Jan 8, 2015

गणेश चौथ पर भेड़ा काटना


     आज गणेश चौथ है। गणपति बप्पा मोरया कह कर मूर्ति विसर्जित करने वाला नहीं, माघ के कृष्ण पक्ष का गणेश चतुर्थी व्रत। थोड़ा क्या, स्नातक पास करने और परास्नातक में लोक-साहित्य पढ़ते समय मुझे पता चला कि इस व्रत को संकट चौथ  भी कहा जाता है। संकट चौथ का यह त्योहार माघ के कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाता है। इतना तो मुझे लड़कपन में ही पता था। एक अलग उत्साह के साथ प्रतीक्षा किया जाता था आज के दिन का। माई के साथ गाँव के रात में करीब नौ, साढ़े-नौ या दस बजे तक एक बोरसी के सहारे ढिबरी के टिमटिमाते टेम के उजाले में चंद्रमा के प्रकट होने का बाट जोहना एक अलग प्रकार का आनन्द देता था। माई फूल के लोटा का ही कलश बनाकर पूजा आदि करती थी। भूने हुए तील में मीठा को मिसकर जो प्रसाद तैयार किया जाता, उसकी भी प्रतीक्षा कम चाव से नहीं की जाती थी। भले सभी भा-बहीन सो जाते थे, मगर मुझे नहीं सोने दिया जाता था। तील का बना हुआ भेड़ा जो काटना होता था। भेड़ा काटने और चंद्रोदय के बीच के समय को बिसारने के लिए माई कई कथा कहती थी। उसी कथा में इस तिलकूट गणेश चौथ का महात्म्य और विधि की कथाएँ भी कहती थीं।
     वैसे तो प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष गणेश चतुर्थी ही कहलाती है। धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्रियाँ उस दिन व्रत व गणेश पूजन भी करती हैं। परंतु जहां तक माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का प्रश्न है, इस व्रत को कुछ विशेष विधि से किया जाता है। इसे कई नामों से पुकारा जाता है। जैसा देश, वैसा भेष। ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी’ के कारण इसे वक्रतुण्डी चतुर्थी, माघी चौथ, तिलकुटा चौथ,  गणेश चौथ आदि  नामों से भी जाना जाता है। इस दिन पूजा करने से चाहे पूजा में बैठने से विद्या-बुद्धि-वारिधि सब बढ़ता है। (मुझे लगता था कि माई मुझे बैठाये रखने के लिए ‘चाहे पूजा में बैठने से विद्या-बुद्धि-वारिधि’ वाला हिस्सा जोड़ देती थी।) इसमें संकट हरण गणेशजी तथा चंद्रमा का पूजन किया जाता है। यह व्रत संकटों तथा दुखों को दूर करने वाला तथा धरती के सभी जीवों की, चाहे वह अंडज हो, पिंडज हो, उकमज हो या स्थावर हो, की सभी इच्छाएँ व मनोकामनाएँ पूरी करने वाला है।
     मैं तब भी अपनी माई को देखता था, आज भी अपनी पत्नी को देखता हूँ। इस दिन स्त्रियाँ निर्जल व्रत करती हैं मगर आवाज में वहीं टनक रहती है। पत्नी को नहीं आता मगर माई तो एक साँसे तीन-चार कथा सुनाती थी। मैं भी बड़ी ही रूचि से पूजा-विधि के एक-एक कार्य को बड़ी ही सावधानी से देखता था। सबसे पहले एक पटरे या पीढ़ा पर चौरा के मिट्टी से गणेश जी की प्रतिमूर्ति बनाई जाती थी तथा विधि पूर्वक पूजा की जाती है। पूजा के उपरांत माई कथाएँ सुनाती थी। अधिकांश कथाओं में शिव जी का ही परिवार विराजमान रहता था। कभी पार्वती जी का त्याग तो कभी गणेश जी की वीरता। अब कथाएँ पूर्णतः नहीं याद हैं। उनका कोलाज़ है स्मृति में। गणेश जी के प्रसाद खाने तथा अन्य क्रिया करने की कथा छहर-छहर के रूप में अधिक स्पष्ट है।