Oct 7, 2014

कुछ घंटे नर्मदा के किनारे


     दिल्ली में रहते हुए मैं राष्ट्रीय राज मार्ग - 8 से पूर्णतः परिचित हूँ। जीवन के अनेक अध्यायों से भी परिचित हो चुका हूँ। लोग सिद्धांतों की बातें करते हुए ‘बीती ताहि बिसार दे’ की बातें करते हैं, मगर मुझे तो लगता है कि कोई तपस्वी भी बीती बातों को नहीं भूल पाता होगा। खैर, मैं तो नहीं भूल पाता हूँ। उन्हीं बीते पन्नों को पलटते वक्त मेरी नज़र कहीं ठहर जाती है तो वह 2009 का समय होता है। समय ने मुझे अपने सामर्थ्य भर पढ़ाया, ईश्वर ने मुझे पढ़ने का साहस भी भरपूर दिया। उन्हीं खट्टे वक्त का स्वाद कभी-कभी जीभ पर चटकारा भी दे जाता है।
     बात 2009 के अक्टूबर माह का है। समय के दावानल में झुलसता हुआ मैं दिल्ली का एक-एक क्षेत्र भ्रमण कर चुका था। जब लगा कि दिल्ली में गलने के लिए दाल नहीं खरीद पाऊँगा तो इंटरनेट की सहायता से भारत-भ्रमण करते हुए अपने लिए रोटी का बहाना ढूँढता रहा। उन्हीं खोज में मुझे आत्मीय विद्या मंदिर, कामरेज, सूरत तथा सर्वनमन विद्या मंदिर भरुच से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। बुलावा ई-मेल द्वारा था। सुविधा यह थी कि एक ओर से शयनयान के टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा और अगर चयन होता है तो दोनों तरफ के टिकट का पैसा दे दिया जाएगा। ..... नौकरी की तलाश थी ही, मुझे लगा कि जाना चाहिए।  वैसे, मैं चयनित हो गया था और मुझे दोनों तरफ का किराया मिल गया था।
     संयोग ही था कि दोनों विद्यालय एक ही संस्था संचालित करती है। मुझे आत्मीय विद्यामंदिर में साक्षात्कार के दौरान पता चला। दूसरे दिन भरुच आना था। मैं सुरत या भरुच को सिर्फ नाम से जानता था, आँखों से देखा नहीं था। मुंबई जाते वक्त मेरी ट्रेन यहीं से गई थी, तब मैं निशा-निद्रा में रहा था। आज आँखों में उतारने का अवसर मिला था। यह अलग बात थी कि अवसर तनाव वाला था। नौकरी के तलाश की यात्रा, परिणाम की चिंता और नौकरी-विहीन व्यक्ति के लिए यात्रा-खर्च अपना एक अलग तनाव का कारण बन गए थे। फिर भी पहली बार साक्षात् होने के कारण जिज्ञासा अनायास ही बलवती होती रहती थी। मैं कामरेज पुलिस स्टेशन के चैराहे से, फ्लाई-ओवर के नीचे से राज्य परिवहन की बस से भरुच जा रहा था। हाई वे का विस्तार हो रहा था। निर्माण के पहले का ध्वंसात्मक रूप भी मेरे लिए आकर्षक था क्योंकि इस मिट्टी की सोंधी गंध मेरे लिए नयी थी। 
     ताप्ती को पार किया तो मन हरा-भरा हो गया। मैं सुरत, भरुच, ताप्ती आदि से केवल भूगोल पढ़ते समय ही परिचित हुआ हूँ। सूरत और भरुच को तो इंडस्ट्रीज़ के कारण भी जानता हूँ। एक कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध है और एक इस्पात उत्पादों के लिए। सुरत में तो मेरे गृह-नगर के कई मारवाड़ी व्यावसायी आकर अपना कारखाना लगा लिए हैं। और ताप्ती! यह वहीं ताप्ती है जो पूरब से पश्चिम की ओर बहती हुई अरब सागर में गिरती है। अपने मन को मील के पत्थरों, बैनरों, साइन बोर्डों के गुजराती शब्दों और अक्षरों समझने में उलझाता मैं भरुच आ ही गया। तब तक बहुत सारे वर्णों के लेखन-लिपि को समझ चुका था। अभ्यास में नहीं रहने के कारण अब भूल चूका हूँ। 
    अब मैं उस भरुच की धरती पर था, जो कभी गुर्जरों द्वारा शासित रही है। भरुच का अपना एक समृद्ध और गौरवमयी इतिहास है। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार गुर्जर सूर्यवंश या रघुवंश से सम्बन्ध रखते हैं। 7वीं से 10वीं शताब्दी के गुर्जर शिलालेखों पर सूर्यदेव की कलाकृतियाँ भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है। अब मैं उसी भरुच की धरती पर अपना पाँव जमाने के लिए आ गया था। 

