Sep 2, 2013

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Mar 15, 2013


                                                                     संस्कार (लघुकथा)

       नंदिता एक छोटे से नगर से आयी हुई लड़की है। जब मेरी नज़र उस पर गई तो सोचने लगा कि 'इनके माँ-बाप इन्हें शहर क्यों भेजते हैं? यहाँ आते ही लड़कियाँ कैसी हो जाती है? - - एकदम निर्बंध! तब इनके लिए सभ्यता-संस्कार का मायने ही बदल जाता है।'
       अब नंदिता को ही देखिए! - - वहाँ के एक प्रतिष्ठित अध्यापक की बेटी। जो पढ़ने के अतिरिक्त घर से शायद ही कभी निकलती हो। - -यहाँ शहर में आ कर बी-टेक कर रही है। लड़कों के हाफ-पैंट से भी छोटा उसका कैज़ुअल-ड्रेस है। कॉलेज से निकलते ही शाम तक दोस्तों के साथ पार्क-मॉल और न जाने कहाँ-कहाँ घूमना, कभी-कभी बिअर का एक-दो पैग ले लेना तो अब उसकी जीवन-शैली हो गई है। अब वह नंदी के नाम से पुकारी जाती है। 
        नंदिता के विषय में एक बात जानकर तो मैं दंग रह गया। - - - उसके एक दोस्त का एक्सीडेंट हो गया था। चार दिन से हॉस्पिटल में एडमिट था। उसके मम्मी-पापा ही हॉस्पिटल में रहते थे। दूसरा कोई था नहीं। जब नंदिता को पता चला तो रात-भर हॉस्पिटल में रहने के लिए जा रही थी। सोचा उसके मम्मी-पापा घर जाकर थोड़ा आराम कर लेंगे। नंदिता ने अपने कई दोस्तों से भी कहा। कोई तैयार नहीं हुआ। - 'फिफ्थ सेम का एग्जाम आ रहा है। माँ-बाप यहाँ पढ़ने ने लिए भेजते है। यार हममे इतनी तो संस्कार है हीं कि अपने माँ-बाप के सपनों का ख्याल रखें! - - हम यहाँ रिश्तेदारी निभाने थोड़े ही आये हैं!'
       नंदिता ने फिर किसी से कुछ नहीं कहा। अपना कुछ नोट्स अपने पर्स में रखी और हॉस्पिटल के लिए ऑटो पकड़ ली।
                                                             -------------------------------------
                                                                                                                           - केशव मोहन पाण्डेय 
  

समझ (लघुकथा)



         
         आज रवीश की शादी का ग्यारहवाँ वर्षगाँठ है। पति-पत्नी अपने दोनों बच्चों के साथ दिल्ली में रहते है। बच्चे एक अच्छे स्कूल में अध्ययन कर रहे है। रवीश की नौकरी भी अच्छी चल रही है। वह चाहता है कि वीणा भी नौकरी करे। वह हमेशा हिम्मत देता रहता है। कई बार तो दोनों में बहस भी होने लगती है। चर्चा, बहस, झगड़ा और फिर वही सब कुछ! - - हर दम्पति-जीवन की लीला।
         शादी के वर्षगाँठ की चाय पार्टी पर आये अतिथियों के सामने भी चर्चा शुरू हुई, मगर मोबाइल के रिंग ने आगे नहीं बढ़ने दिया। दोनों पहले फ़ोन उठाना चाहते थे। दोनों को लगा कि उनके पैरेंट्स का फ़ोन है। उठाया रवीश ने। फ़ोन पर कोई और ही था। - - था नहीं, - -थी। - - -रवीश की ग्यारह साल पहले की प्रेमिका। 
         रवीश ने बातें तो हँसकर की, मगर दिल जैसे दलदल में धँस गया। बातों से ही पता चला कि रवीश का नम्बर उसे इन्टरनेट से मिला है। आज के समय में यह इन्टरनेट नहीं, भगवान हो गया है। सबकुछ संभव है यहाँ! 
         रवीश के लिए तो पार्टी का मज़ा ही किरकिरा हो गया। सुबह उठाते ही रवीश ने अपना नम्बर चेंज कर दिया और आकर डरते-डरते वीणा को बाँहों में भरते हुए कहा, - 'तुम मेरा आज हो, कल भी तुम ही रहोगी। - - मैं पास्ट याद नहीं रखना चाहता वीणा।'
         'बीती बातें मन में एक आयास चलती हवा जैसी होती हैं। जब मन किया, शीतलता दे दिया, जब मन किया - धूल, रेत और न जाने क्या कुछ! - - इसका मतलब यह कत्तई नहीं की समय के साथ जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए आगे न बढ़ा जाय।' - वीणा ने चाय की प्याली रवीश की ओर बढ़ाते हुए कहा।
       रवीश भी सोचने लगा - सच ही तो है! - - जिस तरुण के हृदय में प्रीत की कलि न खिली, उसकी तरुणाई कैसी? जिस युवा के आँखों में स्नेह-सिक्त संसार का सृजन न हुआ, उसका यौवन कैसा? इसका मतलब यह तो नहीं कि आज भी मैं वही रहूँ!
        दोनों की समझ ने जीवन को और आकर्षक बना दिया। 
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                                                                                                      - केशव मोहन पाण्डेय 

