Apr 26, 2015

काँपती धरती का भय


    काँपती धरती ने सबको कँपा दिया है। क्या नेपाल, क्या भारत, भय दोनों देशों की आँखों में है। लोग चैन से न सो पा रहे हैं, न चैन से खा पा रहे हैं। गोरखपुर से एक रिश्तेदार का फोन आया। वे बताने लगीं कि जैसे ही नहाकर वाॅशरूम से निकलीं कि झटके आने लगे। एक मित्र का फोन आया कि मेरे गृह नगर में कोई महिला हृदय गति रूकने के कारण चल बसीं। चारों ओर अफरा-तफरी है। रात ग्यारह बजे तक लोग फोन करते रहे कि समाचार में क्या आ रहा है। अफवाह फैला है कि रात में साढ़े ग्यारह बजे फिर से भूकंप आएगा। सभी लोग बाहर आ गए हैं। खेतों में लोग रात बिता रहे हैं। काँपती धरती से सबकी आँखों में भय पसरा हुआ  है।
    मैं अभी तक दो-तीन बार भूकंप का झटका अनुभव किया हूँ। सबसे पहली बार तीन या चार में पढ़ रहा था। बरसात का समय था। दरवाजे पर विराजमान पीपल का पेड़ झूम गया था। दूसरी बार 2012 में। आफिस में था। लगा कि कुर्सी नीचे क्यों हो गई। और इस बार अधिक। 25 अप्रैल को किसी मनीषी के पास बैठा था। फर्श पर ही हम सभी थे। दीवाल का सहारा लेकर बैठे थे हम सभी। एकाएक झूमने लगे। पाँचवी मंजिल से नीचे उतरने का विचार बनने लगा। पहले एक मिनट तो समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। सबकुछ हिल रहा था। कुर्सी भी। खिड़की भी। सामने का टावर भी और सबके साथ हम भी। फिर जैसे-तैसे काँपने की क्रिया कम हुई। होश आया कि पत्नी तो कमरे पर हैं नहीं। आज उनका विद्यालय खुला है। कमरे पर सिर्फ मेंरा 3.5 वर्षीय बेटा और मेरी भतीजी ही हैं। भतीजी को तुरंत फोन किया। उसने अनुभव तो किया था, मगर समझ नहीं पायी थी। दिल धक् से रह गया। जल्द ही उनसे विदा लेकर कमरे पर आया। सबकुछ कुशल था। दिल्ली हिली अवश्य थी, मगर नुकसान नहीं हुआ था। ऊपर वाले की असीम कृपा ही थी।

    ऐसा नहीं है कि प्रकृति ने पहली बार लोगों को डराया है। भुज, लातूर, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर आदि असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं। मगर इस बार का मामला कुछ अलग है। झटके बार-बार आ रहे हैं। बार-बार डरा रहे हैं। पता चल रहा है कि जीने के लिए आदमी कितना बेचैन रहता है। वैसे नेपाल की तबाही बहुुत ही डरावनी है। बार-बार झटका अधिक डर पैदा कर रहा है। मन ईश्वर को याद कर रहा है। मृतकों के आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहा है और आँखों में भय पसरा हुआ है। कहीं भी, कुछ भी हिलता या बजता है तो मन काँप जाता है। मन के भय को भगाने का प्रयास हो रहा है मगर चैकन्नी आँखें व्यक्त कर ही दे रही हैं। 
    सोचिए, यहाँ दिल्ली में बैठा मैं इतना भयभीत हूँ तो नेपाल के वासी कैसे नहीं पशुपति नाथ को याद करें। उन्हें तो अब ऊपर वाले का ही भरोसा है। प्रकृति ने बार-बार मानव को विवश सिद्ध किया है, फिर भी दंभी मानव अपनी ही धुन में लगा रहता है। अहंकार के नशे में चूर पागल मानव कमजोरों को दबाने का एक मौका भी नहीं छोड़ता और प्रकृति पल में ही धराशायी कर देती है। पीड़ा तब होती है, दया तब आती है जब प्रकृति का कोप निदोर्षों पर होता है और गोद के गोद, घर का घर, गाँव का गाँव उजड़ जाता है। अगर जिसमें संवेदना है, मानवता का वास है, तो सच्चे मन से अपने ईश्वर से इस प्राकृतिक आपदा से निजात पाने के लिए प्रार्थना करें। उनके दुख में सम्मिलित हों। उन्हें अपनों की अनुभूति होगी। उनकी आँखों से भय का नाश होगा और मानवता को बल मिलेगा।
                                                                            
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 - केशव मोहन पाण्डेय

5 comments:

  1. बहुत ही संवेदनात्मक लेखन... ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं हम....

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    1. जी, अनाथों के भी नाथ, दीनानाथ।

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  2. आपके कहे का मैं भी अनुमोदन करता हूँ. हम इधर जो ही सही महफ़ूज़ हैं. जो त्रासदियाँ झेल रहे हैं उनके प्रति संवेदना मुखर है.
    शुभ-शुभ

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    1. जी भैया। जीवन की विडम्बना तो देखिए कि जीने के लिए आदमी चैन से सो भी नहीं पा रहा है।

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