भारतीय संस्कृति में नदियों का विशेष महत्त्व है। नदियों को जीवन-दायिनी कहा गया है। जिस प्रकार माँ जीवन देती है, हमारी नदियाँ भी अपने विविध माध्यमों से जीवन देती हैं, जीवन की रक्षा करती हैं। अतः नदियों को भी माँ कहा जाता है। नदियों से पीने के लिए जल मिलता रहा है। भोजन के लिए मछलियाँ और खेती के लिए उपजाऊ मिट्टी। तभी तो नदियों के किनारे अधिक जनसंख्या का वास होता है। इतिहास साक्षी है कि नदियों के किनारे ही अनेक सभ्यताओं, संस्कृतियों का विकास हुआ है। नदियाँ सुदूर यात्रा का सबसे सशक्त एवं प्रथम माध्यम रही हैं। सिंधु, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो से लेकर मेसोपोटामिया, मिस्र और चीन की सभ्यता का विकास हो या सरयू किनारे अयोध्या, यमुना किनारे मथुरा हो या नारायणी-गंडक के कछार का लुम्बिनी हो, सबका अपना महत्त्व है। किसी भी काल-खंड, किसी भी सभ्यता और किसी भी समाज में नदियों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है।
इतिहास के पन्नों से लेकर भारत के वर्तमान स्वरूप तक उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर का एक अलग महत्त्व है। कुशीनगर शब्द कान में आते ही भगवान बुद्ध की स्मृति आ जाती है। कुशीनगर उत्तर-प्रदेश का एक जिला है। कुशीनगर का संबंध भले ही भगवान बुद्ध से है, परन्तु इसका नामकरण कुश नामक राजा से जुड़ा कहा जाता है। कई विचारकों के अनुसार राजा कुश भगवान राम के पुत्र थे, जिन्होंने अपनी प्रेयसी के लिए एक नगर की स्थापना की, जिसका नाम कुशीनगर पड़ा। इतिहासकारों के अनुसार कुशीनगर एक बहुत ही सुरम्य स्थल था। प्राकृतिक सुन्दरता यहाँ के कण-कण में व्याप्त थी। यह सदानिरा हिरण्यवती नदी के तट पर स्थित नगरी है। यह नगरी मल्ल-राजाओं की राजधानी भी रही है।
इतिहास की माने तो महापरिनिर्वाण के बाद बुद्ध के शरीर का दाहकर्म मुकुटबंधन चैत्य में हुआ था जो वर्तमान में रामाभार है। बुद्ध की अस्थियाँ संथागार में रखी गई थीं। बाद में उन अस्थियों को उत्तर भारत के आठ राजाओं ने आपस में बाँट लिया था। मल्ल राजाओं ने मुकुटबंधन चैत्य के स्थान पर एक विशाल स्तूप बनवाया था। बुद्ध के पश्चात कुशीनगर को मगध नरेश अजातशत्रु ने जीतकर मगध में सम्मिलित कर लिया था। तब यहाँ का गणराज्य सदा के लिए समाप्त हो गया था। बहुत दिनों तक यहाँ अनेक स्तूप और विहार आदि बने रहे और दूर-दूर से बौद्ध यात्रियों का आगमन होता रहा।
बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक ने कुशीनगर की यात्रा की थी और एक लाख मुद्रा व्यय करके यहाँ के चैत्य का पुननिर्माण करवाया था। युवानच्वांग के अनुसार अशोक ने यहाँ तीन स्तूप और दो स्तंभ बनवाए थे। अशोक के बाद कनिष्क ने भी कुशीनगर में कई विहारों का निर्माण करवाया। गुप्तकाल में भी यहाँ अनेक विहारों का निर्माण हुआ तथा पुराने भवनों का जीर्णोद्धार भी किया गया। गुप्त राजाओं की धार्मिक उदारता के कारण बौद्ध संघ को कोई कष्ट न हुआ। कुमार गुप्त के समय हरिबल नामक एक श्रेष्ठी