Mar 18, 2013
Mar 15, 2013
संस्कार (लघुकथा)
नंदिता एक छोटे से नगर से आयी हुई लड़की है। जब मेरी नज़र उस पर गई तो सोचने लगा कि 'इनके माँ-बाप इन्हें शहर क्यों भेजते हैं? यहाँ आते ही लड़कियाँ कैसी हो जाती है? - - एकदम निर्बंध! तब इनके लिए सभ्यता-संस्कार का मायने ही बदल जाता है।'
अब नंदिता को ही देखिए! - - वहाँ के एक प्रतिष्ठित अध्यापक की बेटी। जो पढ़ने के अतिरिक्त घर से शायद ही कभी निकलती हो। - -यहाँ शहर में आ कर बी-टेक कर रही है। लड़कों के हाफ-पैंट से भी छोटा उसका कैज़ुअल-ड्रेस है। कॉलेज से निकलते ही शाम तक दोस्तों के साथ पार्क-मॉल और न जाने कहाँ-कहाँ घूमना, कभी-कभी बिअर का एक-दो पैग ले लेना तो अब उसकी जीवन-शैली हो गई है। अब वह नंदी के नाम से पुकारी जाती है।
नंदिता के विषय में एक बात जानकर तो मैं दंग रह गया। - - - उसके एक दोस्त का एक्सीडेंट हो गया था। चार दिन से हॉस्पिटल में एडमिट था। उसके मम्मी-पापा ही हॉस्पिटल में रहते थे। दूसरा कोई था नहीं। जब नंदिता को पता चला तो रात-भर हॉस्पिटल में रहने के लिए जा रही थी। सोचा उसके मम्मी-पापा घर जाकर थोड़ा आराम कर लेंगे। नंदिता ने अपने कई दोस्तों से भी कहा। कोई तैयार नहीं हुआ। - 'फिफ्थ सेम का एग्जाम आ रहा है। माँ-बाप यहाँ पढ़ने ने लिए भेजते है। यार हममे इतनी तो संस्कार है हीं कि अपने माँ-बाप के सपनों का ख्याल रखें! - - हम यहाँ रिश्तेदारी निभाने थोड़े ही आये हैं!'
नंदिता ने फिर किसी से कुछ नहीं कहा। अपना कुछ नोट्स अपने पर्स में रखी और हॉस्पिटल के लिए ऑटो पकड़ ली।
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- केशव मोहन पाण्डेय
समझ (लघुकथा)
आज रवीश की शादी का ग्यारहवाँ वर्षगाँठ है। पति-पत्नी अपने दोनों बच्चों के साथ दिल्ली में रहते है। बच्चे एक अच्छे स्कूल में अध्ययन कर रहे है। रवीश की नौकरी भी अच्छी चल रही है। वह चाहता है कि वीणा भी नौकरी करे। वह हमेशा हिम्मत देता रहता है। कई बार तो दोनों में बहस भी होने लगती है। चर्चा, बहस, झगड़ा और फिर वही सब कुछ! - - हर दम्पति-जीवन की लीला।
शादी के वर्षगाँठ की चाय पार्टी पर आये अतिथियों के सामने भी चर्चा शुरू हुई, मगर मोबाइल के रिंग ने आगे नहीं बढ़ने दिया। दोनों पहले फ़ोन उठाना चाहते थे। दोनों को लगा कि उनके पैरेंट्स का फ़ोन है। उठाया रवीश ने। फ़ोन पर कोई और ही था। - - था नहीं, - -थी। - - -रवीश की ग्यारह साल पहले की प्रेमिका।
रवीश ने बातें तो हँसकर की, मगर दिल जैसे दलदल में धँस गया। बातों से ही पता चला कि रवीश का नम्बर उसे इन्टरनेट से मिला है। आज के समय में यह इन्टरनेट नहीं, भगवान हो गया है। सबकुछ संभव है यहाँ!
रवीश के लिए तो पार्टी का मज़ा ही किरकिरा हो गया। सुबह उठाते ही रवीश ने अपना नम्बर चेंज कर दिया और आकर डरते-डरते वीणा को बाँहों में भरते हुए कहा, - 'तुम मेरा आज हो, कल भी तुम ही रहोगी। - - मैं पास्ट याद नहीं रखना चाहता वीणा।'
'बीती बातें मन में एक आयास चलती हवा जैसी होती हैं। जब मन किया, शीतलता दे दिया, जब मन किया - धूल, रेत और न जाने क्या कुछ! - - इसका मतलब यह कत्तई नहीं की समय के साथ जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए आगे न बढ़ा जाय।' - वीणा ने चाय की प्याली रवीश की ओर बढ़ाते हुए कहा।
रवीश भी सोचने लगा - सच ही तो है! - - जिस तरुण के हृदय में प्रीत की कलि न खिली, उसकी तरुणाई कैसी? जिस युवा के आँखों में स्नेह-सिक्त संसार का सृजन न हुआ, उसका यौवन कैसा? इसका मतलब यह तो नहीं कि आज भी मैं वही रहूँ!
