Oct 9, 2014

एक त्रिवेणी यहाँ भी

मन में भ्रमण का उत्साह, सौंदर्य का आकर्षण और दो देशों की राजनैतिक सीमा के साक्षात्कार की त्रिवेणी में प्रवाहित होकर ही त्रिवेणी जा रहा था। हम छः मित्र और एक जीप ड्राइवर! मुझे छोड़ अन्य सभी इस प्रांत से परिचित थे। मेरी बेचैनी का एक यह भी कारण था कि आज तक त्रिवेणी स्थान का नाम इलाहाबाद के संगम के लिए सुना था। यह कौन त्रिवेणी है?
उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम की दिशा में है त्रिवेणी। पहले गंडक की भयावहता को पार करना दुरूह था, परन्तु अब पनियहवा का समानान्तर रेल-सड़क पुल बहुत ही सहज कर दिया है। हम पुल से गुजरते हुए पड़ोसी देश नेपाल की सीमा छूने चल पड़े हैं। यह गंडक नदी है जिसमे शालिग्राम प्रस्तर की प्राप्ति होती है। शालिग्राम प्रस्तर अर्थात् नारायण का प्रतिरूप। शायद इसीलिए इसे नारायणी नदी भी कहते हैं। . . . हम पुल पर जीप रोक कर ऊपर से ही गंडक की विराटता, सौंदर्य और प्रवाह देखने लगे। अब हम गंडक को पार कर गए हैं। उस गंडक को, जो बरसात में अपने यौवन के उन्माद में सारी बाधाओं को तोड़ देती है। अपने उग्र रूप में पता नहीं कितने उर्वर खेतों, लहलहाती फसलों, झुमते पेड़-पौधों और असीम सभ्यता-संस्कारों को ढोने वाले गाँवों को लील जाती है। इसके आक्रामक खोह में अनगिनत जीव-जंतु, बच्चे-बूढ़े और जवान विलीन हो गए हैं। उर्वर मिट्टी रेत के ढेर में बदल गई है। फिर भी इसके कछारों से न जाने क्या मोह है कि लोग मौत से भी जूझकर जीवन जीत लेते हैं। 
नदियों के प्रति आस्था के कारण हमने भी एक सिक्का प्रवाहित किया। आस्था में अंधा मानव तर्क नहीं मानता, नहीं तो इतना कुछ स्वाहा करने वाली गंडक को सिक्के से क्या प्रयोजन? अभी एक-डेढ़ किलोमीटर भी आगे नहीं बढ़े होंगे कि बिहार राज्य प्रारंभ हो जाता है। जिला पश्चिमी चम्पारण! चम्पारण शब्द से भारतीय इतिहास का एक अध्याय, बापू के नाम और तस्वीर की स्मृति के साथ इस पावन भूमि के गौरव के सामने नत् होने का मन करता है। सामने हैं अरण्य देव! अपना दिल खोले, पलक-पावड़े बिछाए ये महोदय शायद हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं! यहाँ कभी केवल चंपक-अरण्य ही रहा होगा, तभी तो इस प्रांतर का नाम चंपारण पड़ा होगा। ये महोदय 840 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। साखो-सागौन के आधिक्य वाले ये अरण्य देव सीसम, सेमल, जामुन, खैर, बेंत आदि के भी खजाना हैं। इस कानन के साथ अभी एक किलोमीटर ही चला जाता है कि दिल्ली-रक्सौल रेल-मार्ग के किनारे मदनपुर देवी माता का स्थान है। बहुत पवित्र शक्तिपीठ है। यहाँ आए सभी भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं माँ। जैसे उस वन-प्रांत की ओर से आगंतुकों के लिए पहला पुरस्कार है यह! यहाँ आने के लिए सामने ही वाल्मीकि नगर रेलवे स्टेशन है। हम भी दर्शन किए। पूजन-अर्चन के बाद चाय लेकर हम गहन वन प्रांत में चल पड़े। 