ने परिनिर्वाण मंदिर में बुद्ध की बीस फूट ऊँची प्रतिमा की स्थापना करवाई। शायद उस काल-खंड में हिरण्यवती रम्य रही होगी, तभी तो किसी नरेश, सम्राट या राजा को उसके जीर्णोद्धार की जरूरत नहीं पड़ी। छठी व सातवीं शताब्दी के बाद कुशीनगर उजड़ना शुरू हो गया। हर्ष के शासनकाल में कुशीनगर नष्ट प्राय हो गया था, यद्यपि यहाँ भिक्षुओं की पर्याप्त संख्या थी। युवान के परवर्ती दूसरे चीनी यात्री इत्सिंग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उसके समय में कुशीनगर में सर्वास्तित्ववादी भिक्षुओं का आधिपत्य था। 16वीं शती में मुसलमानों के आक्रमण के साथ ही कुशीनगर इतिहास के गर्त में लुप्त सा हो गया। संभवतः 18वीं शताब्दी में मुगल शासकों ने यहाँ के सभी विहारों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण भवनों को तहस-नहस कर दिया था। तब भी हिरण्यवती की धारा बहती रही। सच ही कहा जाता है कि प्रकृति किसी का बर्चस्व नहीं स्वीकार करती।
बौद्ध साहित्य में कुशीनगर का विशद वर्णन प्राप्त है। इसमें कुशीनगर के साथ कुशीनारा, कुशीनगरी, कुशीग्राम आदि अन्य नामों का उल्लेख है। हिरण्यवती का भी उल्लेख है। बुद्ध के पूर्व के समय में यह नगरी कुशावती के नाम से प्रसिद्ध थी। बुद्ध ने स्वयं कुशावती से ही अभिहित किया है, जो एक विस्तृत राज्य था। रक्षा एवं व्यापार की स्थिति से भी इस नगर की स्थिति सर्वथा अनुकूल थी। जलीय यातायात के लिए हिरण्यवती उपयुक्त माध्यम थी। नगर के समीप ही उपवत्तन नामक शालवन था। कुशीनगर बहुत समृद्धशाली नगरी थी। स्वयं गौतम बुद्ध ने इस नगरी की प्रशंसा की है। बुद्धघोष में उन सभी विशिष्ट कारणों का वर्णन मिलता है जिससे प्रेरित होकर गौतम बुद्ध ने इस नगरी को अपने परिनिर्वाण के लिए चुना था। इस नगरी और इसके पूर्व दिशा में बहने वाली हिरण्यवती से बुद्ध को विशेष लगाव था। पूर्व जन्मों में भी यह नगरी उनकी क्रीड़ास्थली थी। कल-कल निनादिनी हिरण्यवती अपने स्वच्छ एवं पवित्र जल के कारण आकर्षण का कारण बनी रहती थी। हिरण्यवती में असंख्य प्रकार के जीवों का वास था। वह मछलियों आदि से लबालब थी। हिरण्यवती के सानिध्य के कारण उन जीवों में भी आपसी साहचर्य, प्रेम और मित्रता का वास था। अहिंसा के उपासक बुद्ध जब कुशीनगर पधारे, तब उन्होंने इसी हिरण्यवती से जल ग्रहण भी किया था। बुद्ध के लिए हिरण्यवती उन नदियों में से थी, जिनके किनारे का जीवन धन-धान्य से पूर्ण रहने वाला था तथा जिसके किनारे का परिनिर्वाण पिछले असंख्य जन्मों के पापों को नष्ट करने वाला था। हिरण्यवती के किनारे का निर्वाण आवागम के बंधन से मुक्त कर देता है।
