मेरा सहकर्मी विनोद, है तो सामान्य चेतना वाला, लेकिन किसी भी बात में अपनी चतुराई अवश्य प्रस्तुत करता है। फँस जाने पर तुरंत रटे-रटाए वाक्य बोलता,- 'अच्छा-अच्छा, -- मैं समझ नहीं पाया।,
सबके गले से एक दबी हँसी निकलती और मामला शांत। कुछ पल बाद वह अपने सीट से उठता और वाशरूम की ओर चला जाता। कई दिन बाद मुझे पता चला कि वह वाशरूम नहीं जाता, - - वाशरूम के पास वाली विंडो पर खड़ा होकर बाहर कुछ देखता है। एक बार मुझे लगा कि सभी विनोद का मज़ाक उड़ाते हैं। उसे बुरा लगता है इसलिए विंडो पर अपना मूड ठीक करता है। मैं संवेदना व्यक्त करने गया मगर छेड़ा, - 'क्या हो रहा है? - - - किसे ताड़ रहे हो भाई?'
'सामने देखो ना!'
'अच्छा तो तुम लड़की ताड़ने के लिए खड़े होते हो यहाँ? - - और ओ भी उस साँवली लड़की को?'
'साँवली है तो क्या हुआ, - - सुन्दरता भी तो देखो उसकी?'
जब मैं विनोद की नज़रों से देखना चाहा तो पाया कि सच में वह सुन्दर थी। साँवली-सलोनी।
विनोद ने आगे बताया कि वह माँ भी बनने वाली है। उसके पेट के उभार को भी दिखाया।
मैं तो कभी-कभी विनोद को छेड़ने के लिए जाता और उस औरत को देखकर चुप हो जाता। कभी-कभी उसके झुग्गी के सामने रिक्शा देखकर कह सकते हैं कि शायद उसका पति रिक्शा चलता था। विनोद जब उधर देखता रहता तो उसके चेहरे पर एक अद्भुत प्रसन्नता झलकने लगती।
एक दिन विनोद बहुत उदास था। उस रोज़ वह बार-बार खिड़की पर जाता और आँख पोंछने लगता। मैंने देखा कि वह रो रहा था। मैं डरकर उस औरत को देखना चाहा। उसके झुग्गी के पास औरतों की भीड़ थी। बच्चे उछल-कूद कर रहे थे। मुझे तो कहीं से भी रोने वाली कोई बात नज़र नहीं आई, क्योंकि एक नवजात की रूलाई भी सुनाई दे रही थी। विनोद से पूछा तो अपनी चढ़ी सांसों को रोकते हुए बोला, - 'यार ये ग़रीबी क्यों बनाया ऊपर वाले ने? - - देखो ये बेचारे रोटी के लिए रिक्शा चलाते हैं। तपती गर्मी में भी इस टीन के छप्पर के नीचे गुज़ारा करते हैं और उसकी बीवी बेचारी प्रसव से चिल्लाती रही, तड़पती रही मगर हॉस्पिटल नहीं ले गया। - - बच्चा यहीं हो गया। - - यार ये भी कोई बात हुई। - - - -'
पता नहीं विनोद आगे क्या-क्या कहता रहा, मगर मुझे लगा कि विनोद सामान्य चेतना वाला नहीं है। यह तो कोई विलक्षण व्यक्ति ही सोच सकता है।
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- केशव मोहन पाण्डेय
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