May 1, 2015

मैं मजदूर हूँ

    मैं मजदूर हूँ। हाँफता, काँपता मजदूर। खुशियाँ बनाता, खुशियों की दुनिया बसाता मजदूर। मैं मजदूर हूँ। मेहनतकश मजदूर। आलस्य से मेरा कोई वास्ता नहीं। काम से भी कभी नफरत नहीं। मैं दिन रात मेहनत करने के लिए बना हूँ। मैं अनवरत मेहनत करता हूँ। मैं कल-कारखाने बनाता हूँ। मैं सुई से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनें बनाता हूँ। उन्हें चलाता भी मैं ही हूँ। पछताता भी मैं ही हूँ। फिर से मेहनत करता हूँ। मैं जिन्दगी के साथ होड़ लगाये चलता हूँ। कई बार तो मैंने हरा भी दिया है जिंदगी को। सरिया में बिध कर भी मैं जी उठा हूँ। 
    मैं मजदूर हूँ। वह मजदूर, जो मौसम की हर मार सहता है। मेरा शरीर पसीने से लतपथ रहता है। केवल बंडी-बनियान से पुस को झेलता है। निरन्तर वर्षा में भिंगते हुए भी मैं अपने काम से मुँह नहीं मोड़ता। भले पेट में रोटी नहीं गया हो तो भी चेहरे पर चमक होती है। अधर पर अक्षय मुस्कान रहती है। आँखों में मंजिल। जब मैं अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर लेता हूँ, तब तो मैं ही विश्व-विजेता होता हूँ।
    मैं मजदूर हूँ। सपनों को पालत मजदूर। सत्य के धरातल पर जी रहा मजदूर। फ्रांस की क्रांति से अमर हो चुका मजदूर। पर आज भी असहाय हूँ। आज भी असफल माना जाता हूँ। आज भी अकिंचन कहा जाता हूँ। तो क्या? मैं जिंदगियाँ देता हूँ। सड़क, बाजार, घर, दुकान, मंडी, कल-कारखाने और खेतों में भी मेरी ही मजदूरी है। मैं अपने दम पर संसार को पालता हूँ। जिंदगी मेरे साथ है। मेहनत मेरे साथ है। काम ही मेरी संपत्ति है। पसीना ही मेरा जागीर। भले मैं आँसू बहाता हूँ, मगर दूसरे की आँखों में आँसू नहीं देख सकता।
    चाहे देश कोई भी हो, मेरी कहानी एक ही जैसी है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी। विश्व के किसी कोने में भी। मैं तो बस अपने मेहनत पर विश्वास करता हूँ। मेहनत के बल पर जी रहा हूँ। मेरी प्राण-शक्ति भी मेहनत ही है। दूसरे पर क्या भरोसा? यहाँ तो सरकारें आती हैं और जाती हैं, मजदूरी तो मेरी ही रहती है। मेरे एक बार के निर्णय पर पाँच साल तक मुझ पर ही शासन की व्यवस्था की व्यवस्था भी तो मैंने ही की है। यहाँ तो लूट की ऐसी व्यवस्था है कि जो जिस स्थिति में हैं, अपना हाथ साफ कर ही लेना चाहता है। चाहे बात काले धन का हो या सार्वजनिक शौचालयों से लोटे को उठा ले जाने का। यह तो देश की विडम्बना है कि जिस किसान का उगाया हुआ अन्न खाकर लोग उसपर नीतियाँ बनाते हैं, वहीं किसान आत्महत्या करने पर विवश हो जाता है। मजदूर जिन कल कारखानों को तैयार करता है, जिन्हें चलाता है, उसी कारण मजदूर की जिन्दगी बोझ बन जाती है। मैं तो जिन्दगी भर बोझ ढोता रहता हूँ तो मेरी जिन्दगी खुशहाल क्यों नहीं? इन्हीं प्रश्नों के साथ दुनिया में मेहनत को तवज्जो देने वाले सभी मजदूरों को आज के लिए शुभकामना।
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 - केशव मोहन पाण्डेय

Apr 30, 2015

---- गुटबाजी--- (लघुकथा)


    राघव और विकल्प रिश्तेदार के रिश्तेदार होने के नाते एक-दो बार मिले थे। दोनों साहित्यिक अभिरुचि के जीव थे। मिलते ही साहित्यिक चर्चाएँ होने लगती थीं। इन चर्चाओं में ही पता चला कि विकल्प एक साहित्यिक पत्रिका में लिख रहा है। राघव ने उस नई पत्रिका के सारे अंक देखे थे। प्रयास से अभिभूत भी था। एक-दो बार कुछ लेख भी भेजा था। कारण तो नहीं समझ पाया था, मगर उसके लेख नहीं छपे थे। दूसरी ओर प्रत्येक अंक में उन्हीं रचनाकारों को नियमित देखकर उसे लगता कि नई पत्रिका है, और कहीं से लेख नहीं मिल रहा होगा। नहीं मिल रहा होगा तो मेरा लेख क्यों नहीं छपा???

    विकल्प से मिलते ही राघव ने अपनी बात कही, - भाई पत्रिका तो बहुत अच्छी है, मगर पता नहीं क्यों मेरे लेख तो प्रकाशित ही नहीं हो पा रहे हैं।  
    दरअसल हमारी टीम को लगता है कि आप दूसरी पत्रिका के लिए लिखते ही हैं। 
     हाँ, मैं तो देश की अनेक पत्रिकाओं में लिखता हूँ। 
    तो आप किसी एक गुट के नहीं हैं? वैसे हमारी पत्रिका भी किसी गुट, किसी ग्रुप को महत्त्व नहीं देती। हम जितने हैं, एक टीम की तरह काम करते हैं। वैसे अच्छा लगा कि आप दूसरे गुट की पत्रिका की भी तारीफ करते हैं। 
    इस गुटबाजी के कारण मेरी आँखों के सामने का अँधेरा साफ़ हो गया। अब पता चला कि उस पत्रिका में मेरे लेख क्यों नहीं आते। 
                                                                     ------------ 
                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय 