Mar 14, 2013

संघर्षों का विष (कविता)


दृग में स्वप्न -
अनोखे कल का,
अनुभूति तेरे बल का,
कल की बातें थीं।
उम्मीद के लौ की ज्योति
उत्साहों के पथ की गति    
कल की बातें थीं।
छूछे आदर्शों का मकड़जाल    
कर्तव्यों का महा-व्याल
हर पथ पर
हर कदम पर
मुँह बाये खड़ा है,
मैं तो
पहले नहीं समझ पाया था कि
जीवन में
तेरे-मेरे जैसे लोगों के लिए
सफलताएँ छोटी
और संघर्ष ही बड़ा है।
चल, ताल ठोंककर
मेरा साथ तो दो,
विश्वास न सही
केवल हाथ तो दो,
इस ‘अपनों’ की
बनावटी दुनिया में
‘कोई अपना तो है!’
इसी उम्मीद से जी लूँगा,
नहीं मिली मंजिल तो क्या?
दुःख-सुख की सीढ़ियाँ चढ़ता
संघर्षों का विष पी लूँगा।।
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– केशव मोहन पाण्डेय

Mar 13, 2013

संस्कार (लघुकथा)


 नंदिता एक छोटे से नगर से आयी हुई लड़की है। जब मेरी नज़र उस पर गई तो सोचने लगा कि 'इनके माँ-बाप इन्हें शहर क्यों भेजते हैं? यहाँ आते ही लड़कियाँ कैसी हो जाती है? - - एकदम निर्बंध! तब इनके लिए सभ्यता-संस्कार का मायने ही बदल जाता है।'
       अब नंदिता को ही देखिए! - - वहाँ के एक प्रतिष्ठित अध्यापक की बेटी। जो पढ़ने के अतिरिक्त घर से शायद ही कभी निकलती हो। - -यहाँ शहर में आ कर बी-टेक कर रही है। लड़कों के हाफ-पैंट से भी छोटा उसका कैज़ुअल-ड्रेस है। कॉलेज से निकलते ही शाम तक दोस्तों के साथ पार्क-मॉल और न जाने कहाँ-कहाँ घूमना, कभी-कभी बिअर का एक-दो पैग ले लेना तो अब उसकी जीवन-शैली हो गई है। अब वह नंदी के नाम से पुकारी जाती है। 
        नंदिता के विषय में एक बात जानकर तो मैं दंग रह गया। - - - उसके एक दोस्त का एक्सीडेंट हो गया था। चार दिन से हॉस्पिटल में एडमिट था। उसके मम्मी-पापा ही हॉस्पिटल में रहते थे। दूसरा कोई था नहीं। जब नंदिता को पता चला तो रात-भर हॉस्पिटल में रहने के लिए जा रही थी। सोचा उसके मम्मी-पापा घर जाकर थोड़ा आराम कर लेंगे। नंदिता ने अपने कई दोस्तों से भी कहा। कोई तैयार नहीं हुआ। - 'फिफ्थ सेम का एग्जाम आ रहा है। माँ-बाप यहाँ पढ़ने ने लिए भेजते है। यार हममे इतनी तो संस्कार है हीं कि अपने माँ-बाप के सपनों का ख्याल रखें! - - हम यहाँ रिश्तेदारी निभाने थोड़े ही आये हैं!'
         उसने ने फिर किसी से कुछ नहीं कहा। अपना कुछ नोट्स अपने पर्स में रखी और हॉस्पिटल के लिए ऑटो पकड़ ली।
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                                                                                                                                                - केशव मोहन पाण्डेय 