माई कथा सुनाने के बाद तथा चंद्रमा के उदय होने पर लोटे में भरा जल या व्यवस्था होने पर दूध से चंद्रमा को अर्घ्य देती थी और इस प्रकार व्रत खोला जाता है। आज भी इस व्रत में रात्रि को चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही महिलाएँ भोजन करती है। इस पूजा-व्रत में तिल की माँग बढ़ जाती है। माई कहती थी कि इस दिन तिल को भूनकर गुड़ के साथ कूटकर तिलकुटा अर्थात तिलकुट का पहाड़ बनाया जाता है। कहीं-कहीं तिलकुट का बकरा भी बनाया जाता है। अपने यहाँ भेंड़ा बनाया जाता है। भेंड़ा की पूजा करके घर का कोई बच्चा उसकी गर्दन काटता है, फिर सबको प्रसाद दिया जाता है। पूजा के बाद भेड़ा का गरदन काटने का अवसर मुझे बहुत बार मिला है। भा-बहिनों में सबसे छोटा होने के कारण अपने-आप को बड़ा हो जाना भले मान लूँ, मगर वर्षों तक छोटा ही रहा हूँ। उसका लाभ भी मिला है। ऐसे लुप्त होते व्रत-त्योहारों को समझने-बुझने का अवसर मिला है। माई का साहचर्य मिला है। बाबुजी की डाँट के साथ अनुभव भी पाया हूँ। उसी में मैंने जाना है कि माई भले ही कभी-कभी लाख खुश होने पर भी अभाव के कारण एक पसर तिल से पूजन-विधि संपन्न कर लेती थी, मगर कथा में कहती थी कि तिलकुटे से ही गणेशजी का पूजन किया जाता है तथा इसका ही बायना निकालते हैं और तिलकुट को भोजन के साथ खाते भी हैं। जिस घर में लड़के की शादी या लड़का हुआ हो, उस वर्ष सकट चैथ को सवा किलो तिल को सवा किलो मीठा (गुड़) के साथ कूटकर इसके लड्डू बनाए जाते हैं। इन लड्डूओं को बहू बायने के रूप में सास को देती है। तिल, ईख, गंजी (सकरकंद या कोन), अमरूद, गुड़, घी से चंद्रमा गणेश का भोग लगाया जाता है। यह नैवेद्य रात भर पूजा-स्थान पर ही डलिया से ढककर रख दिया जाता है। पुत्रवती माताएँ पुत्र तथा पति की सुख-समृद्धि के लिए यह व्रत करती हैं। उस ढके हुए प्रसाद को पुत्र ही खोलता है तथा उसे भाई-बंधुओं में बाँटा जाता है।
     सवेरा होते ही मैं प्रसाद के आकर्षण में सबसे पहले दतुअन करता। उस दिन मेरा भाव रहता। जिसको जितना दिया, उसे लेना पड़ा। आखिर देर तक माई के साथ मैं ही तो जागता। उस दिन न बाबुजी डाँटते और ना भैया को बचाने की नौबत आती। वैसे ही आज हो गया है। समय के परिंदे ने ऐसा पर मारा है कि हम लोग दूसरे काल खंड में चले आए है। कुछ ही दिनों में जेनरेशन बदलने लगता है। वन-जी हम समझे भी नहीं थे कि टू-जी के घोटालों ने सबको समझा दिया। स्पीड की चाहत में हम थ्री-जी ही ले रहे थे कि अब फोर-जी लांच हो गया है। यहाँ परिवार का मतलब ही समझ में नहीं आता। तब बाबुजी कभी मारने दौड़ते तो भैया लोग अपने पीठ की ओर सरकाकर बचा लेते। जब भी माई से बात होती थी तो एक ही बात टेरती थी, - ‘बाबू कुछ खाये हो? बाहर में जबान पर लगाम लगाकर रहना। ऊहे मुँहवा पान खिआवेला आ ऊहे जूता।’ अब न बाबुजी हैं, न मारते हैं, न भैया बचाते हैं। अब न माई है। न कोई खाने और रहने की बात उस ममता से पूछता है। तभी तो आज जब पत्नी तिलकूट चौथ की तैयारी में लगीं तो मुझे माई का चिलकूट चौथ व्रत याद आ गया। याद आ गया कोन (सकला, सकरकंद) के उबलने की गंध। याद आ गया तिल और मीठा के मेल का सुवास और उससे बना काटे जाने को तैयार भेंड़ा।
                                                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय
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