Feb 27, 2013

शिक्षण के समय 

Feb 25, 2013

    
बस मुड़ गई (कहानी)


         आँख खुली तो खिड़की से देखा, सड़क के दोनों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ, उलझे-सुलझे नाले, छोटी-बड़ी झाड़ियाँ। झाड़ियों में खिले रंग-विरंगे फूल, मानो प्रकृति रानी के वस्त्र के बेल-बूटे हों। झाड़ियों के नीचे नालों में उछलता-कूदता पानी अपनी मस्ती में मग्न था। उछलते पानी पर सूर्य की पहली किरण आकर वियोग के बाद का प्यार बरसा रही थी।
          मेरे लिए यह दृश्य पहला था। घूमने का अनुभव पहला था। घूमता तो रहता हूँ, पर इस रूप में पहली बार निकला था। इतनी लम्बी यात्रा पहली थी। शायद इसलिए मुझे यह सब स्वर्गिक सुख सा लग रहा था, नहीं तो यहाँ के लोगों के लिए तो यह क्षेत्र नरक से भी बढ़कर है। क्यों हो? इन्हीं क्षेत्रों के खूनी समाचारों से ही तो रोज़ अख़बारों के पन्ने रंगे होते हैं।
         सड़क के दायें-बायें एक दो झोपड़ियाँ थीं। सड़क अपनी मस्ती में चली-सरकी जा रही थी। धूप छप्पर फाड़कर आँगन में सुबह होने का अलार्म बजा रही थी, लेकिन शायद भय के ही कारण लोग घर से बाहर नहीं निकल रहे थे। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और वर्तमान स्थिति को देखकर मेरे समझ में नहीं रहा था कि मौत इतनी सुन्दर होती है या कि सुन्दरता का ही दूसरा नाम मौत है?
       रसीली हवाओं की ताज़गी और कौमार्य को सजोई अल्हड़ प्रकृति के यौवन का उन्माद, सब कुछ मुझे उन्मादित किए जा रहा था। बगल की सीट पर बैठे मैं अपने सहयात्री दीपक से बार-बार कहता, - 'ये देखो पहाड़ी! - - वह देखो भेड़ों का झुण्ड! - - - बकरी चराती ग्रामीण बालाओं का खेल! - - - अपने सद्यः स्नाता रूप में किलकारी भरती नदी और वह लहराता-मुस्कुराता चाय-बागान!'
       गाँव से इसी सुन्दरता के दर्शन की आकांक्षा से ही तो मैं जा रहा था। भले ही यह यात्रा एक बारात थी, मगर मैं तो प्रकृति के सौन्दर्य से साक्षात्कार करने जा रहा था। शायद कूप-मंडूक का दायरा पार कर जाने के कारण मुझे लगता था कि विश्व की समूची शोभा यहीं सिमट गई है। - - - दो दिन की बस यात्रा से समूचे शारीर में एक मीठा दर्द हो रहा है। मन मरीज़ सा हो गया था। अंग-अंग में एक अलग तरह की ऐठन हो रही थी। मुँह से आती सुबह की बास असह्य हो रही थी। कलाई पर नज़र तो सुबह का साढ़े नौ हो रहा था। मेरे होठों पर हँसी ने दस्तक दिया। रोटी की दौड़ में समय कितना बौना होता जा रहा है? इस समय तक मैं विद्यालय पहुँच चुका होता हूँ। शुक्र है कि जून में विद्यालय बंद रहता है, वरना यह यात्रा भी नसीब होती। - - - बाहर नज़र गई। लोग दरवाज़े से टाट हटाकर अब बाहर निकल रहे थे। कितने सुन्दर लोग है! रूप-रंग, नयन-नक्श, चा-ढाल, सब कुछ कितना सुन्दर है इनका! - - - इन्हीं सरल लोगों में कोई इतना क्रूर भी होता है कि आदमी का ही खून कर देता है? - - हत्या-आतंक के लिए हरदम आतुर रहता है? - - मैं इसी सोच में खोया चला जा रहा था।
    इन पहाड़ियों में कुछ दूर खुली जगह थी। बीस-पच्चीस दुकानें थीं। हमारी बस रुकी। सभी उतारे। टहले, चाय पीये। मैंने सुना था कि यहाँ का मछली-चावल प्रसिद्ध है। सोचा, कुछ खाने का समय है ही, दीपक का भी विचार था, हम दोनों मछली-चावल का स्वाद लेने चल दिए। एक दुकान में दाखिल हो कर आर्डर दिए। एक बुढ़िया ने आकर गिलास और पानी रखा।कुछ पल बाद एक युवती आई। वह सुंदर कपड़ों में सजी थी। वह दोनों हाथों में मछली-चावल की दो प्लेट लिए आई और रखकर चली गई। - - - - वह बहुत ही खुबसूरत थी। उसकी सुन्दरता ने एक ही क्षण में यात्रा के सारे थकान को परास्त कर दिया। रग-रग में एक नए लहू का संचार कर दिया। मौसम में एक मदहोशी भर दिया। शांत हवाओं में एक अलग ही झंकार भर दिया। - - - अब मैं किसी--किसी बहाने उसे बुलाना चा रहा था। इधर-उधर देखे बिना ही एक बार तेज़ आवाज़ में बोला, - 'प्याज है?'