Nawya - संस्कार (लघुकथा)

Nawya - संस्कार (लघुकथा)

Mar 5, 2013

अपना (लघुकथा)


                                                                         चित्र : गूगल     
     शहर में आकर मैंने यहीं पाया है कि कमाने के लिए महेनत बहुत मायने रखता है। कमाता हूँ तो यह मायने नहीं रखता कि अपने लोग नहीं हैं, अपना घर नहीं है। अपनी और अपने से जुड़े औरों की इच्छाएँ तो पूरी होती है। मैं इसी सोच के साथ दिन-रात मेहनत करता हूँ और समय पर सारे बिल भी पे कर देता हूँ।
     आज दो दिन देर होने पर मेरे मकान-मालिक ने कहा - 'भाई साहब! - - इस बार सैलरी नहीं आई क्या?'
     अब मेरे समझ में आ गया कि सचमुच मेरे पास अपना घर नहीं है, अपने लोग नहीं हैं।
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                                                                                - केशव मोहन पाण्डेय 

                                                                      चित्र : गूगल 
                                                          
                                                          विलक्षण व्यक्ति (लघुकथा)
                                                                                                                     

      मेरा सहकर्मी विनोद, है तो सामान्य चेतना वाला, लेकिन किसी भी बात में अपनी चतुराई अवश्य प्रस्तुत करता है। फँस जाने पर तुरंत रटे-रटाए वाक्य बोलता,- 'अच्छा-अच्छा,  -- मैं समझ नहीं पाया।,
     सबके गले से एक दबी हँसी निकलती और मामला शांत। कुछ पल बाद वह अपने सीट से उठता और वाशरूम की ओर चला जाता। कई दिन बाद मुझे पता चला कि वह वाशरूम नहीं जाता, - - वाशरूम के पास वाली विंडो पर खड़ा होकर बाहर कुछ देखता है। एक बार मुझे लगा कि सभी विनोद का मज़ाक उड़ाते हैं। उसे बुरा लगता है इसलिए विंडो पर अपना मूड ठीक करता है। मैं संवेदना व्यक्त करने गया मगर छेड़ा, - 'क्या हो रहा है? - - - किसे ताड़ रहे हो भाई?'
      'सामने देखो ना!'
      'अच्छा तो तुम लड़की ताड़ने के लिए खड़े होते हो यहाँ? - - और ओ भी उस साँवली लड़की को?' 
      'साँवली है तो क्या हुआ, - - सुन्दरता भी तो देखो उसकी?'
      जब मैं विनोद की नज़रों से देखना चाहा तो पाया कि सच में वह सुन्दर थी। साँवली-सलोनी। 
      विनोद ने आगे बताया कि वह माँ भी बनने वाली है। उसके पेट के उभार को भी दिखाया।
     मैं तो कभी-कभी विनोद को छेड़ने के लिए जाता और उस औरत को देखकर चुप हो जाता। कभी-कभी उसके झुग्गी के सामने रिक्शा देखकर कह सकते हैं कि शायद उसका पति रिक्शा चलता था। विनोद जब उधर देखता रहता तो उसके चेहरे पर एक अद्भुत प्रसन्नता झलकने लगती।
       एक दिन विनोद बहुत उदास था। उस रोज़ वह बार-बार खिड़की पर जाता और आँख पोंछने लगता। मैंने देखा कि वह रो रहा था। मैं डरकर उस औरत को देखना चाहा। उसके झुग्गी के पास औरतों की भीड़ थी। बच्चे उछल-कूद कर रहे थे। मुझे तो कहीं से भी रोने वाली कोई बात नज़र नहीं आई, क्योंकि एक नवजात की रूलाई भी सुनाई दे रही थी। विनोद से पूछा तो अपनी चढ़ी सांसों को रोकते हुए बोला, - 'यार ये ग़रीबी क्यों बनाया ऊपर वाले ने? - - देखो ये बेचारे रोटी के लिए रिक्शा चलाते हैं। तपती गर्मी में भी इस टीन के छप्पर के नीचे गुज़ारा करते हैं और उसकी बीवी बेचारी प्रसव से चिल्लाती रही, तड़पती रही मगर हॉस्पिटल नहीं ले गया। - - बच्चा यहीं हो गया।  - - यार ये भी कोई बात हुई। - - - -'
      पता नहीं विनोद आगे क्या-क्या कहता रहा, मगर मुझे लगा कि विनोद सामान्य चेतना वाला नहीं है। यह तो कोई विलक्षण व्यक्ति ही सोच सकता है।
                                                                          ----------------------------
                                                                                                     - केशव मोहन पाण्डेय 