सत्य, अहिंसा, त्याग और करूणा के प्रतिमूर्ति भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण कुशीनगर में हुआ। कुशीनगर का इतिहास बहुत प्राचीन है। भगवान बुद्ध से भी पहले का। हिरण्यवती नदी का अस्तित्व भी बहुत पुराना है। यह नदी भगवान बुद्ध के समय तो अवश्य ही थी। इतिहास की माने तो भगवान बुद्ध ने कुशीनगर में हिरण्यवती नदी से जल ग्रहण किया था। अतः बौद्धों के लिए भी यह नदी अति पावन है। आज यह नदी अपने अस्तित्व के लिए संर्घष कर रही है। कुशीनगर में इसका आकार झील सरीखा हो जाता है। कई जगह पुरातत्व विभाग के अभिलेखों में इसे रामाभार ताल के नाम से अभिहित किया गया है। पहले इस ताल का क्षेत्रफल दो वर्ग कि. मी. था, परन्तु वर्तमान में आधा वर्ग कि. मी. के आस-पास रह गया है। इतिहासकारों का एक वर्ग यह भी मानता है कि अतीत में यह क्षेत्र मल्ल राजाओं का उपवन था। यहाँ कभी क्रीड़ा स्थल और पक्षी विहार भी था। आज हाई वे की फर्राटा दौड़ के शोर में कोई नहीं सुनता कि पावन हिरण्यवती अपने उद्धार एवं अस्तित्व के लिए गुहार कर रही है। अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रही है।
कुशीनगर के लिए वर्तमान समय में मैत्रेय योजना की काफी चर्चा है। किसानों को उनकी अधिगृहित भूमि के लिए रूपए वितरित किए जा रहे हैं। हवाई पट्टी का विस्तार अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा के रूप में हो रहा है। वहीं समाचार पत्रों के माध्यम से हिरण्यवती के लिए एक सुखद समाचार मिल रहा है कि उसे उसके अतीत के स्वरूप में लाने के लिए जिला प्रशासन ने कमर कस लिया है। योजना है कि मनरेगा के तहत तीन करोड़ रूपए की लागत से तीस मीटर चौड़ी हिरण्यवती के पाट को बाइस मीटर में समेटकर तथा इसकी गहराई बढ़ाकर इसे पानी से लबालब किया जाएगा। यह समाचार स्वागत योग्य है। बस प्रार्थना तो इस बात की है कि उसके प्राकृतिक स्वरूप के साथ कोई बलात्कार न हो। जागरूक प्रशासन चाहे तो कोई अन्य उपाय भी खोज ले। कोई ऐसा उपाय, जिसके माध्यम से इसकी प्राकृतिक सुन्दरता में चार चाँद लगाया जा सके!
जो भी हो, आगे योजना है कि हिरण्यवती को उसके वर्तमान उद्गम स्थल नेबुआ नौरंगिया से लेकर फाजिलनगर ब्लाॅक के त्रिमुहानी घाट तक व्यवस्थित किया जाएगा। चर्चा है कि डी आर डी ए ने योजना को अंतिम रूप दे दिया है। पत्रावली तकनीकी स्वीकृति के लिए सिचाई विभाग को भेजी गई है। औपचारिकता पूरी होते ही योजना पर अमल होने लगेगा। योजनानुरूप हिरण्यवती के उद्धार के बाद बौद्ध अनुयायी और पर्यटक कुशीनगर के इतिहास से परिचित तो होंगे ही, हिरण्यवती के गोद में सौंदर्य का उपभोग करेंगे। नौकायन, तैराकी आदि जल-क्रीड़ा का आनंद उठाएँगे। अभी तक यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिए केवल मंदिर परिक्षेत्र ही है। हिरण्यवती तो उपेक्षा के कारण स्वयं ही याचक बनी अपने उद्धार की याचना कर रही है। कैसी विडम्बना है यह! . . . . जिस देश की संस्कृति में नदियों को माँ कहा गया है, जीवन-दायिनी से अभिहीत किया गया है, उस देश में हिरण्यवती अपने ही उद्धार की याचना कर रही है। हे मानव! कहाँ विचलित होता जा रहा है तू? . . . . . जीवन-रेखा की आधार नदियाँ जो पहले मानव का उद्धार करती रहीं हैं, अब वे मानव से स्वयं के उद्धार की याचना कर रही हैं और दंभी मानव अपने आदमी होने के दंभ में जल-स्रोत नदियों का दोहन, शोषण करता जा रहा है।
