Mar 4, 2013


                                                                              
                                                             चित्र : गूगल 
मैं मशीन हूँ
                                                                 
होता होगा अलसाया 
गर्व और बनावटीपन भरा 
ऐश्वर्य और विलासिता भरा 
अपनी मर्ज़ी से चलता 
शहरों का जीवन!
मैंने तो नहीं पाया 
मैंने तो अपने को भी 
नहीं पाया कि कभी 
उगते सूरज के बाद 
चिड़ियों के रियाज़ करने के बाद 
अख़बार वाले के चले जाने पर 
बिस्तर छोड़ा होऊँ,
(इतवार को छोड़ कर।)
मैं और फुर्तीला 
समय का पाबंद 
और गतिशील हो गया हूँ 
शहर में आकर।
मैं और परिश्रमी,
कर्मयोगी 
और सहनशील हो गया हूँ 
शहर में अपना वक़्त बिताकर।
सुबह उठकर 
पढ़ना पड़ता है अखबार को 
आते-आते सूरज की लाली 
छोड़ना ही पड़ता है 
अपने तथाकथित घर-बार को 
और जाना ही पड़ता है काम पर 
रेंट, रोटी और रोजगार के लिए।
यह अलग बात है 
कि सुबह उठकर भी 
प्रकृति की सुन्दरता का 
मौसम के अल्हड़ता का 
पंछियों की जुगाली का 
फसलों की हरियाली का 
मैं जी भर निरख नहीं सकता।
ऐसा नहीं कि रसहीन हूँ 
कुछ भी नहीं होने पर भी 
नंगे बिस्तर 
या टूटी खाट में सोने पर भी 
कल तक तो आदमी था 
सब कुछ पाकर 
आज मैं मशीन हूँ। 
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                                          - केशव मोहन पाण्डेय 

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