सत्य

चित्र : गूगल 

तंत्री-नाद 
और कवित्त-रस 
मुझे बहुत पसंद हैं।
कनेर के फूलों पर मडराती 
काली, नीली और सतरंगी पक्षी 
और उछल-उछल कर 
मस्ती करती सोन चिरैया भी। 
मैं बहुत चाहता हूँ 
नदी किनारे 
उगते सूरज के साथ 
डूबते सँझा के बीच 
नाव चलाना, 
डूबकी लगाना, 
खूब नहाना, 
रोटी खाना, 
सत्य सजाना 
अपने जीवन की राहों में।
पर कहाँ कर पाता हूँ सब? 
प्रकृति का मौन निमंत्रण 
कहाँ पढ़ पाता हूँ।
जरूरतें भटका देती हैं 
बीच में ही,
नया रास्ता कहाँ गढ़ पाता हूँ?
अब तो 
एक ही बात समझ में आती है -
'केवल पैसा ही सत्य है' 
उसके बिना 
जीवन मिथ्या हो-ना-हो 
रिश्ते-नाते बेकार हो जाते हैं,
सब कुछ रहते हुए भी 
हम 
घुघनी खाए 
तथा कुत्ते द्वारा नोचे हुए 
बिना काम के 
रद्दी अखबार हो जाते हैं।।
-------------------
                 - केशव मोहन पाण्डेय 


Mar 4, 2013


                                                                              
                                                             चित्र : गूगल 
मैं मशीन हूँ
                                                                 
होता होगा अलसाया 
गर्व और बनावटीपन भरा 
ऐश्वर्य और विलासिता भरा 
अपनी मर्ज़ी से चलता 
शहरों का जीवन!
मैंने तो नहीं पाया 
मैंने तो अपने को भी 
नहीं पाया कि कभी 
उगते सूरज के बाद 
चिड़ियों के रियाज़ करने के बाद 
अख़बार वाले के चले जाने पर 
बिस्तर छोड़ा होऊँ,
(इतवार को छोड़ कर।)
मैं और फुर्तीला 
समय का पाबंद 
और गतिशील हो गया हूँ 
शहर में आकर।
मैं और परिश्रमी,
कर्मयोगी 
और सहनशील हो गया हूँ 
शहर में अपना वक़्त बिताकर।
सुबह उठकर 
पढ़ना पड़ता है अखबार को 
आते-आते सूरज की लाली 
छोड़ना ही पड़ता है 
अपने तथाकथित घर-बार को 
और जाना ही पड़ता है काम पर 
रेंट, रोटी और रोजगार के लिए।
यह अलग बात है 
कि सुबह उठकर भी 
प्रकृति की सुन्दरता का 
मौसम के अल्हड़ता का 
पंछियों की जुगाली का 
फसलों की हरियाली का 
मैं जी भर निरख नहीं सकता।
ऐसा नहीं कि रसहीन हूँ 
कुछ भी नहीं होने पर भी 
नंगे बिस्तर 
या टूटी खाट में सोने पर भी 
कल तक तो आदमी था 
सब कुछ पाकर 
आज मैं मशीन हूँ। 
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                                          - केशव मोहन पाण्डेय 

Mar 2, 2013

हो न हो! (कविता)


तुम कहाँ और मैं कहाँ
अब ज़िन्दगी के दरम्याँ
तुमसे वैसी मुलाकात हो न हो!