Apr 26, 2015

काँपती धरती का भय


    काँपती धरती ने सबको कँपा दिया है। क्या नेपाल, क्या भारत, भय दोनों देशों की आँखों में है। लोग चैन से न सो पा रहे हैं, न चैन से खा पा रहे हैं। गोरखपुर से एक रिश्तेदार का फोन आया। वे बताने लगीं कि जैसे ही नहाकर वाॅशरूम से निकलीं कि झटके आने लगे। एक मित्र का फोन आया कि मेरे गृह नगर में कोई महिला हृदय गति रूकने के कारण चल बसीं। चारों ओर अफरा-तफरी है। रात ग्यारह बजे तक लोग फोन करते रहे कि समाचार में क्या आ रहा है। अफवाह फैला है कि रात में साढ़े ग्यारह बजे फिर से भूकंप आएगा। सभी लोग बाहर आ गए हैं। खेतों में लोग रात बिता रहे हैं। काँपती धरती से सबकी आँखों में भय पसरा हुआ  है।
    मैं अभी तक दो-तीन बार भूकंप का झटका अनुभव किया हूँ। सबसे पहली बार तीन या चार में पढ़ रहा था। बरसात का समय था। दरवाजे पर विराजमान पीपल का पेड़ झूम गया था। दूसरी बार 2012 में। आफिस में था। लगा कि कुर्सी नीचे क्यों हो गई। और इस बार अधिक। 25 अप्रैल को किसी मनीषी के पास बैठा था। फर्श पर ही हम सभी थे। दीवाल का सहारा लेकर बैठे थे हम सभी। एकाएक झूमने लगे। पाँचवी मंजिल से नीचे उतरने का विचार बनने लगा। पहले एक मिनट तो समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। सबकुछ हिल रहा था। कुर्सी भी। खिड़की भी। सामने का टावर भी और सबके साथ हम भी। फिर जैसे-तैसे काँपने की क्रिया कम हुई। होश आया कि पत्नी तो कमरे पर हैं नहीं। आज उनका विद्यालय खुला है। कमरे पर सिर्फ मेंरा 3.5 वर्षीय बेटा और मेरी भतीजी ही हैं। भतीजी को तुरंत फोन किया। उसने अनुभव तो किया था, मगर समझ नहीं पायी थी। दिल धक् से रह गया। जल्द ही उनसे विदा लेकर कमरे पर आया। सबकुछ कुशल था। दिल्ली हिली अवश्य थी, मगर नुकसान नहीं हुआ था। ऊपर वाले की असीम कृपा ही थी।

    ऐसा नहीं है कि प्रकृति ने पहली बार लोगों को डराया है। भुज, लातूर, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर आदि असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं। मगर इस बार का मामला कुछ अलग है। झटके बार-बार आ रहे हैं। बार-बार डरा रहे हैं। पता चल रहा है कि जीने के लिए आदमी कितना बेचैन रहता है। वैसे नेपाल की तबाही बहुुत ही डरावनी है। बार-बार झटका अधिक डर पैदा कर रहा है। मन ईश्वर को याद कर रहा है। मृतकों के आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहा है और आँखों में भय पसरा हुआ है। कहीं भी, कुछ भी हिलता या बजता है तो मन काँप जाता है। मन के भय को भगाने का प्रयास हो रहा है मगर चैकन्नी आँखें व्यक्त कर ही दे रही हैं। 
    सोचिए, यहाँ दिल्ली में बैठा मैं इतना भयभीत हूँ तो नेपाल के वासी कैसे नहीं पशुपति नाथ को याद करें। उन्हें तो अब ऊपर वाले का ही भरोसा है। प्रकृति ने बार-बार मानव को विवश सिद्ध किया है, फिर भी दंभी मानव अपनी ही धुन में लगा रहता है। अहंकार के नशे में चूर पागल मानव कमजोरों को दबाने का एक मौका भी नहीं छोड़ता और प्रकृति पल में ही धराशायी कर देती है। पीड़ा तब होती है, दया तब आती है जब प्रकृति का कोप निदोर्षों पर होता है और गोद के गोद, घर का घर, गाँव का गाँव उजड़ जाता है। अगर जिसमें संवेदना है, मानवता का वास है, तो सच्चे मन से अपने ईश्वर से इस प्राकृतिक आपदा से निजात पाने के लिए प्रार्थना करें। उनके दुख में सम्मिलित हों। उन्हें अपनों की अनुभूति होगी। उनकी आँखों से भय का नाश होगा और मानवता को बल मिलेगा।
                                                                            
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 - केशव मोहन पाण्डेय

Apr 25, 2015

धरीक्षण मिश्र (परिचय)


    पूर्वी उत्तर-प्रदेश के तमकुहीराज (कुशीनगर) क्षेत्र के बरियारपुर की धरती पर जन्म लेने वाले स्व. पण्डित धरीक्षण मिश्र किसी के परिचय के मोहताज नहीं हैं। धरीक्षण मिश्र लोक भाषा भोजपुरी के एक महान साहित्यकार थे। व्यंग्य उनकी प्रकृत विधा थी। काव्य में वे रस, छंद और अलंकार के आग्रही थे। उनकी रचनाओं में अलंकार, छंद सामर्थ्य की व्यापकता एक गौरव की बात है। प्राचीन आचार्यों की भाँति काव्यशास्त्र की मर्यादा में रहकर काव्य-सृजन के साधक थे। भोजपुरी जैसी लोकभाषा में भी उन्होंने संस्कृत के जटिलतम माने जाने वाले ‘शिखरिणी’ तथा ‘अमृतध्वनि’ जैसे छंदों का सार्थक तथा सफल प्रयोग किया है। यही कारण है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि के रूप में उनको साहित्यिक जगत में स्थान प्राप्त हुआ। इस नाते प्रख्यात साहित्यकार कवि को भोजपुरी का कबीर कहना नहीं भूलते। वैसे तो वे सामाजिक जीवन की विद्रूपता के कवि थे। समाज के सभी वर्ग व श्रेणियों पर उन्होंने अपनी कविताएँ लिखी हैं। लेकिन ‘कवन दुखे डोली में रोअत जालि कनियाँ’ ने तत्कालीन समाज की कुव्यवस्था पर एक लकीर खींच दिया। इसे साहित्यकारों में सबसे पहले धरीक्षण मिश्र ने रेखांकित किया। 