            जब वह लड़की प्याज के कुछ टुकड़े लेकर निकली, तभी दीपक मुझसे कह रहा था, - 'कितना सुन्दर जगह है यह! - - - यहाँ की प्रकृति कितनी सुन्दर है! - - - यहाँ के लोग कितने अच्छे है!'
      मानो मुझे मुँह मांगी मुराद मिल गई। मैंने उस लड़की को तिरछी नज़र से देखते हुए बोला, - 'सबसे ज्यादे खतरनाक भी तो यहीं के लोग हैं!'
         व्यक्ति को सबसे अधिक गर्व अपने देश, गाँव और घर पर होता है। शायद इसी वजह से वह लड़की तपाक से बोली,- 'क्या?'
          मैंने बात बनाते हुए उससे पूछा, - 'तुम्हें यहाँ कैसा लगता है?'
        वह सीधे-सपाट शब्दों में बोल गई, - 'अपनी माँ और अपनी मिट्टी किसे अच्छी नहीं लगती है?'
     उसके इस प्रश्नपूर्ण जवाब से मेरा रोम-रोम झंकृत हो गया। अब मैं उससे और बातें करना चाहने लगा। सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए बोला, - 'बहुत अच्छी बातें करती हो, - - - क्या नाम है तुम्हारा?'
        'जी, - - - सलोनी।' और लजाकर भाग गई। उसके जाने से मन में एक अजीब बेचैनी होने लगी। स्वादिष्ट मछली-चावल का रस जैसे सूख गया। मैं अब उसे दूबारा बुलाने का बहाना ढूंढ़ने लगा। गिलास का पानी नीचे गिराकर बोला, - 'सलोनी! - - - पानी लाना।'
        दीपक मुझे एक भयंकर खोजी की नज़र से देखने लगा। सलोनी एक गिलास पानी लाई और बैठ गई। वह शायद मेरी नियत जान गई थी। यह देख दीपक भी चाहते हुए बड़ी चाव से खाने का उपक्रम करने लगा। मैं सबसे नज़र बचाकर उसे देखना चाह रहा था। वह भी मुझे देखने लगी। नज़र मिली तो हम दोनों मुस्कुरा दिए। गौर वर्णा चहरे पर उसकी दूधिया दाँतें चमक उठीं। मैंने उसे छेड़ते हुए पूछा, - 'किससे दाँत साफ करती हो? - - - इतने सुन्दर दाँत पहली बार देख रहा हूँ।'
         'जी, दातून से।' - और खिलखिलाती भाग गई।
        मन की भावनाओं से बँध जाने के बाद अजनबी भी वर्षों का साथी लगने लगता है। उस दो पल में ही सलोनी मेरे रग-रग में बस गई थी। अब मुझे वहाँ से जाने का मन नहीं कर रहा था। आँखें हमेशा सलोनी को ही देखने के लिए आतुर हो रही थीं।
        मैं चलते बस में से भी उसे देखने लगा। वह भी दुकान से निकल कर मुझे ही देख रही थी। पता नहीं किस भाव से, मगर मैंने विदा के लिए अपना हाथ हिलाया, तो वह भी अपना हाथ धीरे-धीरे हिलाने लगी। सच में, उसके हिलते हाथ मेरे शरीर को तो विदा कर रहे थे, मगर मेरी आत्मा को अपने और पास बुला रहे थे। पहाड़ी शुरू होने के कारण बस दूसरी तरफ मुड़ गई। 
        मैं रातभर विवाह समारोह में रहने के बावजूद भी अपने-आप को हरदम सलोनी के दुकान में ही पाता रहा। उसकी काली-काली, बड़ी-बड़ी चंचल आँखें, उसका आकर्षक यौवन, उसका सलोना रूप, उसकी कुछ पूछती बातें, - 'अपनी माँ और अपनी मिट्टी किसे अच्छी नहीं लगती है?' - - - इन सब से मैं बेचैन रहा। सच में, सलोनी के रूप में वह जादू था, जिसके कारण पहली बार ही देखने के बाद मैं उसपर अपना जीवन हार गया था। यह प्रथम-द्रष्टया प्रेम कई जन्मों का लगने लगा था। मुझे वह अजनबी नहीं लग रही थी। वह सिर्फ आकर्षण नहीं था, सच्चा प्यार था।
          बस का ड्राईवर और मैं एक ही साथ कई बार चाय पीये, ताम्बूल खाए थे। भले ही उम्र में दोगुने का अंतर था, वह मेरे मित्र जैसा हो गया था। ड्राईवरों की तो जिंदगी केवल चलने पर ही होती है। वे अपने गतिशील जीवन में कई बार राह पर भटक भी जाते हैं और कई बार भटके हुए को सही राह भी दिखा देते हैं। जब मैंने अपने मन की बात उससे बताई तो कहने लगा, - 'यहाँ के कुलीन लोग तो चाहते हैं कि कोई परदेशी उनकी लड़कियों से शादी कर ले, ताकि वे तो चैन से रहेंगी। - - - एक बात बताऊँ? - - मैं बस लेकर इधर अक्सर आता रहता हूँ। मैं जनता हूँ कि यहाँ के अधिकांश लोगों का चरित्र, व्यव्हार और मन बहुत ही अच्छा है।'