दोनों की समझ ने जीवन को और आकर्षक बना दिया।
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- केशव मोहन पाण्डेय
Mar 14, 2013
संघर्षों का विष (कविता)
दृग में स्वप्न -
अनोखे कल का,
अनुभूति तेरे बल का,
कल की बातें थीं।
उम्मीद के लौ की ज्योति
उत्साहों के पथ की गति
कल की बातें थीं।
छूछे आदर्शों का मकड़जाल
कर्तव्यों का महा-व्याल
हर पथ पर
हर कदम पर
मुँह बाये खड़ा है,
मैं तो
पहले नहीं समझ पाया था कि
जीवन में
तेरे-मेरे जैसे लोगों के लिए
सफलताएँ छोटी
और संघर्ष ही बड़ा है।
चल, ताल ठोंककर
मेरा साथ तो दो,
विश्वास न सही
केवल हाथ तो दो,
इस ‘अपनों’ की
बनावटी दुनिया में
‘कोई अपना तो है!’
इसी उम्मीद से जी लूँगा,
नहीं मिली मंजिल तो क्या?
दुःख-सुख की सीढ़ियाँ चढ़ता
संघर्षों का विष पी लूँगा।।
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– केशव मोहन पाण्डेय
Mar 13, 2013
संस्कार (लघुकथा)
नंदिता एक छोटे से नगर से आयी हुई लड़की है। जब मेरी नज़र उस पर गई तो सोचने लगा कि 'इनके माँ-बाप इन्हें शहर क्यों भेजते हैं? यहाँ आते ही लड़कियाँ कैसी हो जाती है? - - एकदम निर्बंध! तब इनके लिए सभ्यता-संस्कार का मायने ही बदल जाता है।'
अब नंदिता को ही देखिए! - - वहाँ के एक प्रतिष्ठित अध्यापक की बेटी। जो पढ़ने के अतिरिक्त घर से शायद ही कभी निकलती हो। - -यहाँ शहर में आ कर बी-टेक कर रही है। लड़कों के हाफ-पैंट से भी छोटा उसका कैज़ुअल-ड्रेस है। कॉलेज से निकलते ही शाम तक दोस्तों के साथ पार्क-मॉल और न जाने कहाँ-कहाँ घूमना, कभी-कभी बिअर का एक-दो पैग ले लेना तो अब उसकी जीवन-शैली हो गई है। अब वह नंदी के नाम से पुकारी जाती है।
नंदिता के विषय में एक बात जानकर तो मैं दंग रह गया। - - - उसके एक दोस्त का एक्सीडेंट हो गया था। चार दिन से हॉस्पिटल में एडमिट था। उसके मम्मी-पापा ही हॉस्पिटल में रहते थे। दूसरा कोई था नहीं। जब नंदिता को पता चला तो रात-भर हॉस्पिटल में रहने के लिए जा रही थी। सोचा उसके मम्मी-पापा घर जाकर थोड़ा आराम कर लेंगे। नंदिता ने अपने कई दोस्तों से भी कहा। कोई तैयार नहीं हुआ। - 'फिफ्थ सेम का एग्जाम आ रहा है। माँ-बाप यहाँ पढ़ने ने लिए भेजते है। यार हममे इतनी तो संस्कार है हीं कि अपने माँ-बाप के सपनों का ख्याल रखें! - - हम यहाँ रिश्तेदारी निभाने थोड़े ही आये हैं!'
उसने ने फिर किसी से कुछ नहीं कहा। अपना कुछ नोट्स अपने पर्स में रखी और हॉस्पिटल के लिए ऑटो पकड़ ली।
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- केशव मोहन पाण्डेय
Mar 5, 2013
अपना (लघुकथा)
शहर में आकर मैंने यहीं पाया है कि कमाने के लिए महेनत बहुत मायने रखता है। कमाता हूँ तो यह मायने नहीं रखता कि अपने लोग नहीं हैं, अपना घर नहीं है। अपनी और अपने से जुड़े औरों की इच्छाएँ तो पूरी होती है। मैं इसी सोच के साथ दिन-रात मेहनत करता हूँ और समय पर सारे बिल भी पे कर देता हूँ।
आज दो दिन देर होने पर मेरे मकान-मालिक ने कहा - 'भाई साहब! - - इस बार सैलरी नहीं आई क्या?'
आज दो दिन देर होने पर मेरे मकान-मालिक ने कहा - 'भाई साहब! - - इस बार सैलरी नहीं आई क्या?'
अब मेरे समझ में आ गया कि सचमुच मेरे पास अपना घर नहीं है, अपने लोग नहीं हैं।
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- केशव मोहन पाण्डेय
मेरा सहकर्मी विनोद, है तो सामान्य चेतना वाला, लेकिन किसी भी बात में अपनी चतुराई अवश्य प्रस्तुत करता है। फँस जाने पर तुरंत रटे-रटाए वाक्य बोलता,- 'अच्छा-अच्छा, -- मैं समझ नहीं पाया।,
सबके गले से एक दबी हँसी निकलती और मामला शांत। कुछ पल बाद वह अपने सीट से उठता और वाशरूम की ओर चला जाता। कई दिन बाद मुझे पता चला कि वह वाशरूम नहीं जाता, - - वाशरूम के पास वाली विंडो पर खड़ा होकर बाहर कुछ देखता है। एक बार मुझे लगा कि सभी विनोद का मज़ाक उड़ाते हैं। उसे बुरा लगता है इसलिए विंडो पर अपना मूड ठीक करता है। मैं संवेदना व्यक्त करने गया मगर छेड़ा, - 'क्या हो रहा है? - - - किसे ताड़ रहे हो भाई?'
'सामने देखो ना!'
'अच्छा तो तुम लड़की ताड़ने के लिए खड़े होते हो यहाँ? - - और ओ भी उस साँवली लड़की को?'
'साँवली है तो क्या हुआ, - - सुन्दरता भी तो देखो उसकी?'
जब मैं विनोद की नज़रों से देखना चाहा तो पाया कि सच में वह सुन्दर थी। साँवली-सलोनी।
विनोद ने आगे बताया कि वह माँ भी बनने वाली है। उसके पेट के उभार को भी दिखाया।
मैं तो कभी-कभी विनोद को छेड़ने के लिए जाता और उस औरत को देखकर चुप हो जाता। कभी-कभी उसके झुग्गी के सामने रिक्शा देखकर कह सकते हैं कि शायद उसका पति रिक्शा चलता था। विनोद जब उधर देखता रहता तो उसके चेहरे पर एक अद्भुत प्रसन्नता झलकने लगती।
एक दिन विनोद बहुत उदास था। उस रोज़ वह बार-बार खिड़की पर जाता और आँख पोंछने लगता। मैंने देखा कि वह रो रहा था। मैं डरकर उस औरत को देखना चाहा। उसके झुग्गी के पास औरतों की भीड़ थी। बच्चे उछल-कूद कर रहे थे। मुझे तो कहीं से भी रोने वाली कोई बात नज़र नहीं आई, क्योंकि एक नवजात की रूलाई भी सुनाई दे रही थी। विनोद से पूछा तो अपनी चढ़ी सांसों को रोकते हुए बोला, - 'यार ये ग़रीबी क्यों बनाया ऊपर वाले ने? - - देखो ये बेचारे रोटी के लिए रिक्शा चलाते हैं। तपती गर्मी में भी इस टीन के छप्पर के नीचे गुज़ारा करते हैं और उसकी बीवी बेचारी प्रसव से चिल्लाती रही, तड़पती रही मगर हॉस्पिटल नहीं ले गया। - - बच्चा यहीं हो गया। - - यार ये भी कोई बात हुई। - - - -'
पता नहीं विनोद आगे क्या-क्या कहता रहा, मगर मुझे लगा कि विनोद सामान्य चेतना वाला नहीं है। यह तो कोई विलक्षण व्यक्ति ही सोच सकता है।
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- केशव मोहन पाण्डेय
सत्य
चित्र : गूगल
तंत्री-नाद
और कवित्त-रस
मुझे बहुत पसंद हैं।
कनेर के फूलों पर मडराती
काली, नीली और सतरंगी पक्षी
और उछल-उछल कर
मस्ती करती सोन चिरैया भी।
मैं बहुत चाहता हूँ
नदी किनारे
उगते सूरज के साथ
डूबते सँझा के बीच
नाव चलाना,
डूबकी लगाना,
खूब नहाना,
रोटी खाना,
सत्य सजाना
अपने जीवन की राहों में।
पर कहाँ कर पाता हूँ सब?
प्रकृति का मौन निमंत्रण
कहाँ पढ़ पाता हूँ।
जरूरतें भटका देती हैं
बीच में ही,
नया रास्ता कहाँ गढ़ पाता हूँ?
अब तो
एक ही बात समझ में आती है -
'केवल पैसा ही सत्य है'
उसके बिना
जीवन मिथ्या हो-ना-हो
रिश्ते-नाते बेकार हो जाते हैं,
सब कुछ रहते हुए भी
हम
घुघनी खाए
तथा कुत्ते द्वारा नोचे हुए
बिना काम के
रद्दी अखबार हो जाते हैं।।
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- केशव मोहन पाण्डेय
Mar 4, 2013
चित्र : गूगल
मैं मशीन हूँ
होता होगा अलसाया
गर्व और बनावटीपन भरा
ऐश्वर्य और विलासिता भरा
अपनी मर्ज़ी से चलता
शहरों का जीवन!
मैंने तो नहीं पाया
मैंने तो अपने को भी
नहीं पाया कि कभी
उगते सूरज के बाद
चिड़ियों के रियाज़ करने के बाद
अख़बार वाले के चले जाने पर
बिस्तर छोड़ा होऊँ,
(इतवार को छोड़ कर।)
मैं और फुर्तीला
समय का पाबंद
और गतिशील हो गया हूँ
शहर में आकर।
मैं और परिश्रमी,
कर्मयोगी
और सहनशील हो गया हूँ
शहर में अपना वक़्त बिताकर।
सुबह उठकर
पढ़ना पड़ता है अखबार को
आते-आते सूरज की लाली
छोड़ना ही पड़ता है
अपने तथाकथित घर-बार को
और जाना ही पड़ता है काम पर
रेंट, रोटी और रोजगार के लिए।
यह अलग बात है
कि सुबह उठकर भी
प्रकृति की सुन्दरता का
मौसम के अल्हड़ता का
पंछियों की जुगाली का
फसलों की हरियाली का
मैं जी भर निरख नहीं सकता।
ऐसा नहीं कि रसहीन हूँ
कुछ भी नहीं होने पर भी
नंगे बिस्तर
या टूटी खाट में सोने पर भी
कल तक तो आदमी था
सब कुछ पाकर
आज मैं मशीन हूँ।
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- केशव मोहन पाण्डेय
Mar 2, 2013
हो न हो! (कविता)
तुम कहाँ और मैं कहाँ
अब ज़िन्दगी के दरम्याँतुमसे वैसी मुलाकात हो न हो!
धड़कने चलती रहें,
दर्द सब हँसकर सहें
सर्द शबनम ओढ़कर
पागल पवन बनकर बहें,
मैं यहीं लिखा करूँगा-
कदम-कदम सीखा करूँगा-
तुम्हारे दिल में ज़ज्बात हो न हो!
पटरियाँ मिलती कहाँ हैं रेल की
हश्र यहीं होना था तेरे खेल की
कब माने? कब लौटे मेरे राह पर
पूजा करता रहा उस मेल की,
तुम ठहर गए मेरे साथ जो,
मान गए सारी बात को,
सरफिरी फिर वह रात हो न हो!
तेरे लिए जो गेम है
मेरा वही सच्चा प्रेम है
अंधड़ का कण समझते जिसे
इश्क अनोखा जेम है।
यह समय का परिहास है,
जय का मुझे विश्वास है,
फिर तुम्हें मेरा विश्वास हो न हो।।
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- केशव मोहन पाण्डेय
Mar 1, 2013
किस्तों पर गुज़ारा (कविता)
चित्र : गूगल
रोटी के लिए ही नहीं,
केवल कपड़े के लिए ही नहीं
और ना ही सिर्फ मकान के लिए,
और ना ही सिर्फ मकान के लिए,
हम भटकते हैं आज
जीवन का मोह छोड़ कर
आज के
जीने के साज-ओ-समान के लिए।
क़िस्त-दर-क़िस्त
दौलत की चाह में
कई बार तो
अस्मत, सम्मान
और आदमी होने के प्रति भी
बेपरवाह हो जाते,
गाँव से आकर,
अपनत्व भुलाकर,
शहरी होने का भ्रम पाले
जीवन से ही
गुमराह हो जाते हैं।
खून के रिश्तों से दूर होकर
बड़ी सिद्दत से
निभाने लगते हैं -
व्यावसायिक रिश्तों को,
होम लोन,
क्रेडिट कार्ड्स,
और विलासिता के सामानों का,
उलझे रहते हैं
भरने में किस्तों को।
वहाँ तो एक उधार को
कई बार टाल दिया जाता था,
और जो पुनः जाकर
उधार ही खाया जाता था,
वहीं मैं!
आज नज़दीक आते ही
ई. एम. आई. की तारीख,
धरती-आसमान एक कर देता हूँ
बैंक-अकाउंट मैनेज करने के लिए,
वहाँ एक रिश्ते से
सौ झूठ बोला जाता था,
यहाँ सौ व्यावसाय में भी
एक वे ही याद आते हैं
क़िस्त भरने के लिए।
अब शाम
पहाड़-सी भारी होकर सोती है
सुबह
उलझी किस्तों में जगती है,
प्यारे नाते सूखे नल,
पानी टैंक से मँगाकर
बीवी
अरमानों के कपड़े डूबोती है।
फिर भी जीवन प्यारा है।
वहाँ
रिश्तों पर असंभव था,
यहाँ
किस्तों पर ही गुज़ारा है।
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- केशव मोहन पाण्डेय
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