Mar 5, 2013

सत्य

चित्र : गूगल 

तंत्री-नाद 
और कवित्त-रस 
मुझे बहुत पसंद हैं।
कनेर के फूलों पर मडराती 
काली, नीली और सतरंगी पक्षी 
और उछल-उछल कर 
मस्ती करती सोन चिरैया भी। 
मैं बहुत चाहता हूँ 
नदी किनारे 
उगते सूरज के साथ 
डूबते सँझा के बीच 
नाव चलाना, 
डूबकी लगाना, 
खूब नहाना, 
रोटी खाना, 
सत्य सजाना 
अपने जीवन की राहों में।
पर कहाँ कर पाता हूँ सब? 
प्रकृति का मौन निमंत्रण 
कहाँ पढ़ पाता हूँ।
जरूरतें भटका देती हैं 
बीच में ही,
नया रास्ता कहाँ गढ़ पाता हूँ?
अब तो 
एक ही बात समझ में आती है -
'केवल पैसा ही सत्य है' 
उसके बिना 
जीवन मिथ्या हो-ना-हो 
रिश्ते-नाते बेकार हो जाते हैं,
सब कुछ रहते हुए भी 
हम 
घुघनी खाए 
तथा कुत्ते द्वारा नोचे हुए 
बिना काम के 
रद्दी अखबार हो जाते हैं।।
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                 - केशव मोहन पाण्डेय 


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