Oct 4, 2014

‘बाक़ी जग वाले कह लेंगे’ (पुस्तक-चर्चा)

     सजग चेतना वालों में सिसृक्षा का बीज बोने के लिए निरंतर तत्पर श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव अर्थात रूद्र देव नारायण श्रीवास्तव का जन्म 10 दिसंबर 1939 को ग्राम बैरिया, नन्दा छपरा, रामकोला, जनपद कुशीनगर में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया परन्तु रचनाएँ हिंदी में करने लगे। उन्होंने लोकमान्य इंटर कालेज, सेवरही से प्रधानाचार्य पद से अवकाश लिया है। उनकी रचनाओं की धार बहुत ही तीक्ष्ण होती हैं। वे अपने अंदाज़ में ग़ज़ल लिखते हैं, अपने अंदाज़ में पढ़ते भी हैं। उनकी कविताएँ उच्च कोटि के हास्य और व्यंग्य से परिपूर्ण हैं। ‘वक्त की परछाइयाँ’, ‘ये ग़ज़ल’, ‘कविता समय’, ‘शब्द कुंभ’, ‘सितारे धरती के’, ‘मोती मानसरोवर के’, ‘नव ग़ज़लपुर’ में संग्रहित तथा ‘थाल में बाल’ 2010, दिल भी है, दीवार भी है’ 2014 में प्रकाशित उनके काव्य-संग्रह में उनके विचारों मानदंडों और जीवन-मूल्यों को देखा जा सकता है। समय-समय पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित होते रहने वाले श्रीवास्तव जी का नवीनतम गज़ल-संग्रह ‘दिल भी है, दीवार भी है’ मेरे हाथ में है। मुझे ईष्वर के अनुग्रह का अनुभव हो रहा है। श्रीवास्तव जी की अनुकंपा ही ही है कि उन्होंने मेरे लिए एक प्रति गोरखपुर से कुरियर किया। इसका प्रकाशन ‘नमन प्रकाशन, दिल्ली’ ने किया है जिसका मूल्य 175 रुपये निर्धारित किया गया है।

     मुझे ग़ज़ल के विशय में गहराई से कुछ नहीं पता, पर पढ़ने में आनंद आता है। आनंद के अतिरेक में मैंने अनुभव किया कि आर. डी. एन. श्रीवास्तव की ग़ज़लें जहाँ अपने मतला, रदीफ़ और काफि़या की बुनावट के लिए समीक्षकों को आकर्षित कर लेती हैं, वहीं अपने विषय-शिल्प, शब्द-संयोजन और चित्र-प्रस्तुति के कारण पाठकों और श्रोताओं को अपना बना लेती हैं। वे जितने सुलझे व्यक्ति हैं उतने ही एक लोकप्रिय प्रधानाचार्य भी रह चुके हैं। उनकी सोच विलक्षण और भावात्मक होने के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबिंब को प्रदर्शित करती हैं। 
    कलमकार की सार्थकता सामाजिक सोच की दृष्टि पर ही निर्भर करती है। कलमकार समाज को अपनी ही दृष्टि से देखता है और समाज के सामने उसी का चित्रांकन करता है। श्रीवास्तव जी की ‘दिल भी है, दीवार भी है’ पाठकों को सोचने पर विवश करती है, नए प्रश्नों को उजागर करती है और अपने समाज के नव-रचनाकारों को तैयार भी करती हैं। नए संग्रह की उनकी ग़ज़लें जितना चमत्कृत करती हैं, उनके व्यंग्य उससे अधिक अवाक्। उनका व्यंग्य सीधे शब्दों से व्यक्त हुआ है। सीधे शब्दों की मारक क्षमता बड़ी तीखी होती है। सहज शब्दों का ऐसा चमत्कार देखना हो तो उनकी ‘दिल भी है, दीवार भी है’ संग्रह को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए। 
    इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के दिसंबर अंक के आधार पर गोपालदास ‘नीरज’ तथा बेकल ‘उत्साही’ ने उनके शेरों को सराहा है। डाॅ. कुँअर बेचैन ने ‘दिल भी है, दीवार भी है’ की ग़ज़लों को सुख-दुख, हर्ष-विषाद तथा घर और बाहर से बात करते हुए बताया है। दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के हिंदी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रामदेव शुक्ल ने अपनी पारखी आँखों से खुब निहारा है और श्रीवास्तव जी ने इस संग्रह की ग़ज़लें और उससे सन्नद्ध परिबोध पर दृष्टिपात करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि - ‘हिंदी की इस लम्बी ग़ज़ल परंपरा में आर.डी.एन. श्रीवास्तव जैसे ग़ज़लकार की क्या अहमियत है, देखना भी शायद हिंदी ग़ज़ल विधा के विकास को खुली आँखों से देखना होगा।’
    मैं स्वयं श्रीवास्तव जी की नवीन कृति ‘दिल भी है, दीवार भी है’ के विषय में अपनी मंद बुद्धि और कमजोर सोच से समझना चाहूँ तो शीर्षक ग़ज़ल का ही एक शेर प्रस्तुत करना चाहूँगा कि -
बात अगर होठों तक आई कानों तक भी जायेगी
बाक़ी जग वाले कह लेंगे, कहने का अधिकार भी है।

    इस ग़ज़ल-संग्रह में प्रेम की पराकाष्ठा भी है, उसके भंगिमाओं का चित्र भी है और विविध रूप भी। श्रृंगार का स्वरूप  है, समर्पण है और सामाग्री भी है। साथ ही आस्था और विश्वास का सौंदर्य भी। जीवन-दर्शन भी है, आत्म-विश्लेषण भी है, राजनीति भी, भ्रष्टाचार भी और वर्तमान सामाजिक परिदृश्य भी। उन्हें भारत पर हावी होते इंडिया से पीड़ा है तो धार्मिक उन्माद से कोफ्त भी होता है। वे न्याय व्यवस्था पर चोट करते हैं तो सांसारिक मोह की महिमा का ज्ञान भी। वे संबंधों का बुनियाद विश्वास पर देखते हुए कहते हैं -
हमारे पास न खिदमत न पैसे
उन्हें अपना बना पायें तो कैसे।

    डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय के शब्दों में अगर कहूँ तो यह कहा जा सकता है कि ‘इस संग्रह की हर ग़ज़ल और तमाम ग़ज़लों के तमाम-तमाम मानीखेज शेर आपको पसंद आयेंगे। आपको कभी ठहर कर सोचने, कभी अतीत को बिसुरने, कभी वर्तमान पर सिर धुनने, कभी खुश तो कभी गमगीन होने, कभी हैरान तो कभी परेशान होने को मजबूर कर देंगे।
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