिक विचार-विनिमय हुआ परन्तु सेठजी चक्रधर बाबा की विचारधारा में परिवर्तन नहीं ला सके। फिर भी यह तय हुआ कि श्रीमद् भागवत् पर टीका-लेखन का कार्य गोरखपुर की गीताप्रेस से हो। इस प्रकार सेठजी के परामर्श के अनुसार चक्रधर बाबा गोरखपुर की गीता वाटिका गए। उस समय गीता वाटिका में एक वर्षीय अखण्ड भगवन्नाम-संकीर्तन का भव्यानुष्ठान चल रहा था। वहाँ बाबू जी हनुमान प्रसाद पोद्दार आए और उन्होंने गैरिक वस्त्रधारी युवक संन्यासी के चरण छूकर प्रणाम किया। इस प्रणाम का चमत्कार अनोखा था। सेठ जयदयाल जी के साथ कई दिवस विचार-विनिमय के उपरान्त भी जो परावर्तन नहीं हो पाया, वह कार्य इस क्षणिक स्पर्श ने कर दिखाया। निराकार निष्ठा तिरोहित हो गयी और साकारोपासना का बीजारोपण इस युवा संन्यासी चक्रधर बाबा के अन्तर में हो गया। बाद में गीतावाटिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के साथ ही स्वामी जी रहा करते थे। स्वामी जी आगे चलकर श्री राधा बाबा के नाम से विख्यात हुए। कहते हैं कि बाबा को अद्वैत तत्त्व की साधना करते हुए सिद्धि मिली। 
    श्रीराधा बाबा के रोम-रोम में श्री राधारानी बसी हुई थीं। उनका मन नित्य वृन्दावनी-लीला में रमा रहता था। राधा-कृष्ण की प्रीति के साकार स्वरूप बाबा सदा निस्पृह भाव से जन सेवा में लीन रहते थे। गीतावाटिका में विख्यात श्रीराधाष्टमी महोत्सव का शुभारंभ राधाबाबा ने ही किया। उन्होंने श्रीकृष्णलीला चिंतन, जय-जय प्रियतम, प्रेम सत्संग सुधा माला आदि शीर्षकों से साहित्य का प्रणयन भी किया। बाबा अपनी साधनावस्था में प्रतिदिन तीन लाख नाम जप किया करते थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक बार श्रीमद्भागवतमहापुराण का अखंड पाठ किया। राधा बाबा 13 अक्टूबर, 1992 को सदा के लिए अंतर्हित हो गए। बाबा का सुंदर एवं प्रेरक श्रीविग्रह गीतावाटिका के नेह-निकुंज में प्रतिष्ठित है।
     बाबा भगवद् भाव राज्य में प्रवेश करके अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य लीला-विहार किया करते थे। बाबा के अन्तर में प्रेम का स्रोत निरन्तर प्रवाहित रहता था। पहले वे कट्टर वेदान्ती थे। अद्वैत तत्त्व की साधना करते समय उन्हें सिद्धि मिली थी। श्रीराधा भाव मधुरोपासना का शिखरबिन्दु है और सन् 1957 के 8 अप्रैल को बाबा की श्रीराधा भाव में प्रतिष्ठा हुई। श्री राधाभाव में प्रतिष्ठा होने से और श्रीराधा नाम का आश्रय लेने के कारण ही वे ‘राधा बाबा’ के नाम से विख्यात हुए।
     राधा बाबा सेवक भी थे, प्रेरक भी थे। उन्हीं की प्रेरणा से 16 फरवरी, 1975 को हनुमान प्रसाद पोद्दार कैन्सर अस्पताल की स्थापना का संकल्प लिया गया, जहाँ आज भी अनेक रोगी चिकित्सा लाभ प्राप्त कर रहे हैं। उनके ही संकल्प से 26 अगस्त, 1976 को बाबू जी के स्मारक के निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है गीता वाटिका में श्रीराधाकृष्ण साधना मन्दिर, जो भक्तजनों के आकर्षण का केन्द्र है। इस मन्दिर के श्री विग्रहों में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य राधा बाबा की देख-रेख में सन् 1985 में सम्पन्न हुआ। अनेक नव साहित्य का प्रणयन, आगंतुकों को आश्रय, अभाव-ग्रस्तों को आश्वासन, साधकों का मार्ग प्रदर्शन, गो माता का संरक्षण आदि अनेक ऐतिहासिक कार्य राधा बाबा केे द्वारा सम्पन्न होते रहे।
     श्री राधा बाबा एक दिव्य आध्यात्मिक विभूति थे। उन्होंने बिहार में राजेन्द्र बाबू के साथ जहाँ स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया, वहीं जीवन के 21 वर्ष ‘गीता वाटिका’ में रहकर साधना के साथ-साथ आध्यात्मिक साहित्य के सृजन में व्यतीत किए। उन्होंने ‘राधा-तत्व’ के शोध के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। 
      इस देश में आदि से आधुनिक समय में भी संत महात्माओं की कमी नहीं है। शाही जिंदगी जीने वाले और कॉरेपोरेट घरानों के लिए कथा करने वाले इन संत-महात्माओं ने अपने ऑडिओ-वीडिओ जारी करने, अपनी शोभा यात्राएँ निकालने, अपने नाम और फोटो के साथ पत्रिकाएँ प्रकाशित करने और टीवी चैनलों पर समय खरीदकर अपना चेहरा दिखाकर जन मानस में अपना प्रचार करने के अलावा कुछ नहीं किया। मगर इस देश के सभी संत और महात्मा मिलकर भी गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक कर्मयोगी स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार तथा सेवक-संवाहक राधा बाबा की जगह नहीं ले सकते। आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार तथा राधा बाबा का ऐसा नाम है जिनके वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँच गए हैं।
     सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों-मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह भाईजी एवं राधा बाबा ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास चाह कर भी नहीं भूला पाएगा। 
     राधा बाबा अपने कर्मों से, अपने मर्मों से समाज के हो गए थे। समाज सेवा ही उनका कर्तव्य था। ईश्वर आराधना की उनकी क्रिया। वे दीनों-दरिद्रों में भी ईश्वर को पाते थे। तथाकथित पातकों की सेवा को ही ईश्वर की सच्ची सेवा मानते थे। वे आस्था और आध्यात्म के सच्ची प्रतिमूर्ति थे।
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