. . छोटे-छोटे गाँव! उबड़-खाबड़ रास्ते! अपनी दिनचर्या में लगे लोग! जंगल की चारा चबाती गाएँ! रम्भाते बछड़े! कंचा और कबड्डी खेलते बच्चे! मेमियाती बकरियाँ! कूड़े के ढेर पर दंगल करती मुर्गियाँ और लुका-छिपी करती रसीली हवाएँ! मैं उनके जीवन की दुरुहता देखकर दुखी था, वे अपनी जीवन-लीला में मस्त! मैंने जगह-जगह सावधानी और जानकारी के लिए लगे बोर्ड को देखा - वाल्मीकि व्याघ्र योजना। हाय रे मानव! मानव की प्रवृति ऐसे बदली कि इन वन्य-जीवों की रक्षा के लिए योजना चलाने की आवश्यकता पड़ गई? - पता चला कि यह 335.6 किलोमीटर मे फैली देश की 18 वीं और बिहार की दूसरी परियोजना है। इस परियोजना की शुरुआत 1990 में की गई। यह उत्तर में रायल चितवन नेशनल पार्क (नेपाल) से तथा पश्चिम में गंडक की जल-धाराओं से घिरा है। 
इतिहासकार न जाने क्या कहते हैं, लेकिन इस वन में रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी का पवित्र आश्रम है। यहाँ बाघ, चिता, तेंदुआ, भेडि़या, नीलगाय, काला हिरण, भेडि़या, बन्दर, वनमुर्गी, जंगली बिल्ली, अजगर, छिपकलियों के अलावा जूलोजी-बाटनी और चरकशास्त्र की असंख्य सामाग्रियाँ हैं। हम आगे बढ़े जा रहे हैं। सड़क अपने रूप से गुदगुदा कर कहीं-कहीं हँसाती है तो कहीं-कहीं डराती भी है, रुलाती भी है। रूप में विविधता है। चाल में सर्पिली है। ऊँचाई पर चढ़ते-उतरते समय कोई मान की हुई नखरीली गोरी लगती है। आगे छोटे-छोटे पत्थरों से भरा ट्राली पलटा था। यहाँ अवैध रूप से पत्थर उत्खनन का काम बड़े पैमाने पर होता है। हम एक साथ अनेक रसों की अनुभूति कर रहे थे कि जंगल से निकलकर एकाएक कई लोग सड़क पर आ गए। हमें डर हुआ कि कहीं डाकुओं का समूह तो नहीं! पता चला कि नीचे एक गड्ढा है, जिसका पानी उतर रहा है। ये लोग उसी में मछली पकड़ रहे थे। 

यहाँ की औरतें घर के कामों के साथ-साथ सूखी लकडि़याँ बटोरती हैं। बच्चे पढ़ाई कम, बकरियाँ अधिक चराते हैं। यहाँ संयुक्त परिवार बड़ी सफलता से संचालित होता है। बहुत अंतराल से शिक्षा से कोसों दूर रहे ये लोग अब बड़ी बेचैनी से जूड़ गए हैं।
कुछ दूर खुली जगह, फिर मोड़ और अब आ गया वाल्मीकि नगर। सामने अद्भुत नजारा है। नीचे पूर्वी गंडक नहर का हरा पानी, जो कुछ दूरी पर जाकर 15 मेगावाट के विद्युत परियोजना को जन्म देती है। सामने जंगल का वहीं गर्वीला स्वरूप, जिसे हम मदनपुर से आत्मसात् करते आ रहे हैं। ऊपर नीला-धुला आसमान। नहर के एक ओर साखो-सागौन और दूसरी ओर खिलखिलाते गुलमोहर की हरियाली। आगे एक गोल-चौक है, जहाँ ढाई मीटर ऊँचा एक स्तंभ है। इसे देखकर यहाँ से 55-60 किलोमीटर पूरब में स्थित लौरिया के अशोक स्तंभ की याद आ जाती है। उसकी प्रमाणिकता है, पर इसकी नहीं। सैनिक छावनियों को पार करके हम सदानीरा गंडक के किनारे थे। नहीं-नहीं, कुछ पल भ्रम में रहे। आँखें देख रही थीं। मन नहीं मान रहा था। लगता था कि हम किसी और लोक में आ गए हैं। पीछे एक पुराना  गेस्ट-हाउस है। उजड़ा सा। इस समय बड़ी बारीकी से उसके मरम्मत का काम चल रहा है।

