खेतों के बीच सरकती
बेरोक चली जाती थी
पगडंडी
मेरे गाँव की।
नहीं बंधन किसी बंधे का
पार कर
बेधड़क
दौड़ पड़ती थी
थोड़ी दूर तक
सबके साथ।
फिर पार करती थी
परती जमीनों को
खैरा के तथाकथित वनों को
गन्ने के खेतों को
धान की हरियाली को
मक्के की बाली को
रखवालों के विचारों को
दाँव में बैठे सियारों को
अरहर की सघनता को
बेल वाले खरबन्ना को
फसलों में फलते आस को
हर घर के विश्वास को
आम के बगीचे को भी
पार कर पगडंडी
पहुँच जाती थी
मेरे गाँव में
पीपल के छाँव में
और तब
पगडंडी
सैकड़ों पाँव का हो जाती थी
पूरे गाँव का जाती थी।
आज ढूँढते नहीं मिलती
समय के साथ की वह पगडंडी।
मेरी दिनचर्या भी
अपने गोरुओं को तलसता
शहर में भटकटा चरवाहा हो गई
वैसे ही
मेरे गाँव की पगडंडी
स्वाहा हो गई।
--------------- - केशव मोहन पाण्डेय
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