     वैसे मैं बता दूँ कि दोनों विद्यालय, आत्मीय विद्या मंदिर, कामरेज, सुरत और सर्वनमन विद्या मंदिर, भरुच, ही सी.बी.एस.ई. पाठ्यक्रम पर आधारित शिक्षण देने वाले पूर्णतः आवासीय हैं। यहाँ अध्यापकों के लिए भी रहना, खाना और बच्चों के निःशुल्क शिक्षण की व्यवस्था है। आत्मीय विद्या मंदिर बालकों के लिए है तो सर्वनमन विद्या मंदिर बालिकाओं के लिए। ये संस्थाएँ योगी डिवाइन सोसायटी द्वारा संचालित हैं। दोनों विद्यालयों की स्थापत्य स्थिति और वास्तु-व्यवस्था बहुत ही आकर्षक और मनोहारी है। मैं कल यानि कि 26 अक्टूबर को करीब ग्यारह बजे कामरेज में था और आज भरुच के इस राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या - 8 पर जाडेश्वर में उतर चुका था। पूछने पर एक दूकानदार सज्जन ने बताया कि सड़क के उस पार जाकर आप दायें वाली सड़क से पैदल ही चले जाइए। यहाँ से बस तीन सौ मीटर की दूरी पर है। आप पैदल ही चले जायेंगे। 
     दो सौ मीटर चलने के बाद थोड़ा वृत्त रूप में सड़क बायें घूमती है और सर्वनमन का अहाता। पहली ही दृष्टि में आकर्षक भवनों का गुच्छ। मुख्यद्वार के पहले वृत्ताकार स्थल को पार करते हुए मैं रिसेप्शन पहुँचा, प्रधानाचार्य से मुलाकात, कुछ पल की प्रतीक्षा। एक कमरे में बुलाया गया। वहाँ पहले से चार माननीयगण थे, जिसमें प्रधानाचार्य भी थे। उन्होंने हिंदी विभागाध्यक्ष तथा प्रबंध तंत्र के दो अन्य महानुभावों से परिचय करवाया। प्रश्नों की बौछार होने लगी। मैं यथाज्ञान उत्तर देने लगा। एक और प्रत्याशी थे। बनारस के रहने वाले जो कच्छ में रहते थे। अतः मुझसे कहा गया कि आप एक-डेढ़ घंटे बाद आइए। मैं कहाँ जाऊँ? तब तक बताया गया कि सामने मंदिर है, मैं घूम आऊँ। मुझे फोन कर दिया जाएगा। मैं परिणाम की प्रतीक्षा का बोझ लिए चला गया।
     अब मैं बाहर आ गया। जिस रास्ते से यहाँ आया था और जो रास्ता विद्यालय से निकलता था, से सभी एक त्रिभूज बनाते हैं वहाँ। उस त्रिभुज को पार करने के बाद नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर का प्रांगण प्रारंभ होता है। परिणाम की प्रतीक्षा में मैं ईश्वर का शरण उपयुक्त समझा। हारे को हरिनाम। बहुत ही विशाल प्रांगण है। शांत वातावरण। वृक्षों की अधिकता के कारण शीतलता रहती है। साफ-सफाई का खासा ध्यान रखा जाता है। इसमें महादेव के मंदिर के अतिरिक्त हनुमान जी का भी मंदिर है। छोटे-बड़े अन्य भी मंदिर हैं। वहाँ अभी-अभी संपन्न हुए छठपूजा का अवशेष भी देखा। मंदिर के पार मैं नीलाभ युक्त जलधाराओं को देखकर वहाँ गया तो पता चला कि यह निर्मल धारा नर्मदा का है। नर्मदा का? अरे वाह!.... मैं नर्मदा की असीम जलराशि के किनारे था।