अब हम गंडक के कछार पर खड़े हैं लेकिन वह हमसे 7-8 मीटर नीचे बह रही है। इस पिकनिक-स्पॉट को कभी खुब विकसित किया गया था, अवशेष इस बात को स्पष्ट करते हैं। कितना सौंदर्य है यहाँ! मन करता है कि सबको अपने में समेट लूँ। आँखें इस रूप को पी लेने के लिए बेचैन हैं। पैर नाचने को बावले हैं। पीछे विराट कानन-प्रदेश, सामने हिमालय शृंखला की सबसे नीचली हरी-भरी पहाडि़याँ, नीचे कलकल करती गंडक और ऊपर ललचता-सा नीला आकाश। प्रसन्नता की इन लहरों में एक टीस मन को सालता है कि प्रकृति का यह अनुपम सौंदर्य और शैलानियों के नाम पर केवल हम सात! क्या कारण है कि इस अभ्यारण्य में एक अपरिचित  भय से मन सहमा रहता है? क्यों कभी कोई वादी तो कभी कोई सलाम जैसे शब्द डराते रहते हैं?
हम बहुत देर तक बैठ कर प्रकृति के इस रूप से आँखें चार करते रहे। अब हमारी जीप विदेशी कहलाने को आतुर हो उठी। भैंसालोटन बैराज हमें नेपाल कब पहुँचा दिया, पता ही नहीं चला। हम इंडो-नेपाल सीमा पार कर गए। 4 दिसम्बर 1959 को नेपाल की महारानी और भारत सरकार द्वारा जल वितरण के लिए हुए समझौते के फलस्वरूप भैंसालोटन बैराज का अस्तित्व सार्वजनिक यातायात के रूप में सामने आया। यहाँ से मुख्य गंडक नहर, पूर्वी गंडक नहर एवं पश्चिमी नेपाल नहर निकलती है। अब हम त्रिवेणी में हैं। हिंदुओं का धार्मिक स्थल! त्रिवेणी नेपाल के नवलपरासी जिले का एक छोटा-सा बाजार है। गंडक के किनारे चलती सड़क एक दो बार नाचती सी लगती है। दाएँ असीम जलराशि वाली गंडक का स्वरूप, बाएँ छोटी-छोटी झोपडि़यों में तली मछली और बोतलबंद दारु के साथ मुरी-चिउड़ा की दुकान। दुकान की सुन्दरता के नाम पर उसकी विक्रेता नेपाली स्त्रियाँ, लड़कियाँ और पीछे हरियाली में नहाई पहाडि़याँ। ये है त्रिवेणी ! छोटा बाजार। छोटी-छोटी मल्टी-परपज दुकानें। एक ही दुकान में सबकुछ। चाय-नाश्ते के दुकान में ही तली मछली और बोतलबंद दारु के साथ मुरी-चिउड़ा और शीतल पेय। हम मित्रों ने आपस में किसी पर कोई बंधन नहीं लगाया। छककर आनंद उठाया। अब हम वहाँ गए, जहाँ मेला लगता है। यहाँ मकर-संक्रांति के दिन पवित्र स्नान-मेला लगता है। नदी में उतरने के लिए सीढि़याँ बनी हैं। किनारे छोटे-बड़े कई मंदिर हैं और सघन छाया युक्त एक विशाल वट-वृक्ष भी है। नदी में छोटी-छोटी नौकाएँ देखकर हम दौड़ पड़े। हमने नौका-विहार का आनंद लिया। ‘शैकत-शैय्या’ वाली ‘तनवंगी गंगा’ में नहीं, कंठ तक भरी गंडक में।