धड़कने चलती रहें,
दर्द सब हँसकर सहें
सर्द शबनम ओढ़कर
पागल पवन बनकर बहें,
मैं यहीं लिखा करूँगा-
कदम-कदम सीखा करूँगा-
तुम्हारे दिल में ज़ज्बात हो न हो!

पटरियाँ मिलती कहाँ हैं रेल की
हश्र यहीं होना था तेरे खेल की
कब माने? कब लौटे मेरे राह पर
पूजा करता रहा उस मेल की,
तुम ठहर गए मेरे साथ जो,
मान गए सारी बात को,
सरफिरी फिर वह रात हो न हो!

तेरे लिए जो गेम है
मेरा वही सच्चा प्रेम है
अंधड़ का कण समझते जिसे
इश्क अनोखा जेम है।
यह समय का परिहास है,
जय का मुझे विश्वास है,
फिर तुम्हें मेरा विश्वास हो न हो।।
    ------------------
                      - केशव मोहन पाण्डेय

Mar 1, 2013

किस्तों पर गुज़ारा (कविता)

चित्र : गूगल
   रोटी के लिए ही नहीं, 
केवल कपड़े के लिए ही नहीं 
और ना ही सिर्फ मकान के लिए,
हम भटकते हैं आज 
जीवन का मोह छोड़ कर 
आज के 
जीने के साज-ओ-समान के लिए।
क़िस्त-दर-क़िस्त 
दौलत की चाह में 
कई बार तो 
अस्मत, सम्मान 
और आदमी होने के प्रति भी 
बेपरवाह हो जाते,
गाँव से आकर, 
अपनत्व भुलाकर, 
शहरी होने का भ्रम पाले 
जीवन से ही 
गुमराह हो जाते हैं।
खून के रिश्तों से दूर होकर 
बड़ी सिद्दत से 
निभाने लगते हैं -
व्यावसायिक रिश्तों को, 
होम लोन,
क्रेडिट कार्ड्स, 
और विलासिता के सामानों का, 
उलझे रहते हैं 
भरने में किस्तों को।
वहाँ तो एक उधार को 
कई बार टाल दिया जाता था,
और जो पुनः जाकर 
उधार ही खाया जाता था,
वहीं मैं!
आज नज़दीक आते ही 
ई. एम. आई. की तारीख, 
धरती-आसमान एक कर देता हूँ 
बैंक-अकाउंट मैनेज करने के लिए,
वहाँ एक रिश्ते से 
सौ झूठ बोला जाता था,
यहाँ सौ व्यावसाय में भी 
एक वे ही याद आते हैं 
क़िस्त भरने के लिए। 
अब शाम 
पहाड़-सी भारी होकर सोती है 
सुबह 
उलझी किस्तों में जगती है,
प्यारे नाते सूखे नल, 
पानी टैंक से मँगाकर 
बीवी 
अरमानों के कपड़े डूबोती है।
फिर भी जीवन प्यारा है। 
वहाँ 
रिश्तों पर असंभव था,
यहाँ 
किस्तों पर ही गुज़ारा है।
--------------------
                   - केशव मोहन पाण्डेय 

Feb 27, 2013

शिक्षण के समय 

Feb 25, 2013

    
बस मुड़ गई (कहानी)