    अब क्या था! - - - मैं सलोनी के साथ शादी के सपने देखने लगा। मैं बेचैन भी हो गया। कब बस चले और मैं उसे लेकर घर चला जाऊँ? - - - दोनों समाजों को तो मना लूँगा।  - - - उस बुढ़िया को भी हाथ-पाँव जोड़ कर राज़ी कर लूँगा।  - - - युवा मन का नवीन प्यार शादी के मधुर स्वप्नों में खोने लगा। - - - विजय की निश्चितता होने पर अक्सर आदमी उतावला हो जाता है। मैं भी हो गया था।
     सुबह बस चलने को हुई। मैं बहुत ही प्रसन्न था। ड्राईवर मित्र था हीउसे किसी  किसी बहाने सलोनी के दुकान पर बस रोकने के लिए तैयार कर लिया था। सड़क पर बस दौड़ रही थी। मेरी व्यग्रता बढ़ते जा रही थी। अब पुनः हरियाली में नहायी वह पहाड़ी शुरू हो रही थी। मैंने उस पहाड़ी को दूर से ही देखाजहाँ से बस मुड़ती थीतो ख़ुशी से आँखें बंद कर लिया। अब बस मुड़ी - - - - अब बस मुड़ी - - - - तभी बस का ब्रेक लगा। मेरी आँखें खुलीं तो खुली रह गईं। उन दुकानों में आग लगी हुई थी। पुलिस के लोग आग बुझा रहे थे। कुछ लोग चिल्ला रहे थे। बस के सभी सवारियों की जाँच के लिए पुलिस ने नीचे उतारा। मैंने आश्चर्य और प्रश्न से ड्राईवर को देखा और हम दोनों उधर चल दिए। पता चला कि उग्रवादियों ने सुबह इक्कीस लोगों की हत्या कर दुकानों में आग लगा दिया। लोगों का शव कपड़े से ढककर किनारे रखा गया था। मैं दौड़कर गया और सबका चेहरा देखने लगा। 
        'यह बुढ़िया का शव है। - -  - और यह?' -  - - इसके आगे मुझसे और कुछ कहा नहीं गया। चला नहीं गया। मैं गिर पड़ा। मैं हिम्मत हार चुका था। मेरे पैरों को लकवा मार गया था। मेरे मन की सारी इच्छाएँ इन सुन्दर पहाड़ियों की भयानक खाई में दफ़न हो गईं थीं।  - - - वह दूसरा शव सलोनी का था।
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                                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय