Mar 2, 2013

हो न हो! (कविता)


तुम कहाँ और मैं कहाँ
अब ज़िन्दगी के दरम्याँ
तुमसे वैसी मुलाकात हो न हो!

धड़कने चलती रहें,
दर्द सब हँसकर सहें
सर्द शबनम ओढ़कर
पागल पवन बनकर बहें,
मैं यहीं लिखा करूँगा-
कदम-कदम सीखा करूँगा-
तुम्हारे दिल में ज़ज्बात हो न हो!

पटरियाँ मिलती कहाँ हैं रेल की
हश्र यहीं होना था तेरे खेल की
कब माने? कब लौटे मेरे राह पर
पूजा करता रहा उस मेल की,
तुम ठहर गए मेरे साथ जो,
मान गए सारी बात को,
सरफिरी फिर वह रात हो न हो!

तेरे लिए जो गेम है
मेरा वही सच्चा प्रेम है
अंधड़ का कण समझते जिसे
इश्क अनोखा जेम है।
यह समय का परिहास है,
जय का मुझे विश्वास है,
फिर तुम्हें मेरा विश्वास हो न हो।।
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                      - केशव मोहन पाण्डेय

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