Jan 14, 2015

‘गँवार-कूटीर’ का मालपुआ


     मैं स्वयं में बचपन से ही साहित्यानुराग पाता रहा हूँ। सृजनशीलता स्नातक कक्षाओं में जन्मी। मन में उत्साह और श्री आर.डी.एन. श्रीवास्तव तथा डॉ वेदप्रकाश पाण्डेय की प्रेरणा और प्रयास से 14 जुलाई 2001 में सेवरही में साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ का श्रीगणेश मेरे लिए एक अलौकिक अनुभव था। ‘संवाद’ की सर्जना और उसके साहित्यिक-गोष्ठियों के सफर के परिणाम स्वरूप आस-पास के सुधि कविगणों से परिचय और अपनत्व होने लगा। उन्हीं में से एक धनी-हृदय के कवि रूप थे डॉ रामानंद राय ‘गँवार’। वैसे तो रामानंद राय ‘गँवार’   पशुचिकित्सक रहे परन्तु सबसे बड़े और पहले एक कवि थे। वे भोजपुरी साहित्य की साधना के बड़े साधक थे। संवाद की गोष्ठी में कई बार ऐसा हुआ कि श्रोताओं की बात तो दूर, साहित्यकारों के लाले पड़ जाते थे। उस समय में भी गँवार जी अपनी गाड़ी में एक-दो अन्य लोगों को भी लेकर पधारते थे। कई बार तो मेरे फोन करने से पहले उन्हीं का फोन आ जाता और पूछते कि फलां तारीख को दूसरा शनिवार है, गोष्ठी है न?
     साहित्य के प्रति ऐसा अनुराग बहुत कम कलमकारों में मिलता है। गँवार जी की लेखनी जब भी उठी, भोजपुरी का मान-वर्धन के लिए ही उठी। शैली कोई भी हो, उनकी विधा काव्य ही रही। उनके पास तत्कालीन जीवन और समाज के हालातों को देखने और अनुभव करने की एक अलग दृष्टि थी। उनका जन्म 13 फरवरी 1935 को सपहीं खुर्द हुआ, परन्तु पटहेरवा का ‘गँवार-कुटीर’ किसे याद नहीं है? उन्होंने साहित्यरत्न और आयुर्वेदरत्न से एम. ए. किया सरकारी सेवा में आ गए। उनमें कभी कलम की ताकत का दंभ नहीं देखा गया। कभी असहयोग की बात नहीं पाई गई। वे जिस भी तरह से थे, हमेशा सहयोग करने के लिए तत्पर रहते थे। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है जिसे गोष्ठी के 50 माह पूरा होने पर ‘संवाद’ स्मारिका के प्रकाशन और कवि-सम्मेलन के आयोजन के अवसर पर मैंने पाया। अपनी साहित्यिक सर्जना में उन्होंने बड़ी बखूबी से सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं पर अपनी दृष्टि रखते रहे हैं। भोजपुरी भाषा सम्मान सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत श्री गँवार जी का कवि समाज में व्याप्त लूट-खसोट को देखकर द्रवित भी होता है और संवेदनशील भी। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र पूर्णतः लूटतंत्र के परिणत हो गया है। सहज जनता के बीच अपने दाल को गलाने के लिए नेताओं ने अपने आप को अवसरानुसार बदला है। नेताओं की चतुराई से सरल जनता की त्रासदी पर लिखते हुए वे अपने ‘गँवार सतसई’ में कहते हैं, -
बइठल धुरतई आज अस, जस सुरसा के गाल।
सब सबक बाटे छलत, अइसन बिगड़ल चाल।।
     रामानंद राय ‘गँवार’ की दृष्टि बहुत दूर तक देखती थी। वे बेबाक स्वर में अपने विचारों को शब्दों का जामा पहनाने में सिद्धहस्त थे। व्यवहारिकता में अपने प्रतिद्वंदियों से भी लोहा मनवाने वाला यह कवि सामाजिक बदलाव को देखकर सामाजिक मान-मर्यादा की रक्षा का उपाय ढूँढने लगता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है, -
गुंडा चले गिरोह में, सज्जन चलै पराय।
कइसे इज्जत अब रही, जुगति न एक लखाय।।
     आकाशवाणी और दूरदर्शन पर निरंतर काव्यपाठ करते रहने वाले गँवार जी की रचनाएँ ‘संपदा’, ‘भोजपुरी माटी, ‘कुबेरनाथ’ जैसी असंख्य पत्रिकाओं का मान तो बढ़ाती ही रहीं, वे ‘संवाद’ जैसे अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भी आबद्ध रहे। ‘गँवार सतसई’, ‘राग-गँवार’, ‘अइसन हमार ई माटी ह’ जैसी रचनाओं को सृजित करने वाले गँवार जी कहीं-कहीं जागरुक हो कर सरकारी विचारों-व्यवहारों का समर्थन करते नजर आते हैं। जीवन की दैनिकी में ना ही वे अपनी माटी को भूलते हें और ना ही जीवन की गतिशीलता में माँ के ममत्व और महातम्य को ही। एक उदाहरण द्रष्टव्य है, -
