शहर में आकर मैंने यहीं पाया है कि कमाने के लिए महेनत बहुत मायने रखता है। कमाता हूँ तो यह मायने नहीं रखता कि अपने लोग नहीं हैं, अपना घर नहीं है। अपनी और अपने से जुड़े औरों की इच्छाएँ तो पूरी होती है। मैं इसी सोच के साथ दिन-रात मेहनत करता हूँ और समय पर सारे बिल भी पे कर देता हूँ।
आज दो दिन देर होने पर मेरे मकान-मालिक ने कहा - 'भाई साहब! - - इस बार सैलरी नहीं आई क्या?'
आज दो दिन देर होने पर मेरे मकान-मालिक ने कहा - 'भाई साहब! - - इस बार सैलरी नहीं आई क्या?'
अब मेरे समझ में आ गया कि सचमुच मेरे पास अपना घर नहीं है, अपने लोग नहीं हैं।
---------------------------
- केशव मोहन पाण्डेय
No comments:
Post a Comment