         आँख खुली तो खिड़की से देखा, सड़क के दोनों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ, उलझे-सुलझे नाले, छोटी-बड़ी झाड़ियाँ। झाड़ियों में खिले रंग-विरंगे फूल, मानो प्रकृति रानी के वस्त्र के बेल-बूटे हों। झाड़ियों के नीचे नालों में उछलता-कूदता पानी अपनी मस्ती में मग्न था। उछलते पानी पर सूर्य की पहली किरण आकर वियोग के बाद का प्यार बरसा रही थी।
          मेरे लिए यह दृश्य पहला था। घूमने का अनुभव पहला था। घूमता तो रहता हूँ, पर इस रूप में पहली बार निकला था। इतनी लम्बी यात्रा पहली थी। शायद इसलिए मुझे यह सब स्वर्गिक सुख सा लग रहा था, नहीं तो यहाँ के लोगों के लिए तो यह क्षेत्र नरक से भी बढ़कर है। क्यों हो? इन्हीं क्षेत्रों के खूनी समाचारों से ही तो रोज़ अख़बारों के पन्ने रंगे होते हैं।
         सड़क के दायें-बायें एक दो झोपड़ियाँ थीं। सड़क अपनी मस्ती में चली-सरकी जा रही थी। धूप छप्पर फाड़कर आँगन में सुबह होने का अलार्म बजा रही थी, लेकिन शायद भय के ही कारण लोग घर से बाहर नहीं निकल रहे थे। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और वर्तमान स्थिति को देखकर मेरे समझ में नहीं रहा था कि मौत इतनी सुन्दर होती है या कि सुन्दरता का ही दूसरा नाम मौत है?
       रसीली हवाओं की ताज़गी और कौमार्य को सजोई अल्हड़ प्रकृति के यौवन का उन्माद, सब कुछ मुझे उन्मादित किए जा रहा था। बगल की सीट पर बैठे मैं अपने सहयात्री दीपक से बार-बार कहता, - 'ये देखो पहाड़ी! - - वह देखो भेड़ों का झुण्ड! - - - बकरी चराती ग्रामीण बालाओं का खेल! - - - अपने सद्यः स्नाता रूप में किलकारी भरती नदी और वह लहराता-मुस्कुराता चाय-बागान!'
       गाँव से इसी सुन्दरता के दर्शन की आकांक्षा से ही तो मैं जा रहा था। भले ही यह यात्रा एक बारात थी, मगर मैं तो प्रकृति के सौन्दर्य से साक्षात्कार करने जा रहा था। शायद कूप-मंडूक का दायरा पार कर जाने के कारण मुझे लगता था कि विश्व की समूची शोभा यहीं सिमट गई है। - - - दो दिन की बस यात्रा से समूचे शारीर में एक मीठा दर्द हो रहा है। मन मरीज़ सा हो गया था। अंग-अंग में एक अलग तरह की ऐठन हो रही थी। मुँह से आती सुबह की बास असह्य हो रही थी। कलाई पर नज़र तो सुबह का साढ़े नौ हो रहा था। मेरे होठों पर हँसी ने दस्तक दिया। रोटी की दौड़ में समय कितना बौना होता जा रहा है? इस समय तक मैं विद्यालय पहुँच चुका होता हूँ। शुक्र है कि जून में विद्यालय बंद रहता है, वरना यह यात्रा भी नसीब होती। - - - बाहर नज़र गई। लोग दरवाज़े से टाट हटाकर अब बाहर निकल रहे थे। कितने सुन्दर लोग है! रूप-रंग, नयन-नक्श, चा-ढाल, सब कुछ कितना सुन्दर है इनका! - - - इन्हीं सरल लोगों में कोई इतना क्रूर भी होता है कि आदमी का ही खून कर देता है? - - हत्या-आतंक के लिए हरदम आतुर रहता है? - - मैं इसी सोच में खोया चला जा रहा था।
    इन पहाड़ियों में कुछ दूर खुली जगह थी। बीस-पच्चीस दुकानें थीं। हमारी बस रुकी। सभी उतारे। टहले, चाय पीये। मैंने सुना था कि यहाँ का मछली-चावल प्रसिद्ध है। सोचा, कुछ खाने का समय है ही, दीपक का भी विचार था, हम दोनों मछली-चावल का स्वाद लेने चल दिए। एक दुकान में दाखिल हो कर आर्डर दिए। एक बुढ़िया ने आकर गिलास और पानी रखा।कुछ पल बाद एक युवती आई। वह सुंदर कपड़ों में सजी थी। वह दोनों हाथों में मछली-चावल की दो प्लेट लिए आई और रखकर चली गई। - - - - वह बहुत ही खुबसूरत थी। उसकी सुन्दरता ने एक ही क्षण में यात्रा के सारे थकान को परास्त कर दिया। रग-रग में एक नए लहू का संचार कर दिया। मौसम में एक मदहोशी भर दिया। शांत हवाओं में एक अलग ही झंकार भर दिया। - - - अब मैं किसी--किसी बहाने उसे बुलाना चा रहा था। इधर-उधर देखे बिना ही एक बार तेज़ आवाज़ में बोला, - 'प्याज है?'