    तमकुहीराज तहसील क्षेत्र के बरियारपुर में चैत राम नवमी के दिन वर्ष 1901 में आचार्य पं. धरीक्षण मिश्र एक सम्पन्न परिवार में जन्म लिया। प्राथमिक व मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद इनकी कुशाग्र बुद्धि देख माता-पिता ने वर्ष 1926 में हाई स्कूल की पढ़ाई हेतु लंदन मिशन स्कूल वाराणसी में दाखिला करवाया। पढ़ाई के बाद घर वापस आने पर इन्हें प्रशासनिक पद पर तैनात होने का भी अवसर मिला। जिसे त्याग कर वे गंवई परिवेश में अपने निजी भूमि पर लगाये गये वाटिका को पसंद किए तथा वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने भोजपुरी भाषा में लोक से जुड़ी कविताओं, सामाजिक विसंगतियों पर कलम चलाई। छुआछूत के घोर विरोधी रहे कविवर को समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में भी चिंतित होना पड़ा। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, बेधड़क सच्चाई बयान करना कवि की विशेष विशेषताओं में था।
भिखारी ठाकुर की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए धरीक्षण मिश्र ने घर आंगन, बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों में बसे गँवई जीवन की कथा-व्यथा को अपनी गीतों, कविताओं में बड़ी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। वर्ष 1977 में ‘शिव जी की खेती’, 1995 में ‘कागज के मदारी’, 2004 में ‘अलंकार दर्पण’, 2005 में ‘काव्य दर्पण’, 2006 में ‘काव्य मंजूषा’ के प्रकाशन के साथ ही उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा 1980 में मिले सम्मान के साथ ही ‘अंचल भारती सम्मान’ से राज्यपाल मोतीलाल बोरा द्वारा 1993, ‘भोजपुरी रत्न अलंकरण’ द्वारा अखिल भारती भोजपुरी परिषद लखनऊ 1993 में प्राप्त हुआ। 1994 में श्रीमहावीर प्रसाद केडिया साहित्य एवं संस्कृति संस्थान देवरिया द्वारा ‘श्री आनन्द सम्मान’, 1994 में उ.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन उरई द्वारा ‘गया प्रसाद शुक्ल सनेही पदक’, 1995 में प्रथम विश्व भोजपुरी सम्मेलन देवरिया में पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर द्वारा प्रथम ‘सेतु सम्मान’, 1997 में साहित्य आकादमी नई दिल्ली द्वारा ‘भाषा सम्मान’, विश्व भोजपुरी सम्मेलन नई दिल्ली द्वारा 2000 में मरणोपरांत ‘भोजपुरी रत्न’ आदि सम्मान से सम्मानित हुए।
    साधना के रूप में कविता करने के शौकीन इस कवि का व्यक्तित्व नितांत सादगी भरा था। इनकी विलक्षणता की ही देन है कि वर्तमान समय में गोरखपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में इनकी रचनाओं को लेकर भोजपुरी भाषा की भी पढ़ाई की शुरूआत की गयी है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के अतिरिक्त इग्नू और अन्य कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकार की गई हैं। कबीर की तरह विसंगतियों पर प्रहार करने वाले इस कवि ने 1997 के कार्तिक कृष्ण नवमी को बरियारपुर स्थित अपनी कुटिया में महा प्रयाण किया और नास्तिक होते हुए भी मरते वक्त राम राम लिखते हुए अंतिम साँस लिए। -
लोकतंत्र के मानी ई बा,
लोकि, लोकि के खाईं 
जिन गिरला के आशा करिहें,
हाथमलत पछताई ए भाई,
अइसन राज ना आई ।
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यह कविता नहीं है (एक लम्बी कविता)



बहुत दिनों के प्रयास से
मैं कर पाया
बंद दरवाजे
उलझन भरे मन की।
बंद दरवाजे के रिक्त कंपन से
आते हुए शब्द
हिला देते हैं
अंतर के उस दीवार को
जिसे जोड़ा गया था
भावनाओं की गिली मिट्टी से
जिस पर उकेर देता
कोई/कुछ चित्र
चित्र/स्मृतियाँ . . .
जिन्हें मिटाने के लिए
बंद कर दी थी मैंने दरवाजे
परन्तु सेंध लगा दी रिक्तता ने
उस कच्ची दीवार में
जोड़े गए ईंट की संधि-मध्य की रिक्तता से।
साँस नहीं थी
उस रिक्तता में
परन्तु जीवन था,
रातें नहीं थीं
एक चंद्रमा था,
प्रभा नहीं जागती थी
परन्तु वहीं से फूट रही थी
एक किरण
अंगार बनकर।
और बौनी काया
नख-शिख की
काँप जाती थी
स्मृतियों से।
मैं कवि नहीं था
लेखनी नहीं थी
कुछ भी नहीं था साधन के रूप में
बस एक कागज था मेरे सम्मुख
कोरे विचारों का।
‘एक साधन से कैसे निखरेगा रूप’
घेरती थीं चिंताएँ कि
रूप निखारने के लिए
पुस्तक रखती है
अलमारी रखती है
आज की स्त्री।
एक ही घर में
अलग-अलग कमरे होते हैं
घर के सुडौल सौंदर्य के वास्ते,
परन्तु नोचने के लिए
अपना मुखौटा
तोड़ने के लिए दीवार
मैंने बढ़ा ली थी
दसों नाखून
जो हो गए थे सौ।
बढ़ने पर संख्या के
शक्ति बढ़ती है
स्वभाव बढ़ता है
संस्कृति बढ़ती है
सूर्य भी बढ़ता है
पूरब से पश्चिम की ओर
और नाखून का बढ़ना
पश्चिम जाना ही तो है।
बढ़े हुए नाखून
मेरे लिए
तीक्ष्ण विशिख
तीव्र-धार-तलवार नहीं
कलम बन गए
और मुझे कलम अच्छी लगी
‘कलम या तलवार’ में से,
कौन देगा सजा
कलम से की गई हत्या का?
रोज़ तो मरते हैं पात्र।
तब अपने सभी मित्रों से
माँगी थी स्याही मैंने
हताश होकर सोचा था कि
समुद्र को ही बना लूँ मसि
परन्तु डर गया कि
समुद्र सूख जाएगा
मर जाएँगे के भूखे-प्यासे
अनगिनत जीव सारे
तब भी नहीं लिख पाऊँगा
अपनी स्मृति-कथा को।
मेरे एक मित्र ने समझाया
‘तब भी जीवित रहेंगे केकड़े’
बात सही निकली
केकड़े ने बिना छल के ही
काट ली अंगुली मेरी
और फूट पड़ी लहू की धारा
सुन्न होने लगी चेतना
पीला पड़ने लगा शरीर
तब भी स्मृतियाँ शेष थीं
उस अशेष जीवन में
और दीवार हिल रही थी।
अब कागज, नाखून तथा लहू से
मैं स्मृतियों को
लिखना चाह रहा था
परन्तु आज भी
मैं कवि नहीं हूँ
तब भी नहीं था
क्योंकि मेरे शब्द नहीं हैं
मेरे छंद नहीं हैं
विधा भी तो मेरी नहीं थी
तब भी
अब भी कहाँ कुछ सीखा हूँ मैं?
हाँ, शक्ति थी, साहस था
अनुभूति थी
और आँखों में कुछ चित्र थे . . .
कमर तक धोती चढ़ाकर
जंघे से मसलकर
सरकाना नीचे
और बाँयी तर्जनी में फँसे
सूत के साथ
नाचती तकली का
गोल-गोल/स्थिर नाचकर
तैयार करना संस्कार।
दूर, खेत के मेढ़ पर
चलाते रहना कुदाल
और निरंतर तत्पर रहना
नव-सृजन के लिए
हर साँस में प्रयासरत
हमेशा परछायीं के लंबी होने पर ही
दम लेते थे मेरे पिता।
मैं भूल गया ध्वस्त होता पैंटागन
अपनी स्मृति के आगे
अयोध्या और गोधरा भी
भुज और लातूर
आकाशगंगा बनी कल्पना,
पढ़ना और परीक्षाएँ पास करना,
सुबह उठना, नहाना, खाना
मैं भूलता रहा सब कुछ
लेकिन स्मृतियाँ आती रहती थीं
दीवार हिलती रहती थी।
स्मृतियाँ नहीं दूर होती थीं
मैं कवि भी नहीं था
मेरे शब्द नहीं थे
बस अनुभूति थी मेरी,
एक कागज
सौ कलमें
थोड़े रंग थे मेरे पास।
तब मुझे
लिखने से अच्छा लगा चित्र बनाना
पर मैं चित्रकार भी तो नहीं था।
प्रयास से मैंने खींचा चित्र
शब्दों का
और जब दिखाया तुम्हें
तब कुछ भी नहीं समझ पाए थे मित्र!
आज पुनः सुनाना चाहता हूँ तुम्हें
क्योंकि यह कविता नहीं है
स्मृति है मेरे बचपन की
जो टकराने लगी हैं दीवारों से
पिता जी के जाने के बाद।
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 - केशव मोहन पाण्डेय

Feb 7, 2015

‘संगीत से मुझे ऊर्जा मिलती है’ (साक्षात्कार)