     नर्मदा नदी मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई 1310 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ आकर यहीं भरुच से ही कुछ दूरी पर खम्भात की खाड़ी में गिरती है। नर्मदा नदी को ही उत्तरी और दक्षिणी भारत की सीमारेखा माना जाता है। यह विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधि-स्थल से जन्म लेती है। विंध्याचल और सतपुड़ा के बीचोबीच पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होती है तथा मंडला और जबलपुर, होशंगाबाद से होकर गुजरती है। यह नर्मदा का जन्म-स्थान सागरतल से 3000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। मंडला के बाद उत्तर की ओर एक सँकरा चाप बनाती हुई यह जबलपुर की ओर मुड़ जाती है। इसके बाद 30 फीट ऊँचे धुँआधार नामक प्रपात को पार कर यह दो मील तक एक संकरे मार्ग से होकर बहने के बाद जलोढ़ मिट्टी के उर्वर मैदान में प्रवेश करती है, जिसे नर्मदाघाटी कहा जाता है। यह घाटी विंध्य और सतपुड़ा पहाडि़यों में है। पहाडि़यों से बाहर आने के बाद नर्मदा फिर से एक खुले मैदान में प्रवेश करती है। इसी स्थान पर आगे ओंकारेश्वर एवं महेश्वर नामक नगर इसके किनारे बसे है। यहाँ उत्तरी किनारे पर कई मंदिर, महल एवं स्नानघाट बने हुए हैं। इसके बाद यह भरुच पहुँच कर अंत में खंभात की खाड़ी में एकाकार हो जाती है। भरुच में आने से पहले शुक्लातीर्थ से नर्मदा की बनी दो धाराएँ नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर पर फिर एक हो जाती हैं।
     मंदिर का प्रांगण आकर्षक और रूचिकर था, पेड़-पौधों का सानिध्य मनभावन था, लोगों का आना-जाना सजीवता दे रहा था, मगर मैं एक चबुतरे से उठकर दक्षिणी बाउंड्री वाल की ओर चला गया। वहाँ खड़ा होकर मैं नर्मदा की विराटता देखने लगा। एक अथाह शान्ति का अनुभव मेरे लिए आज भी प्रेरणादायक बना रहता है। जैसे उस सागर-संगिनी नर्मदा ने मेरे मन के सारे उथल-पुथल को शांत कर दिया था। साक्षात्कार के परिणाम की प्रतीक्षा मैं भूल गया। जैसे मैं उस सरिता के सानिध्य से सब कुछ पा रहा था। नदी की मंद धाराएँ मुझे प्रसन्नता दे रहीं थीं। नदी भी तो कम प्रसन्न नहीं लग रही थी। अब वह अपने विराट का हो जाएगी। खंभात की खाड़ी तो बस अब कुछ ही दूर है। कौन विरहिणी होगी जो अपने प्रिय को पाकर प्रसन्न न हो?

     मैं नर्मदा के दर्शन में खो सा गया था। आकंठ डुबकर स्वयं से दूर सा हो गया था। यात्रा का निमित्त तो मैं भूल ही गया था। यात्रा की सारी थकान गायब हो गयी थी। लगता था कि मैं किसी पुण्य का परिणाम पा रहा था कि तभी सर्वनमन विद्यालय से फोन आया। असली निमित्त तो नौकरी पाना ही था। अतः भारी मन से उस नीली जल-राशि को प्रणाम कर, उसमें एक सिक्का प्रवाहित कर, विद्यालय आ गया।
    मेरा चयन हो चुका था। वेतन पर चर्चा हुई। कुछ मैं झुका, कुछ वे बढ़े। बात तय हो गयी तो खाना खाने के उपरांत मैं स्टेशन के लिए चला। मन में ख़ुशी इस बात की थी कि अब नर्मदा को रोज ही निहारा करूँगा। वैसे, मीठास वाला खाना मुझे अरूचिकर लगा। आज ही मेरी वापसी थी। सर्वनमन विद्या मंदिर से मैं रेलवे स्टेशन के लिए चला। आॅटो लिया। हाई वे से रेलवे स्टेशन की दूरी करीब 5 किलोमीटर है। जाडेश्वर, बस स्टैंड, शीतल सर्कल रोड को पार करता मैं स्टेशन आ गया। मैं यहाँ सड़क मार्ग से आया था। आत्मीय विद्या मंदीर कोली भार थाना, कामरेज से मैं सर्वनमन विद्या मंदीर आया था। कामरेज से सर्वनमन की दूरी 63 किमी है। अब परिणाम भी अच्छा मिला था और दर्षन भी अच्छे का हुआ था, अतः सब कष्ट भूल गया।
     जब दिल्ली आया तो किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से वहाँ जा नहीं पाया। नर्मदा का फिर से दर्शन नहीं हो पाया। मन में टीस बनी रहती है। इच्छा भी बलवती होती रहती है। समय बदलता रहता है मगर नर्मदा को नहीं भूल पाता हूँ। मैं उसके तट पर कुछ ही घंटे व्यतीत किया था मगर उसका सौंदर्य और आकर्षण आज भी सम्मोहित करता है।
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