            जब वह लड़की प्याज के कुछ टुकड़े लेकर निकली, तभी दीपक मुझसे कह रहा था, - 'कितना सुन्दर जगह है यह! - - - यहाँ की प्रकृति कितनी सुन्दर है! - - - यहाँ के लोग कितने अच्छे है!'
      मानो मुझे मुँह मांगी मुराद मिल गई। मैंने उस लड़की को तिरछी नज़र से देखते हुए बोला, - 'सबसे ज्यादे खतरनाक भी तो यहीं के लोग हैं!'
         व्यक्ति को सबसे अधिक गर्व अपने देश, गाँव और घर पर होता है। शायद इसी वजह से वह लड़की तपाक से बोली,- 'क्या?'
          मैंने बात बनाते हुए उससे पूछा, - 'तुम्हें यहाँ कैसा लगता है?'
        वह सीधे-सपाट शब्दों में बोल गई, - 'अपनी माँ और अपनी मिट्टी किसे अच्छी नहीं लगती है?'
     उसके इस प्रश्नपूर्ण जवाब से मेरा रोम-रोम झंकृत हो गया। अब मैं उससे और बातें करना चाहने लगा। सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए बोला, - 'बहुत अच्छी बातें करती हो, - - - क्या नाम है तुम्हारा?'
        'जी, - - - सलोनी।' और लजाकर भाग गई। उसके जाने से मन में एक अजीब बेचैनी होने लगी। स्वादिष्ट मछली-चावल का रस जैसे सूख गया। मैं अब उसे दूबारा बुलाने का बहाना ढूंढ़ने लगा। गिलास का पानी नीचे गिराकर बोला, - 'सलोनी! - - - पानी लाना।'
        दीपक मुझे एक भयंकर खोजी की नज़र से देखने लगा। सलोनी एक गिलास पानी लाई और बैठ गई। वह शायद मेरी नियत जान गई थी। यह देख दीपक भी चाहते हुए बड़ी चाव से खाने का उपक्रम करने लगा। मैं सबसे नज़र बचाकर उसे देखना चाह रहा था। वह भी मुझे देखने लगी। नज़र मिली तो हम दोनों मुस्कुरा दिए। गौर वर्णा चहरे पर उसकी दूधिया दाँतें चमक उठीं। मैंने उसे छेड़ते हुए पूछा, - 'किससे दाँत साफ करती हो? - - - इतने सुन्दर दाँत पहली बार देख रहा हूँ।'
         'जी, दातून से।' - और खिलखिलाती भाग गई।
        मन की भावनाओं से बँध जाने के बाद अजनबी भी वर्षों का साथी लगने लगता है। उस दो पल में ही सलोनी मेरे रग-रग में बस गई थी। अब मुझे वहाँ से जाने का मन नहीं कर रहा था। आँखें हमेशा सलोनी को ही देखने के लिए आतुर हो रही थीं।
        मैं चलते बस में से भी उसे देखने लगा। वह भी दुकान से निकल कर मुझे ही देख रही थी। पता नहीं किस भाव से, मगर मैंने विदा के लिए अपना हाथ हिलाया, तो वह भी अपना हाथ धीरे-धीरे हिलाने लगी। सच में, उसके हिलते हाथ मेरे शरीर को तो विदा कर रहे थे, मगर मेरी आत्मा को अपने और पास बुला रहे थे। पहाड़ी शुरू होने के कारण बस दूसरी तरफ मुड़ गई। 
        मैं रातभर विवाह समारोह में रहने के बावजूद भी अपने-आप को हरदम सलोनी के दुकान में ही पाता रहा। उसकी काली-काली, बड़ी-बड़ी चंचल आँखें, उसका आकर्षक यौवन, उसका सलोना रूप, उसकी कुछ पूछती बातें, - 'अपनी माँ और अपनी मिट्टी किसे अच्छी नहीं लगती है?' - - - इन सब से मैं बेचैन रहा। सच में, सलोनी के रूप में वह जादू था, जिसके कारण पहली बार ही देखने के बाद मैं उसपर अपना जीवन हार गया था। यह प्रथम-द्रष्टया प्रेम कई जन्मों का लगने लगा था। मुझे वह अजनबी नहीं लग रही थी। वह सिर्फ आकर्षण नहीं था, सच्चा प्यार था।
          बस का ड्राईवर और मैं एक ही साथ कई बार चाय पीये, ताम्बूल खाए थे। भले ही उम्र में दोगुने का अंतर था, वह मेरे मित्र जैसा हो गया था। ड्राईवरों की तो जिंदगी केवल चलने पर ही होती है। वे अपने गतिशील जीवन में कई बार राह पर भटक भी जाते हैं और कई बार भटके हुए को सही राह भी दिखा देते हैं। जब मैंने अपने मन की बात उससे बताई तो कहने लगा, - 'यहाँ के कुलीन लोग तो चाहते हैं कि कोई परदेशी उनकी लड़कियों से शादी कर ले, ताकि वे तो चैन से रहेंगी। - - - एक बात बताऊँ? - - मैं बस लेकर इधर अक्सर आता रहता हूँ। मैं जनता हूँ कि यहाँ के अधिकांश लोगों का चरित्र, व्यव्हार और मन बहुत ही अच्छा है।'

