Sep 19, 2014

प्रेम (लघुकथा)

    आँख के सामने कुप्प अँधेरे को अनुभव करके संतोष ने कहा, - 'अब होश आया कि मैं अपना चश्मा तो घर ही भूल गया।'
    जीवन-संगिनी सरिता उसके पीछे बैठी स्कूटर का बैक-व्हील कस के पकड़ ली और जोर से चिल्लाई, - 'हाऊ नॉनसेन्स! - - अब तो स्कूटर रोको। मेरी जान लोगे क्या?'
     संतोष ने गाड़ी रोक कर पीछे से आते ऑटो को हाथ दिया और सरिता को उसपर बैठाते हुए खुद स्कूटर से आ जाने की बात कह कर उसे मॉल पहुचने के लिए भेजा। 
    सड़क के सन्नाटे में जैसे वह खो गया। प्रेम का ऐसा रूप उसने सोचा भी न था। 
    'अपने जान की इतनी चिंता ? स्कूटर पर मैं भी तो था?' 
    इसी सोच की सवारी से संतोष घर की ओर मुड़ गया।
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