     उत्तर-प्रदेश के गोरखपुर का बेतिया हाता आज भी अपनी समृद्धि, विद्वता और रौनक के कारण अपनी अलग पहचान बनाता है। उन्हीं गलियों में अपना बचपन व्यतीत की हुई संगीतिका आडवानी आज अमेरिका के लांस एंजलिस में रहती हैं। वहाँ वे लगभग पचीस वर्षों से हैं। वहाँ उनका भरा-पूरा परिवार है। वे एक संगीत-स्कूल चलाती हैं, एक अस्पताल में नर्सिंग करती और मौका मिलते ही निरंतर शो करती रहने की व्यस्तता के बीच भी अपने भारतीयों और विशेषकर भोजपुरी-भाषियों के लिए भी भोजपुरी संगीत का सुगंध फैलाती रहती हैं। पिछले दिनों जब उनसे मुलाकात हुई तो मैं उनके अनुभवों को जानने के लिए बेचैन हो गया। प्रस्तुत है संगीतिका आडवानी से किए गए साक्षात्कार का कुछ अंश -
प्रश्न - संगीतिका जी, सबसे पहले आप अपने विषय में विस्तार से बताइए।
उत्तर - मेरा जन्म उत्तर-प्रदेश के गोरखपुर के बेतिया हाता में हुआ। मेरी मम्मी स्वयं भी एक प्रतिष्ठित गायिका है, अतः संगीत मेरे खून में ही था। पाँच साल की उम्र से मैं संगीत की साधना में लग गई। बचपन से ही संगीत के अतिरिक्त और कुछ मुझे पता ही नहीं था कि इसके अलावा और भी कुछ करना है। तो इस प्रकार मेरी मम्मी और परिवार के नाते मुझे संगीत से लगाव हो गया। मैं तेरह साल की उम्र तक वहाँ रही। अनेक मंचों के साथ-साथ आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी मुझे गाने का मौका मिला। तेरह साल की उम्र में मुझे भारतखंडे संगीत विद्यालय में एडमिशन मिल गया। वहाँ मैं दो वर्षों तक रही। 15 साल की उम्र में मेरा यू.एस.का विज़ा मिल गया। वहाँ जाकर मैं निरंतर संगीत साधना करती रही। वहाँ पर लक्ष्मीशंकर जी से दो साल संगीत सीखा। उसके बाद से मैं स्वयं भी सिखाती गई। फिर करीब पाँच साल बाद मुझे मास्टर की डिग्री मिली। उसके बाद मेरी स्वयं की यात्रा प्रारंभ हुई जो कि ले देकर संगीत, संगीत और सिर्फ संगीत। आज भी कैलिफोर्निया में मेरा खुद का सुर संगीत म्यूजि़क एण्ड आर्ट स्कूल है। अब तो बस उसी को लेकर काम कर रही हूँ।
प्रश्न - जैसा कि आपने बताया कि आप एक शिक्षक, गीतकार, संगीत-निर्देशक और गायिका आदि की भूमिका निर्वाह करती हैं। इतना कुछ एक साथ कैसे संभव हो पाता है?
उत्तर - इतना कुछ संभव इस नाते हो पाता है क्योंकि स्वयं संगीत ही एनर्जी देता है। मुझे गाना बहुत पसंद है। एक दिन गाना न गाऊँ तो बीमार पड़ जाऊँगी। दूसरा है कि शो करना। वह भी म्यूजि़क से ही संबंधित है, तो वह भी बाधा नहीं है। सर, एक औरत कभी कमजोर नहीं होती। हम लोग मल्टी टाॅस्क करने की क्षमता रखते हैं और मैं भी करती हूँ। तो अभी आपने जितना कुछ बताया, उसमें सिर्फ और सिर्फ संगीत से ही मुझे ऊर्जा मिलती है। और निश्चिततः मैं इतना सबकुछ इसलिए भी कर पाती हूँ कि मेरे पति का भरपूर सहयोग मिलता है।
प्रष्न - अपना देश, अपनी मिट्टी और अपने लोगों को आप कब याद करती है?
उत्तर - हर क्षण। हर क्षण याद करती हूँ। जैसे कि मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण दूँगी कि अगर आप सैंट वजे़ में मेरे घर आये तो मेरे मुहल्ले में प्रवेश करते ही आपको पता चल जाएगा कि मेरा घर कौन है। क्योंकि वहाँ अपने देशी मसाले की मँहक आयेगी। मैं यहाँ जब भी आती हूँ तो मसाला, अचार आदि पहले पैक किया जाता है। मैं अपने बच्चों से अपनी भाषा में बात करती हूँ। 'भोजपुरी परिवार' के कारण हम जब भी मिलते हैं, आपस में भोजपुरी में बातें करते हैं। लगता ही नहीं कि हम लांस एंजलिस और कैलिफोर्निया में है। 
प्रश्न - आपके लिए भारतीय संगीत कितना मायने रखता है? अमेरिका में रहकर भारतीय संगीत को आप कितना इंज्वाॅय करती हैं?
उत्तर - आई उड से, मे बी मोर। क्योंकि मुझे लगता है कि भले ही यहाँ पर क्वांटिटी बहुत है, वहाँ पर क्वालिटी है। भारतीय संगीत और अपनी भोजपुरी के विषय में सोचने की क्या बात है, वह तो साँसों में बसा है।
प्रश्न - भोजपुरी आपके जीवन में कहीं-न-कहीं हैं। भोजपुरी भाषा और संगीत को आप कैसे देखती हैं?