कुशीनगर का ऐतिहासिक स्थल अपने इतिहास के कारण पर्यटकों को आकर्षित तो करता है, परन्तु पर्यटन विभाग मंदिरों के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के जीर्णोंद्धार एवं निर्माण में रूचि नहीं दिखाता। परिणामतः पर्यटक जल्द ही इस धरती से वापस चले जाते हैं। देश भर में गंगा, यमुना आदि नदियों की गंदगी को साफ करने के लिए जद्दो-जहद चल रहा है। तमाम धार्मिक एवं सामाजिक संगठन इसके लिए धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। हर प्रकार से प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। तो वहीं भगवान बुद्ध के इतिहास से जुड़ी हिरण्यवती कभी उपेक्षा की शिकार हो रही है तो कभी उसमें किसी चीनी मील का कचरा फेंक दिया जाता है। गुरूर में उन्मत्त मानव अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता जा रहा है और दंभ इस बात का कि हमने कचरा बहा दिया।
हम इतिहास की बातों पर यदि विश्वास न करें और वर्तमान में हिरण्यवती की महिमा का पता लगाएँ तब भी बात स्पष्ट हो जाती है। हिरण्यवती आज भी हमेशा जल युक्त रहती है। धीर एवं गंभीर इसका स्वभाव है। आज भी इसकी धारा अपने किनारे के उपजाऊ खेतों को काटकर तहस-नहस नहीं करती, बल्कि और ऊर्वर बना देती है। हिरण्यवती के कछारों में अकूत सब्जियों का उत्पादन होता है, जो व्यवसाय के लिए उपयुक्त हैं। मल्लुडीह का चकचकिया का बाजार इसका उदाहरण है। हल्दी, केला फल आदि की खेती इसके कछार-क्षेत्रों में सहज ही देखा जा सकता है। जीवन जीने के अनेक बहाने हिरण्यवती के किनारों में मिल जाते हैं। जहाँ जीवन के बहाने हैं तो वहीं आज भी अनगिनत ऐसे घाट हैं जहाँ मृत्यु के बाद शरीर का अंतिम-संस्कार किया जाता है। अर्थात् जीवन से मृत्यु तक साथ देने वाली हिरण्यवती का जीवन ही संर्घषमय हो गया है। स्थानीय लोगों की नीरसता और प्रशासन की उपेक्षा की शिकार हिरण्यवती अपना उद्धार चाह रही है। कुशीनगर प्रशासन सजह हो रहा है और कुछ कार्यों पर निर्णय भी लिया जा रहा है। परन्तु किर्यान्वयन के लिए अभी प्रशासनिक आदेशों की सहमति की मुँह ताकती योजनाएँ किस प्रकार एक पावन नदी का उद्धार करने में सक्षम होंगी? यह तो समय ही स्पष्ट करेगा।
कैसा हो कि किसी कार्य-योजना से हिरण्यवती को गंडक या अन्य किसी नदी से जोड़ दिया जाए? ‘नदियों को जोड़ो’ योजना का एक अध्याय शांति, ज्ञान और अहिंसा के रूप बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली से ही प्रारंभ किया जाए? गंडक की तबाही कुछ कम होगी और हिरण्यवती के उद्धार की माँग भी पूरी हो जाएगी। डुबती जिंदगियाँ सहर्ष संर्घष को स्वीकारेंगी और सूखती हिरण्यवती अपने सौंदर्य को और निखारेगी। क्या कुशीनगर में पर्यटन के विकास में हिरण्यवती के योगदन को बिसारा जा सकता है? क्या पर्यटक कृतिम तरण-तालों की अपेक्षा इस प्राकृतिक हिरण्यवती को नहीं छूना चाहेंगे? परन्तु पर्यटन के विकास के साथ इसके लिए भी एक योजना चलाने की आवश्यकता है। योजना, नदियों के पीड़ा को समझने का। योजना हिरण्यवती के उद्धार का। योजना सांस्कृतिक विरासतों की रक्षा का। योजना, सामाजिक जागरण का। योजना मानवीय विवेक का।
