Apr 25, 2015

यह कविता नहीं है (एक लम्बी कविता)



बहुत दिनों के प्रयास से
मैं कर पाया
बंद दरवाजे
उलझन भरे मन की।
बंद दरवाजे के रिक्त कंपन से
आते हुए शब्द
हिला देते हैं
अंतर के उस दीवार को
जिसे जोड़ा गया था
भावनाओं की गिली मिट्टी से
जिस पर उकेर देता
कोई/कुछ चित्र
चित्र/स्मृतियाँ . . .
जिन्हें मिटाने के लिए
बंद कर दी थी मैंने दरवाजे
परन्तु सेंध लगा दी रिक्तता ने
उस कच्ची दीवार में
जोड़े गए ईंट की संधि-मध्य की रिक्तता से।
साँस नहीं थी
उस रिक्तता में
परन्तु जीवन था,
रातें नहीं थीं
एक चंद्रमा था,
प्रभा नहीं जागती थी
परन्तु वहीं से फूट रही थी
एक किरण
अंगार बनकर।
और बौनी काया
नख-शिख की
काँप जाती थी
स्मृतियों से।
मैं कवि नहीं था
लेखनी नहीं थी
कुछ भी नहीं था साधन के रूप में
बस एक कागज था मेरे सम्मुख
कोरे विचारों का।
‘एक साधन से कैसे निखरेगा रूप’
घेरती थीं चिंताएँ कि
रूप निखारने के लिए
पुस्तक रखती है
अलमारी रखती है
आज की स्त्री।
एक ही घर में
अलग-अलग कमरे होते हैं
घर के सुडौल सौंदर्य के वास्ते,
परन्तु नोचने के लिए
अपना मुखौटा
तोड़ने के लिए दीवार
मैंने बढ़ा ली थी
दसों नाखून
जो हो गए थे सौ।
बढ़ने पर संख्या के
शक्ति बढ़ती है
स्वभाव बढ़ता है
संस्कृति बढ़ती है
सूर्य भी बढ़ता है
पूरब से पश्चिम की ओर
और नाखून का बढ़ना
पश्चिम जाना ही तो है।
बढ़े हुए नाखून
मेरे लिए
तीक्ष्ण विशिख
तीव्र-धार-तलवार नहीं
कलम बन गए
और मुझे कलम अच्छी लगी
‘कलम या तलवार’ में से,
कौन देगा सजा
कलम से की गई हत्या का?
रोज़ तो मरते हैं पात्र।
तब अपने सभी मित्रों से
माँगी थी स्याही मैंने
हताश होकर सोचा था कि
समुद्र को ही बना लूँ मसि
परन्तु डर गया कि
समुद्र सूख जाएगा
मर जाएँगे के भूखे-प्यासे
अनगिनत जीव सारे
तब भी नहीं लिख पाऊँगा
अपनी स्मृति-कथा को।
मेरे एक मित्र ने समझाया
‘तब भी जीवित रहेंगे केकड़े’
बात सही निकली
केकड़े ने बिना छल के ही
काट ली अंगुली मेरी
और फूट पड़ी लहू की धारा
सुन्न होने लगी चेतना
पीला पड़ने लगा शरीर
तब भी स्मृतियाँ शेष थीं
उस अशेष जीवन में
और दीवार हिल रही थी।
अब कागज, नाखून तथा लहू से
मैं स्मृतियों को
लिखना चाह रहा था
परन्तु आज भी
मैं कवि नहीं हूँ
तब भी नहीं था
क्योंकि मेरे शब्द नहीं हैं
मेरे छंद नहीं हैं
विधा भी तो मेरी नहीं थी
तब भी
अब भी कहाँ कुछ सीखा हूँ मैं?
हाँ, शक्ति थी, साहस था
अनुभूति थी
और आँखों में कुछ चित्र थे . . .
कमर तक धोती चढ़ाकर
जंघे से मसलकर
सरकाना नीचे
और बाँयी तर्जनी में फँसे
सूत के साथ
नाचती तकली का
गोल-गोल/स्थिर नाचकर
तैयार करना संस्कार।
दूर, खेत के मेढ़ पर
चलाते रहना कुदाल
और निरंतर तत्पर रहना
नव-सृजन के लिए
हर साँस में प्रयासरत
हमेशा परछायीं के लंबी होने पर ही
दम लेते थे मेरे पिता।
मैं भूल गया ध्वस्त होता पैंटागन
अपनी स्मृति के आगे
अयोध्या और गोधरा भी
भुज और लातूर
आकाशगंगा बनी कल्पना,
पढ़ना और परीक्षाएँ पास करना,
सुबह उठना, नहाना, खाना
मैं भूलता रहा सब कुछ
लेकिन स्मृतियाँ आती रहती थीं
दीवार हिलती रहती थी।
स्मृतियाँ नहीं दूर होती थीं
मैं कवि भी नहीं था
मेरे शब्द नहीं थे
बस अनुभूति थी मेरी,
एक कागज
सौ कलमें
थोड़े रंग थे मेरे पास।
तब मुझे
लिखने से अच्छा लगा चित्र बनाना
पर मैं चित्रकार भी तो नहीं था।
प्रयास से मैंने खींचा चित्र
शब्दों का
और जब दिखाया तुम्हें
तब कुछ भी नहीं समझ पाए थे मित्र!
आज पुनः सुनाना चाहता हूँ तुम्हें
क्योंकि यह कविता नहीं है
स्मृति है मेरे बचपन की
जो टकराने लगी हैं दीवारों से
पिता जी के जाने के बाद।
-----------
 - केशव मोहन पाण्डेय

2 comments:

  1. Replies
    1. पाठकों के शब्दों और प्रतिक्रियाओं से ही तो साहस में वृद्धि होता है। धन्यवाद।

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