Oct 4, 2014

उत्सवों का महिना कार्तिक


    भारत उत्सवों, पर्वों और सांस्कृतिक वैभव का देश है। भारत के कण-कण में जीवन का आनन्द झलकता है। उत्सव का वेग मिलता है और प्रेम-सौहार्द्र का प्रकाश मिलता है। जीवन इसी से तो है।कार्तिक मास को उत्सवों का महिना भी कह सकते है। दशहरा समाप्त होते ही दीपावली के दीपों की आभा से मानव-मन दिप्त हो जाता है। दीपावली कार्तिक मास के अमावस्या की काली रात को मनाया जाता है। अमावस्या को प्रकाश का पर्व मनाने का यह अनूठी स्वरूप हमेशा आदरणीय रहा है। तमसो मा ज्योर्तिगमय से अभिसिक्त भाव में मानव अपने अंदर ज्योति को अनुभूत करता ही है। भगवान श्रीराम के संघर्षों की कथा का भी साक्षी हो जाता है। संघर्ष के बाद जीवन रामराज्य तुल्य हो ही जाता है।
    दीपावली के एक दिन पूर्व धतेरस। लक्ष्मी जो कि सुख-शांति की देवी है, उनका स्वागत आज का ही नहीं किसी भी समय-काल का मानव करता रहा है। धनात् धर्मम्, तत् सुखम्। धन है तो जीवन में उत्सव है। सच्चाई भी तो यही है। अधिकता के कारण धन कभी-कभी दुख के निमित्त भी बन जाते हैं। तभी तो सामाजिक समानता की बात करते हुए कहा जाता है - ‘ना अति वर्षा, ना अति धूप। ना अति वक्ता, ना अति चुप।।’ भारतीय समाज में इस माह में उत्सवों, पूजा-अनुष्ठानों का दौर निरंतर चलता रहता है। यह दौर कभी व्यक्तिगत, कभी जातिगत, कभी सामूहिक तो कभी सर्वसमर्पण के रूप में देखा जाता है।
    दीपावली के अगले दिन चित्रगुप्त भगवान पूजित होते हैं। उसके अगले दिन भारतीय समाज में गोवर्धन पूजा की जाती है। गोवर्धन पूजा को लोग अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्योहार का भी भारतीय लोकजीवन में बड़ा महत्त्व है। गोवर्धन पूजा में प्रकृति के साथ मानव का सीधा संबंध द्रष्टव्य होता है। गोवर्धन में गोधन अर्थात गाायों की पूजा होती है। भारतीय संस्कृति में गायों को गंगा के समान पवित्र माना जाता है। गाय को लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। लक्ष्मी जिस प्रकार मानव को समृद्ध करती हैं, गौ भी अपने दूध, दही, गोबर, बछड़ा आदि से मानव को समृद्ध करती हैं। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन की पूजा की जाती है जिसमें गोबर से ही प्रतिकृति का निर्माण किया जाता है। गोवर्धन की कथा इंद्र के कोप और भगवान श्रीकृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने से भी है। कोप समाप्त होने के उपरांत जब श्री कृष्ण ने गोवर्धन को नीचे रखा तथा अन्नों को कूट कर गोवर्ध की पूजा करने की बात कही।
     अब आता है सूर्योपासना का महा पर्व छठ। यह कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक पवित्र पर्व है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को छठ माता का व्रत किया जाता है। पहले इस व्रत को केवल स्त्रियाँ ही करती थी, परन्तु अब बड़ी तादात में पुरुषों ने भी सहभागिता लेनी शुरू कर दी है। इस व्रत का अत्यधिक निमित्त तो पुत्र-प्राप्ति और दीर्घायु था परन्तु आज छठ व्रत सभी अभीष्टों के लिए रहा जाता है। वास्तव में छठ माता का व्रत भगवान भाष्कर का व्रत है। भगवान भाष्कर को अर्घ्य देने के बाद ही व्रती-जन अन्न ग्रहण करते हैं। छठ व्रत का समूचा विधान इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में परिलक्ष्ति होता है। लोक-उत्सवों का असली उमंग तो इन अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों के विविध रंगों से ही स्फूटित होता है। सूर्यदेव से प्रार्थना करती स्त्री अपनी दयनीय दशा का वर्णन कर रही है, -
काल्ह के भुखले तिरियवा
अरघ लिहले ठाढ़।
हाली-हाली उग ये अदितमल,
अरघा जल्दी दियाव।।