आगे जाने पर गज-ग्राह का युद्ध स्थल है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार विष्णु के भक्त गज और ग्राह के बीच यही सं युद्ध प्रारंभ हुआ था। कितना रमणीय है यह सौंदर्य-प्रदेश! गंडक से तर इस क्षेत्र की असीम रूप-राशि से जहाँ मैं आनंदित हो रहा था, वहीं मौन होने लगा। जैसे शब्द मर गए या ध्वनि लकवाग्रस्त हो गई। आह्लाद में पीड़ा का क्या काम? परन्तु बावरा मन माने तब तो! वह तो भटकने लगा। यह क्षेत्र केवल अपने रूप में ही आकर्षण नहीं रखता है, इसके अतीत में भी आकर्षण है। . . . इसी प्रांतर ने रत्नाकर को वाल्मीकि बना दिया। सीता माँ ने अपने जीवन के मातृत्व काल को यहीं व्यतीत किया। लव-कुश इसी गंडक में स्नान किए होंगे। महाभारत के 20वें अध्याय में कृष्ण ने भी शायद इसी गंडकी-प्रदेश का वर्णन किया है। सम्राट अशोक को भी इस क्षेत्र का ज्ञान था। ‘नंद वंश’ का नंदनगढ़ इसी तराई प्रदेश में है। बापू और बा इस मिट्टी को छू चुके हैं। नेहरू की आँखें इस सौंदर्य को पी चुकी हैं। फिर किस अप्रत्क्ष कारण ने शैलानियों को नहीं आकर्षित किया? शैलानियों को इस रूप से डर क्यों लगता है? . . . ये प्रश्न मेरे मन को मथ देते हैं।
त्रिवेणी में तीन अलग-अलग नदियाँ गंडक, पंचनद तथा सोनहा का मिलन होता है। इनमें गंडक या गंडकी या नारायनी मुख्य नदी है। इतना ही नहीं, यहाँ तीन राजनैतिक सीमा रेखाएँ भी मिलती हैं। - एक ओर से नेपाल की, दूसरी ओर से पश्चिमी चम्पारण (बिहार) की और पश्चिम से जाओ तो उत्तर-प्रदेश के महराजगंज की सीमा भी गलबाँही करती है। जंगल, नदी और पहाड़ जैसी तीन प्राकृतिक रचनाएँ भी दृष्टिगत होती हैं। यहाँ पुल, फूल और कंद-मूल का भी आनंद मिलता है। यहाँ मन, मस्तिष्क और तन को आराम मिलता है। यहाँ भौतिक रूप से सामान्य जीवन, राजनैतिक शिथिलता और सामाजिक चुप्पी है। चर्चा से दूर रहकर भी नैसर्गिक सुख का यह दृष्टांत उपेक्षा से आहत नहीं है। बिहार सरकार सड़कों का जीर्णोंद्धार करा रही है। उत्तर-प्रदेश ने ध्यान देना तेज कर दिया है। गेस्ट-हाउस चमकने लगा है। सीमा सुरक्षा बल की मौजुदगी बढ़ने लगी है। लग रहा है कि तीन सीमा रेखाओं का यह सौंदर्य सबके दिलों में उतरने को व्याकुल है। 
भ्रमण की उत्कंठा जो मेरे मन में रहती थी, यहाँ आने पर और बढ़ गई। प्रकृति की चित्रकारियाँ मुझे और बुलावा भेजने लगीं। मैं कहीं भी जाता हूँ, पहली नजर में वहाँ त्रिवेणी को ढूढता हूँ। अब मैं बार-बार त्रिवेणी जाने लगा हूँ। छूने लगा हूँ। पूछने लगा हूँ, - ‘त्रिवेणी, अब कैसी हो?’
जैसे ममता भरी हाथों को मेरे माथे पर फेरती त्रिवेणी कहती है, - ‘ऐसे ही आते रहो, मेरा हाल अच्छा तो होता ही जाएगा।’
त्रिवेणी के सौंदर्य पर अब अक्सर सोचता हूँ कि जब प्रकृति में जीता मनुष्य अपने रूप-प्रदर्शन के लिए इतना उत्कंठित रहता है, तब प्रकृति क्यों नहीं? . . . नदी किनारे घूमते-घूमते हम भी पत्थरों की भीड़ में एक-दो शालिग्राम पत्थर पा ही गए। मैंने कुछ अन्य रोचक आकृति वाले पत्थरों को भी बैग मे रखा। मन सौंदर्य से अघाया तथा परिस्थितियों से व्यथित था। हम जीते भी थे, हारे भी थे। सूर्य की टहक कम होते-होते हमारी जीप भी घर की ओर दौड़ पड़ी।     
                                                     -------------------------

No comments:

Post a Comment