    अब क्या था! - - - मैं सलोनी के साथ शादी के सपने देखने लगा। मैं बेचैन भी हो गया। कब बस चले और मैं उसे लेकर घर चला जाऊँ? - - - दोनों समाजों को तो मना लूँगा।  - - - उस बुढ़िया को भी हाथ-पाँव जोड़ कर राज़ी कर लूँगा।  - - - युवा मन का नवीन प्यार शादी के मधुर स्वप्नों में खोने लगा। - - - विजय की निश्चितता होने पर अक्सर आदमी उतावला हो जाता है। मैं भी हो गया था।
     सुबह बस चलने को हुई। मैं बहुत ही प्रसन्न था। ड्राईवर मित्र था हीउसे किसी  किसी बहाने सलोनी के दुकान पर बस रोकने के लिए तैयार कर लिया था। सड़क पर बस दौड़ रही थी। मेरी व्यग्रता बढ़ते जा रही थी। अब पुनः हरियाली में नहायी वह पहाड़ी शुरू हो रही थी। मैंने उस पहाड़ी को दूर से ही देखाजहाँ से बस मुड़ती थीतो ख़ुशी से आँखें बंद कर लिया। अब बस मुड़ी - - - - अब बस मुड़ी - - - - तभी बस का ब्रेक लगा। मेरी आँखें खुलीं तो खुली रह गईं। उन दुकानों में आग लगी हुई थी। पुलिस के लोग आग बुझा रहे थे। कुछ लोग चिल्ला रहे थे। बस के सभी सवारियों की जाँच के लिए पुलिस ने नीचे उतारा। मैंने आश्चर्य और प्रश्न से ड्राईवर को देखा और हम दोनों उधर चल दिए। पता चला कि उग्रवादियों ने सुबह इक्कीस लोगों की हत्या कर दुकानों में आग लगा दिया। लोगों का शव कपड़े से ढककर किनारे रखा गया था। मैं दौड़कर गया और सबका चेहरा देखने लगा। 
        'यह बुढ़िया का शव है। - -  - और यह?' -  - - इसके आगे मुझसे और कुछ कहा नहीं गया। चला नहीं गया। मैं गिर पड़ा। मैं हिम्मत हार चुका था। मेरे पैरों को लकवा मार गया था। मेरे मन की सारी इच्छाएँ इन सुन्दर पहाड़ियों की भयानक खाई में दफ़न हो गईं थीं।  - - - वह दूसरा शव सलोनी का था।
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                                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय