माँ! तब मैं बच्चा था
जब तुम गोद में लेकर
सुनाती थी लोरी
माँगती थी चंदा मामा से
दूध भरी कटोरी
और पिलाती थी
अक्षय-कोष से अमृत।
कई दशक हो गए
गुज़रे उस समय को,
आज मैं हो गया हूँ बड़ा
तुम हो गई हो बूढी और अक्षम
चलने में, खाने में
और खाना पकाने में भी।
तब मैं निभाता
कई भूमिका एक साथ-
बन जाता मैं बेटी
जब जलती हैं मुझसे
आड़ी-तिरछी रोटियाँ।
बन जाता पुनः नन्हा बेटा
जब खोजता हूँ चारपाई के नीचे
तेरी भूली हुई चप्पल।
जब तुम्हारे हिलते हाथ को
देता हूँ सहारा
तब छलक पड़ता है
तेरे आँख से सागर,
कंधे पर रख देती हो हाथ
बचपन की एक सहेली सी।
अब,
जबकि नहीं बुलाती तुम चंदा मामा
तुम्हें उठाकर गोद में
ले जाते वक़्त यहाँ से वहाँ
अब मैं निभाता हूँ
एक पिता की भूमिका,
और तुम ढूंढती हो मुझमें
न जाने क्या कुछ?
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- केशव मोहन पाण्डेय
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