अब
जब भी
मैं घर जाता हूँ
मेरे आने पर भी
बहुत दिनों के बाद
रूठा हुआ
माँ को नहीं पाता हूँ।
सूनी
बेजान
एकांत-सी
शांत
माँ की
रूठी खाट पाता हूँ
वैसे ही उलाहना देती
'इतने दिन बाद आये
भूल गए मुझे'
आदि उपालम्भ की चासनी टपकाती
ममता से
तर-बतर
माँ की खाट
जैसे कहना चाहती है
बहुत कुछ
कि
'देखो
टूट गया है एक पाया
मरम्मत कोई नहीं करवाता अब।
मैंने गौर से देखा
आज
माँ की खाट
खड़ी कर दी गई है
किसी अपरिचित के आने पर
घर के औरतों पर
एकाएक पड़ने वाली नज़र
बचाती है
आज
माँ के जैसे।
------------ - केशव मोहन पाण्डेय
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