मनुष्य हजारों वर्षों से पानी का संरक्षण करता आया है। कुओं, तालाबों और बावडि़यों के साथ ही नदियों की अर्चना-आराधना जल के सत्ता को स्वीकारना ही तो है। विश्व के प्रायः सभी समुदाय अपनी नदियों के जल का भरपूर उपयोग करना चाहते हैं। बाँध, बिजली संयंत्र, नहर आदि तो यहीं स्पष्ट करते हैं न! तब अहिंसा के रूप बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली में हिरण्यवती के प्रति उदासीनता क्यों? यह प्रश्न केवल एक लेख के कारण ही नहीं है, इतिहास, धर्म, आध्यात्म और यथार्थ की उपयोगिता के आधार पर कहा जा रहा है। कई मनस्वी और अनगिनत संस्थाएँ नदियों को बचाने के लिए, उनके उद्धार के लिए प्रयास करती रही हैं। नर्मदा के लिए मेधा पाटेकर का प्रयास हो या बंजर नदी के लिए अमृतलाल बेगड़ का प्रयास, गंगा रक्षा मंच और प्रो. जी. डी. अग्रवाल का गंगा बचाओ अभियान हो या यमुना के उद्धार की बातें, सुई, कारो, बनास, कुआनों आदि देश की अधिकांश नदियों के उद्धार एवं संरक्षण की चर्चाएँ होती रही हैं, फिर हिरण्यवती द्वारा सिंचित भूमि ऊसर कैसे हो गई कि उसकी रक्षा में उसका कोई लाल सामने नहीं आ रहा? किसी विद्वान या किसी चिंतक की नजर हिरण्यवती के घावों को क्यों नहीं देखती? क्या उसके जर्जर अस्तित्व पर किसी राजनैतिक व्यक्ति की नीति नहीं तैयार हो सकती? क्या सामाजिक सोच का मन इस पर नहीं सोच सकता? प्रश्न तो सबसे है। इसका उत्तर भी सबके पास है। देखना है कि आपके उत्तर की शैली क्या है?
इतिहास के बहाने कहा जा सकता है कि जब मनुष्य असभ्य था, तब नदियाँ स्वच्छ एवं समृद्ध थीं। आज जब मनुष्य सभ्य एवं आधुनिक हो गया है, तो नदियाँ जर्जर, गंदी और जहरीली हो गई हैं। हिरण्यवती की दशा भी कुछ अलग नहीं है। तब तो हिरण्यवती में ही स्वयं की स्वच्छता बनाए रखने की क्षमता थी, परन्तु दूषित मानसिकता और वातावरण में व्याप्त प्रदूषण के कारण अब स्वयं वही मृतप्राय हो गई है। हे मानव! तभी तो हिरण्यवती अपने ही उद्धार के लिए तड़प रही है।
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- केशव मोहन पाण्डेय
(विश्वगाथा और भोजपुरी-पंचायत पत्रिकाओं में प्रकाशित)
पांडेय जी ..कुशीनगर पर सूचनाप्रद प्रस्तुति के लिए आपका आभार..मुझे गर्व है कि मैंने उस धरती पर जन्म लिया जिसे स्वयं तथागत भगवान बु्द्ध ने अपने स्पर्श, ज्ञान, संदेश और सानिध्य से पावन किया...आप के लेख के लिए...मेरा साधुवाद...सुधीर शर्मा..लेखक, पत्रकार .मुंबई.....
ReplyDeleteपांडेय जी ..कुशीनगर पर सूचनाप्रद प्रस्तुति के लिए आपका आभार..मुझे गर्व है कि मैंने उस धरती पर जन्म लिया जिसे स्वयं तथागत भगवान बु्द्ध ने अपने स्पर्श, ज्ञान, संदेश और सानिध्य से पावन किया...आप के लेख के लिए...मेरा साधुवाद...सुधीर शर्मा..लेखक, पत्रकार .मुंबई.....
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