कबो दरिया नियर ई बहत जिंदगी,
कबो झरना नियर ई झरत जिंदगी,
कबो आँधी-तूफां ई बवंडर हो जा
माई के गोद में ई पलल जिंदगी।
     लंबे-चौड़े शारीरिक डिल-डौल वाले गँवार जी हृदय के भी विशाल थे। उनकी भावना को तो सहजता से ही आँका जा सकता है कि हम साहित्य-प्रेमी जब कभी भी पटहेरवा से गुजरते, वे हमें बुला ही लेते। रस को आदर देते हुए वे काव्य-श्रवण को उतावले हो जाते। सुनाने से अधिक सुनने के आग्रही गँवार जी बड़ी उत्सुकता से कवियों को पुकारने लगते। एक क्षणिक गोष्ठी भी आयोजित हो जाती और फिर उनके यहाँ के मालपुआ के दौर को कौन भूल सकता है। काव्य रस के साथ ही ‘गँवार-कूटीर’ के किचन से उठता शुद्ध घी युक्त मालपुए का गंध काव्य-पाठ को और सरस बना देता। तैयार होने पर काव्य-पाठ बीच में ही रोक दी जाती। मालपुआ और पकौड़ों के बाद चाय की चुस्की। आज भी जब मैं किसी सवारी से पटहेरवा के नव-निर्मित फ्लाई ओवर से गुजरता हूँ तो ‘गँवार-कूटीर’ की ओर आयास ही देखने लगता हूँ। 
     भले ही गँवार जी का देहावसान 3 अगस्त 2010 को हो गया हो, परन्तु शब्द-ब्रह्म के साथ लेखनी की साधना करने वाले उनके व्यक्तित्व को कौन बिसार सकता है? उनका अनुकरण करते हुए कलम के सेवकों की नई बगिया तैयार होने लगी है। उनके आत्मजों में उनकी लेखनी को बचाने की बेचैनी भी है। उनके आग्रहियों का उनके प्रति आज भी अक्षुण श्रद्धाभाव है। कलम के नवीन साधकों से उनके जो अपेक्षाएँ थी, आज और बलवती होते दिखाई देती हैं। उनकी पंक्तियाँ आज के नवोदित कलमकारों से अपील करती नज़र आती हैं, -
देखो जला रही जग को है,
संघर्षों की अद्भुत ज्वाला।
प्रतिपल कँपा रहा सबको है?
भीमकाय बन संशय काला।
ज्वालाओं को सुधा-सिक्त कर
प्रेम-प्रसून खिला दे।
कवि ऐसा गीत सुना दे,
मानस में दीप जला दे।।
     उनके जीवन के अंतिम दिनों में उनकी दो और कृतियाँ ‘शैतान सिंह’ और ‘जवाहर’ आयीं। उनकी रचनाओं पर कई शोधार्थियों ने शोध भी किया है। अब उनके पुत्रद्वय उनका जन्मोत्सव एक साहित्यिक आयोजन के रूप में प्रतिवर्ष पटहेरवा (कुशीनगर), उत्तर-प्रदेश में मनाते हैं। उन पर एक स्मृति-ग्रंथ तैयार किया जा रहा है। भोजपुरी साहित्य को आनंदित करने वाले गँवार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन को अर्पित करते हुए आज मेरा माथा दर्प से उतुंग हो जाता है कि मुझे उनका सानिध्य मिला है, उनका अनुभव मिला है और उनके द्वारा निर्देशन भी मिला है। वे एक सरस हृदय वाले भावुक और काव्य-प्रेमी व्यक्ति थे। मेरे जैसे अदने से बालक के वैवाहिक उत्सव में उनका सहजता से सम्मिलत होना मुझे आह्लादित कर चुका है। मेरे लेखों पर उनकी बहुमूल्य टिप्पणियाँ मुझे निर्देशित करते हुए शक्ति दे चुकी हैं। उनकी कुपा और स्नेह को याद करके मैं स्वयं को धन्य समझता हूँ। इस धरती को धन्य समझता हूँ। भोजपुरी साहित्य को धन्य समझता हूँ। समझता हूँ कि बड़े गर्व से कहा जा सकता है कि तमकुही क्षेत्र के उस कलमकार का पार्थिव अस्तित्व भले ही स्मृति-शेष रह गया हो, परन्तु उनके कृतित्व की ऊर्वरा से यह सृजनशील धरती और लहलहाने गली है।
                                                                                          - केशव मोहन पाण्डेय 
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3 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 26 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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