    छठ व्रत में पारण के पूर्व संध्या को अस्ताचल जाते तथा पारण के सुबह उदयाचल जाते सूर्यदेव को व्रती अर्घ्य अर्पित करते हैं। सूर्य देव को अर्घ्य देने की यह प्रक्रिया नदी, सरोवर या तालाबों के किनारे की संपन्न किया जाता है। छठ के गीतों में गंगा जी के स्वच्छ जल का भी वर्णन मिलता है। एक चित्र देखें, छठ माता का एक भक्त परिवार नाव से पूजा के घाट पर जा रहा है, -
ग्ंगा जी के झिलमिल पनीया
न्इया खेवे ला मल्लाह,
ताही नइया आवेले कवन बाबू
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।।

    लोक जीवन के इस बृहद् उत्सव के लिए कुछ दिन पहले से ही सामाग्रियों की व्यवस्था की जाने लगती है। छठ पूजा में लगने वाले अधिकांश सामान प्रकृति की गोद से ही प्राप्त हो जाते है या कृषि आधारित होते हैं। कहीं से केला, कहीं से नीबू, कही दही, कहीं सेब, सिंघााड़ा, गन्ना, हल्दी, अदरक आदि की व्यवस्था की जाती है। ये सामान सगे-संबंधियों के यहाँ से भी आते हैं। एक गीत देखें -
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघ लिहले।

    भारत का लोकमन यहाँ के मिट्टी जैसा उर्वर और निर्मल होता है। जिस प्रकार लोगों के मन में असंख्य लालसाओं का जन्म होता है, उसी प्रकार भारत की मिट्टी पर भी असंख्य फल-फूलों की ऊपज होती है। भारत की धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से परिपूर्ण है। यह रत्नगर्भा वसुन्धरा माँ हमें सबकुछ देती है। सबकुछ से समपन्न करती है। हमारे सुख-दुख, सबका ध्यान रखती हे। यहाँ के गाँवों में, जहाँ छठ, पिडि़या आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप् में जीवित हैं, उन अवसरों पर सामाग्रियों की व्यवस्था भी सोची जाती है। शहरी गति से पिछड़े हमारे गाँवों में कार्तिक-अगहन ही नहीं, वर्षभर उपयुक्त मौसम के फल-फूल, साग-सब्जी की मचलती लताएँ बेसुध होकर घरों के छतों-छप्परों पर पड़ी रहती हैं और अपनी हरितिमा से मानव-मन को आकर्षित करती रहती हैं। कहीं लौकी, कहीं कद्दू, कहीं नेनुआ हो या नीबू, केला, हल्दी, ओल का आकर्षक हो। सब मन को मोहते ही हैं, -
केरवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगाा गिरे मुरछाय।

     लोक जीवन! अर्थात सहजता का जीवन। इस सहजता में अपनत्व है, प्रेम है और अमर्ष भी है। व्रत-त्योहारों के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में भी आशीष और प्रेम के वर्णन के साथ ईर्ष्या और गालियों का भी स्वरूप मिल जाता है। बंरी नजर का डर लगता है, -
काँच ही बाँस के बहँगिया
बहँगी लचकत जाय।
बाट जे पूछेला बटोहिसर
ई बहँगी केकरा घरे जाय?
आँख तोर फूटो रे बटोहिया
ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।।

    छठ के गीतों का सांस्कृतिक पक्ष भी अद्भुत है। कहीं पार्वती माता शिव जी की फूलवारी से फूल तोड़ती हैं तो कहीं मालिन अपने कर्म में लीन है। सब श्रद्घा भाव से छठ माता के पूजन-अर्चन में लीन हैं। इस व्रता को सामाग्रियों का भी व्रत कहाजा सकता हे। सब प्रकार की सामाग्रियों की व्यवस्था की जा रही है। सामाजिक सहयोग की कोई सीमा नहीं रहती। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा के भेद-भाव के आडंबर से परे सभी उत्सव के सहयोग में जुट जाते हैं। आनन्द का निमित्त बन जाते हैं। मंगल के याचक बन जाते हैं। - 
महादेव के लगाावल फूलवरिया
गउरा देई फूल लोढ़े जाँय,
लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
सुति गइली अँचरा बिछााय।

   कार्तिक स्वच्छता का महीना है, स्नेह का महीना है। कार्तिक संबंधों का महीना है, जीत का महीना है। इस माह में विविध उत्सव होते हैं। सभी उत्सव कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी प्रकार से जोड़ते है।  अगर हम अपने उत्सवों से भी सीख लेते चलें तो पतित होती मानवता का पुनरुत्थान हो जायेगा। जीवन सुखमय हो जायेगा। 
                                                                        ----------------

No comments:

Post a Comment