उत्तर - भोजपुरी भाशा बहुत समृद्ध और पुरानी भाषा है। भोजपुरी को लेकर मेरी तथा भोजपुरी परिवार की निरंतर यह कोशिश रहती है कि वहाँ पर हम अपने बच्चों को भोजपुरी सिखाते रहते हैं। हम जब मिलते हैं तो आपस में भोजपुरी ही बोलते हैं। भोजपुरी के एक-एक गाने ऐसे हैं कि अगर हमारे बच्चे समझ लें तो हम अपने लक्ष्य में सफल हो जाएँगे। हम इस भाषा के विकास के लिए वास्तव में प्रयास करते हैं, केवल बैनर-पोस्टर और अखबारों तक ही सीमित नहीं रहते। (भोजपुरी संगीत के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त करते हुए एक गीत गाती हैं) - 
मोरा हीयरा हेरा गइले कचरे में।
कहू जोहे काशी में, केहू काबे में,
केहू जोहे पंडित के पतरे में।
मोरा हीयरा हेरा गइले कचरे में।।
प्रश्न - कहा जाता है कि माँ-बाप का प्रभाव संतानों पर पड़ता है। आप पर आपके माता-पिता का क्या प्रभाव है? आगे की पीढ़ी को आप क्या देना चाहती है? 
उत्तर - आज तक जो कुछ भी मैं हूँ, जो आप मुझे देख रहे हैं, पच्चीस साल हो गया अमेरिका में रहते हुए, मगर मेरी जो भाषा सुन रहे हैं, जो मेरी सोच है या जो मेरा संगीत है, यह पूरा-का-पूरा मेरे माता-पिता की देन है। मेरे मम्मी-पापा ने जो कुछ मुझे दिया, मैं वह सारा कुछ अपने बच्चों में देना चाहती हूँ।
प्रश्न - लोग कहते हैं कि आजकल विशेषकर गायिकाओं के लिए गायिकी की प्रतिभा के साथ-साथ शारीरिक आकर्षण भी बहुत मायने रखता है। आप इस बात को कितना मानती हैं?
उत्तर - (एक लंबी साँस लेकर) मैं इस बात से पूर्णतः सहमत नहीं हूँ। मगर ईमानदारी से कहा जाय तो अगर आप शो कर रहे हैं तो आकर्षक चेहरा होना जरूरी है। अगर लोग आपको देखने-सुनने आ रहे हैं तो प्रतिभा के साथ आकर्षक चेहरा भी अवश्य चाहिए। आज की दुनिया विज्ञापन की दुनिया है और आप अच्छा गायिका हैं तथा साथ ही देखने में भी अच्छी हैं तो सफलता की अधिक संभावना है। मैं आपकी बातों से फिफ्टी-फिफ्टी सहमत हूँ क्योंकि अपनी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में भी बहुत सी गायिकाएँ रही हैं जो चेहरे से बहुत आकर्षक न होने पर भी अपनी प्रतिभा के दम पर आज भी कायम हैं और पहले भी रही हैं।
प्रश्न - संगीत को साधना कहा जाता है। इसे साधने वालों की एक अलग परंपरा है। सबका कोई-न-कोई आदर्श होता है। आप किसे अपना आदर्श मानती हैं?
उत्तर - मैं आदर्श तो तीन-चार लोगों को मानती हूँ परन्तु उनमें सबसे पहला नाम मेरी माँ का है। उन्हीं से मैंने सीखा कि किस अनुशासन में रहकर, किस प्रकार से समूचित समय निकाल कर संगीत की साधना की जाय। मेरी माँ मेरे लिए सबसे पहले आदर्श इसलिए भी हैं कि उन्हीं से भोजपुरी संगीत के प्रति मुझमें लगाव उत्पन्न हुआ। फिर मेरे लिए भीमसेन जोशी जी, हरिहरन जी, अनूप जी आदि से मैं बहुत प्रभावित रहती हूँ और उन्हें अपना आदर्श मानती हूँ।
प्रश्न- क्या आप भी मानती हैं कि आज की गायिकी एक व्यावसायिक तमाशा बनकर रह गई है?
उत्तर - जी हाँ। व्यावसायिक तमाशा इस नाते बनकर रह गया है क्योंकि आज के संगीत में यह सोचा जा रहा है कि क्या चले। मैं यह भी मानती हूँ कि संगीत में पहले से अधिक सुधार आया है, मगर व्यावसायिकता बहुत अधिक है। सर, वास्तविकता यह है कि जिस संगीत में क्वालिटी नहीं रहता, उस संगीत को एक साल बाद कोई नहीं पूछता है। उसमें स्थिरता नहीं रहती।
प्रश्न - संगीत को लेकर आपने आगे कुछ विचार बनाया है? अगर हाँ तो मेरे पाठको को बताइए।
उत्तर - हाँ, संगीत को लेकर हम एक बहुत बड़ा विचार बना रहे हैं। हम अपने सोलहों संस्कारों को लेकर एक समृद्ध एलबम बनाने वाले हैं। कमर्शियल तो वह होगा, मगर अपने शुद्ध पारंपरिक भोजपुरी गीतों को लेकर के बनाया जाएगा। 
प्रश्न - हमारे पाठकों के लिए कोई सन्देश ?
उत्तर - जी, हमें अपनी मिट्टी और अपनी भोजपुरी भाषा को लेकर हमेशा गर्व अनुभव करना चाहिए। चाहे कथा-कहानी हो या कहावत, चाहे संस्कार हो या गीत या व्रत-त्योहार, जो हमारे पास है, वह किसी के पास नहीं है।
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                            - केशव मोहन पाण्डेय 
                                         (भोजपरी-पंचायत के फरवरी 2015 के अंक में प्रकाशित)

