दृग में स्वप्न -
अनोखे कल का,
अनुभूति तेरे बल का,
कल की बातें थीं।
उम्मीद के लौ की ज्योति
उत्साहों के पथ की गति
कल की बातें थीं।
छूछे आदर्शों का मकड़जाल
कर्तव्यों का महा-व्याल
हर पथ पर
हर कदम पर
मुँह बाये खड़ा है,
मैं तो
पहले नहीं समझ पाया था कि
जीवन में
तेरे-मेरे जैसे लोगों के लिए
सफलताएँ छोटी
और संघर्ष ही बड़ा है।
चल, ताल ठोंककर
मेरा साथ तो दो,
विश्वास न सही
केवल हाथ तो दो,
इस ‘अपनों’ की
बनावटी दुनिया में
‘कोई अपना तो है!’
इसी उम्मीद से जी लूँगा,
नहीं मिली मंजिल तो क्या?
दुःख-सुख की सीढ़ियाँ चढ़ता
संघर्षों का विष पी लूँगा।।
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– केशव मोहन पाण्डेय
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