Jan 23, 2015

वसंत-पंचमी और सरस्वती पूजा का आकर्षण

      वसंत! नाम सुनते ही जिस ऋतु का रूप सामने झलकता है, उसमें मादकता का आधिक्य होता है। रंगों की छेड़खानी होती है। रूपों का निखार होता है। जीवन की क्रीड़ा होती है। वसंत पंचमी से ही होली का प्रारंभ माना जाता है। पूर्वी भारत में वसंत पंचमी को विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है। वसंत पंचमी एक भारतीय त्योहार है। इस दिन स्त्रियाँ पीत-पट धारण करती हैं। भक्त माँ सरस्वती की वंदना में लिप्त हो जाते हैं। सभी अपने-अपने भावों से ज्ञान की देवी सरस्वती का अनुग्रह चाहता है। भोजपुरी के मूर्धन्य कवि पंडित धरीक्षण मिश्र की एक प्रार्थना देखिए -
वर दे हमें भारती! भारती का उर में धर छंद प्रभाकर दे,
कर दे वह दिव्य प्रकाश कि आप से आप मिटे तम के परदे, 
पर दे शुभ कल्पना का हमको पद और पदार्थ भी सुन्दर दे, 
दर दे दुख दोष दया कर के वरदे वर दे तो यहीं वर दे!!
      भारत में पूरे वर्ष को जिन छह ऋतुओं में विभक्त किया जाता है, उसमें वसंत ऋतु लोगों का मनचाहा ऋतु है। यह वह ऋतु है, जब फूलों पर बहार आती है, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता है, तीसी और मटर के कासनी फूल मन को झूमाने लगते हैं, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगती है, आम्र-वृक्षों पर बौर आ जाता है और चारों ओर रंग-बिरंगी तितलियाँ मडराने लगती हैं। मान्यता है कि इस वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवें दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता है जिसमें भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा होती है। वह उत्सव ही वसंत पंचमी का त्योहार कहा जाता है। 
      शास्त्रों में वसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से उल्लेख किया गया है। पुराणों तथा अन्य कथा-ग्रंथों में अलग-अलग रूप में इसका वर्णन मिलता है। वसंत पंचमी के दिन माँ सरस्वती की पूजा के प्रारंभ के विषय में एक कथा है कि सृष्टि के प्रारंभ काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने अन्य जीवों के साथ मनुष्य का सृजन किया। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है, जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु भगवान से अनुमति लेकर ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से जल छिड़का। पृथ्वी पर जल बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद एक अद्भुभ शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। यह प्रादुर्भाव एक चतुर्भूज सुंदर स्त्री का था। उस स्त्री के एक हाथ में वीणा थी तथा दूसरा हाथ वर-मुद्रा में था। अन्य हाथों में पुस्तक और माला थी। ब्रह्मा जी ने देवी से वीणा-वादन का अनुरोध किया। जैसे ही उस देवी ने वीणा का मधुर वादन किया, संसार के समस्त जीव-जंतुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधाराओं को कलकल निनाद मिल गया। हवा सरसराने लगी। पक्षी चहचहाने लगे। भौंरे गुनगुनाने लगे। ब्रह्मा जी ने उस वाणी और स्वर की देवी को सरस्वती नाम दिया। तब से इनके जन्मोत्सव को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। माँ सरस्वती विद्या और बुद्धि प्रदान करने वाली हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की भी देवी हैं। 
ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है, -
                                           प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
       अर्थात् सरस्वती परम चेतना हैं। ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हम में जो आधार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से खुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी। 
       सनातन धर्म की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। अपनी विशिष्ट विशेषताओं के कारण ही उसे जगत में ऊँची पदवी प्राप्त थी। इसके हर रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार और संस्कार में महत्त्वपूर्ण रहस्य छिपा रहता है। रहस्यों को वैज्ञानिक प्रमाणिकता भी प्राप्त है। इन रहस्यों से हमारे जीवन के किसी-न-किसी समस्या का समाधान भी होता है। ये रहस्य भी हमारे मानसिक और आत्मिक विकास के साधन बन जाते हैं। इनसे मनुष्य शारीरिक और बौद्धिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है। विचारों को एक नया मोड़ प्राप्त होता है। हमारे अधिकांश त्योहारों का किसी न किसी देवता की उपासना और पूजा से संबंध है। वसंत पंचमी का त्योहार विशेष रूप से ऋतु-परिवर्तन के रूप में एक सामाजिक समारोह के रूप में मनाया जाता है। यह मानसिक उल्लास और आनन्द के भावों को व्यक्त करने वाला त्योहार है। विद्या मनुष्य के व्यक्तित्व के निखार एवं गौरवपूर्ण विकास के लिए है। कौन क्षुद्र-मति होगा जो अपना उज्ज्वल व्यक्तित्व एवं प्रतिष्ठित विकास नहीं चाहेगा? माँ सरस्वती के पूजन के साथ ही हमें उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि स्वाध्याय हमारे दैनिक जीवन का अंग बन जाए। हमें ज्ञान की गरिमा की समझ हो जाए। मन में जिज्ञासा की तीव्र उत्कंठा जागृत हो जाए। पूजन से जड़ से जड़ मानव का भी अंतःकरण चमत्कृत हो जाए। पूजन के समय हवन और सामग्रियों के मिश्रण से परिवर्तित वातावरण मानसिक वृद्धि के लिए और उपयुक्त हो जाता है। 
      माँ सरस्वती के कर-कमलों की वीणा हमें यह प्रेरणा देती है कि मनुष्य की हृदय रूपी वीणा सदैव झंकृत रहे। वीणा से अपनी आंतरिक कला के भावोत्तेजक प्रक्रिया को, अपनी सुप्त सरसता को जागृत करने के लिए प्रयुक्त करनी चाहिए। कई बार नारीत्व के सौंदर्य के प्रसंग में भी वीणा का उल्लेख होता है। वैदिक साहित्य में वीणा का उल्लेख बारंबार संगीत के संदर्भ में होता है। मध्यकाल तक भी विभिन्न कलात्मक कृतियों में वीणा को शास्त्रीय संगीत से जोड़ा जाता रहा।  यह अति प्राचीन तंत्रीनाद है। माँ सरस्वती के हाथ में पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है। यह व्यक्ति की आध्यात्मिक और बौद्धिक प्रगति के लिए स्वाध्याय की अनिवार्यता की प्रेरणा देता है। इसके विपरीत जनमानस की यह मानसिकता है कि विद्या नौकरी करने के लिए प्राप्त करनी चाहिए। परिस्थितियाँ सोच को तो बदलती ही हैं। प्राचीनकाल में जब लोग सच्चे हृदय से सरस्वती की उपासना करते थे, तब इस भारतभूमि को जगत-गुरु का उच्चासन प्राप्त था। दूर-दूर से यहाँ लोग सत्य और ज्ञान की खोज में आते थे और यहाँ गुरुओं के चरणों में बैठकर विद्या सीखते थे। आज उपासना में बदलाव के साथ ही सोच और स्थिति में बदलाव आ गया है। विद्या की देवी, माँ सरस्वती का वाहन है मोर। मोर अर्थात् मृदुभाषी! हमें माता का अनुग्रह पाने के लिए मोर की तरह बनना चाहिए। हर किसी याचक को मृदुभाषी, नम्र, विनीत, शिष्ट और आत्मीयता से पूर्ण संभाषण का वरण करना चाहिए। हमें भी मोर की भाँति कलात्मक और सुसज्जित बनने की अभिरूचि रखनी चाहिए। माँ सरस्वती की प्रतीक प्रतिमा के आगे पूजा-अर्चना का सीधा तात्पर्य यह है कि शिक्षा की महत्ता को शिरोधार्य किया जाए। माँ सरस्वती की कृपा के बिना मानव जीवन का कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य सफल नहीं हो सकता।
       वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो मानव हैं, पशु-पक्षी भी उल्लास और उमंग से भर जाते हैं। प्रतिदिन नई उमंग से सूर्योदय होता है और प्रकृति के चर-अचर सबमें नई चेतना का संचार करता है।  वैसे तो माघ का पूरा महीना ही उल्लसित करने वाला है, परन्तु माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् वसंत पंचमी का पर्व भारतीय लोक-जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। आज के दिन को प्राचीन काल से ही ज्ञान और कला की देवी माँ सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। शिक्षा और कला से जुड़े लोग आज के दिन व्रत रह कर माँ शारदे की पूजा और आराधना करते हैं।
      रसिकों का हृदय वसंत पंचमी के दिन वसंत ऋतु के स्वागत के लिए मचलने लगता है। एकाएक हवा सुगंधित हो जाती है। शीत के बाद मौसम में ताजगी अनुभव होने लगता है। छात्र सुबह-सवेरे ही उठकर माँ सरस्वती की पूजा के लिए तैयारियाँ करने लगते हैं।  छात्र-जीवन से वसंत-पंचमी और सरस्वती पूजा की स्मृतियाँ हृदय में अपना अमिट छाप छोड़ी हुई है। उन्हीं स्मृतियों के परिणामस्वरूप आज ज्ञान की देवी और वसंत-पंचमी पर कुछ लिखने को बेचैन हो गया। कई काम तो रात-रातभर जागरण करके भी किया जाता है। माँ के पूजन के लिए बड़े-बड़े एवं भव्य पांडालों का निर्माण किया जाता है। विद्यालय का तो पूरा माहौल ही कई दिन पहले से ही सरस्वतीमय हो जाता है। कोई मूर्ति की व्यवस्था में लगा है तो कोई लाउड-स्पीकर आदि लाने गया है। कोई सजाने में लगा है तो कोई अन्य व्यवस्था में।
      उस समय छात्रों की एकता और सहयोग देखकर ऐसा लगता है कि अवश्य ही माँ सरस्वती इन पर प्रसन्न रहती होंगी। कैसा तो अद्भुत और मनोरम दृश्य होता है! पूजन-अर्चन के बाद सभी लोग माता की वंदना में लग जाते हैं। वंदना क्या? यह तो वाग्देवी का पूरा वर्णन ही होता है, - 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना,
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वंदिता,
सा मां पातु सरस्वतीती भगवती निःशेष जाड्यापहा।।
     वसंत पंचमी का त्योहार हिंदू धर्म में विशेष महत्त्व रखता है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। पूर्वी भारत में (विशेषकर भोजपुरी क्षेत्र में) बड़े उल्लास एवं धूमधाम से किया जाता है। इस दिन ऋतुराज वसंत के आगमन का प्रथम दिन माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण को इस उत्सव का अधि देवता माना जाता है। वसंत ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य निखर उठता है। इस दिन अन्य पर्वों-त्योहारों की ही भाँति घर की शुद्धि कर पीताम्बर धारण करके उत्सव मनाया जाता है। वसंत पंचमी मानव के आनंद के अतिरेक का प्रतीक होता है। वसंत पंचमी यानि वसंत के आगमन का दिन। यानि विद्या की देवी माँ सरस्वती को प्रसन्न करने का दिन। माँ सरस्वती से मनचाहा आशीर्वाद पाने का दिन। यह दिन विद्यार्थियों के लिए अति महत्त्वपूर्ण होता है। वसंत पंचमी के इस पावन दिन को ही माँ भारती के वरद्पुत्र पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस भी मनाया जाता है। सभी भक्त विद्या की इस देवी के सामने नत् एवं करबद्ध होकर प्रार्थना करने लगते है। ज्ञान किसे नहीं प्यारा होता? कला का कौन प्रेमी नहीं होता? ज्ञान और कला तो वह वैभव है, जिसके दम पर माँ सरस्वती की संतति विश्व-विजय कर जाती हैं। ज्ञान ही हृदय में परमार्थ का बीज बोता है। उमंग की लहरें पैदा करता है और प्रेम, सौहार्द्र के साथ अपने प्रकाश में संसार की सारी बुराइयों को जड़ से मिटाने की ताकत रखता है। भक्त याचक माँ सरस्वती से प्रार्थना करते हुए अधीर हो जाता है। माँ का आशीर्वाद पाकर सूर सूरदास हो जाते हैं। रत्नावली का दीवाना रामचरित मानस की सर्जना कर देता है। रत्नाकर वाल्मीकि हो जाते है। अज्ञान को छोड़कर चाहे वह कोई भी ज्ञान हो, (विज्ञान, संज्ञान आदि) व्यक्ति को विशेष तो बना ही देता है। माँ भारती के वरद्पुत्र पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की सरस्वती वंदना में भारत के मंगल की अभिलाषा देखें, -
वर दे, वीणा वादिनी वर दे!
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे!
      माँ सरस्वती जीवन की जड़ता को दूर करती हैं। सिर्फ हमें उनके योग्य अर्थ में उपासना करनी चाहिए। माँ सरस्वती का उपासक भोगों का गुलाम नहीं होता है। सनातन धर्म के अनुसार शुक्लवर्णी, संपूर्ण चराचर में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, भयदान देने वाली, अज्ञानता के तमस को दूर करने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली, पद्मासन पर विराजमान, बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा सबके कष्टों को दूर करती हैं।
माँ सरस्वती झूठे स्वांग, छल, आत्मप्रवंचना और पाखंड के प्रति निर्मम हैं। वसंत पंचमी का यह उत्सव वर्तमान युग की अस्त-व्यस्तता और आपाधापी में ज्ञान की उपासना को एक विशेष संदर्भ प्रदान करता है। यदि हम दिशाहीन, विषाद, अवसाद और खिन्नता से मुक्त रहना चाहते हैं तो इसके लिए माँ सरस्वती का अनुग्रह ही सहायक सिद्ध हो सकता है। अतः हम मनुष्यों को न केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपितु अपने जीवन को क्लेषरहित और उत्साहयुक्त बनाए रखने के लिए भी माँ सरस्वती की आराधना करनी चाहिए। सरस्वती माता की आराधना के समय वसंत-पंचमी का आकर्षण तो रहेगा ही साथ ही बचपन की स्मृतियाँ भी आकर्षक बनी रहती है और ज्ञान की देवी के समक्ष मन नत-मस्तक होता रहता है। 
                                                                 - केशव मोहन पाण्डेय
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