Mar 15, 2013

समझ (लघुकथा)



         
         आज रवीश की शादी का ग्यारहवाँ वर्षगाँठ है। पति-पत्नी अपने दोनों बच्चों के साथ दिल्ली में रहते है। बच्चे एक अच्छे स्कूल में अध्ययन कर रहे है। रवीश की नौकरी भी अच्छी चल रही है। वह चाहता है कि वीणा भी नौकरी करे। वह हमेशा हिम्मत देता रहता है। कई बार तो दोनों में बहस भी होने लगती है। चर्चा, बहस, झगड़ा और फिर वही सब कुछ! - - हर दम्पति-जीवन की लीला।
         शादी के वर्षगाँठ की चाय पार्टी पर आये अतिथियों के सामने भी चर्चा शुरू हुई, मगर मोबाइल के रिंग ने आगे नहीं बढ़ने दिया। दोनों पहले फ़ोन उठाना चाहते थे। दोनों को लगा कि उनके पैरेंट्स का फ़ोन है। उठाया रवीश ने। फ़ोन पर कोई और ही था। - - था नहीं, - -थी। - - -रवीश की ग्यारह साल पहले की प्रेमिका। 
         रवीश ने बातें तो हँसकर की, मगर दिल जैसे दलदल में धँस गया। बातों से ही पता चला कि रवीश का नम्बर उसे इन्टरनेट से मिला है। आज के समय में यह इन्टरनेट नहीं, भगवान हो गया है। सबकुछ संभव है यहाँ! 
         रवीश के लिए तो पार्टी का मज़ा ही किरकिरा हो गया। सुबह उठाते ही रवीश ने अपना नम्बर चेंज कर दिया और आकर डरते-डरते वीणा को बाँहों में भरते हुए कहा, - 'तुम मेरा आज हो, कल भी तुम ही रहोगी। - - मैं पास्ट याद नहीं रखना चाहता वीणा।'
         'बीती बातें मन में एक आयास चलती हवा जैसी होती हैं। जब मन किया, शीतलता दे दिया, जब मन किया - धूल, रेत और न जाने क्या कुछ! - - इसका मतलब यह कत्तई नहीं की समय के साथ जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए आगे न बढ़ा जाय।' - वीणा ने चाय की प्याली रवीश की ओर बढ़ाते हुए कहा।
       रवीश भी सोचने लगा - सच ही तो है! - - जिस तरुण के हृदय में प्रीत की कलि न खिली, उसकी तरुणाई कैसी? जिस युवा के आँखों में स्नेह-सिक्त संसार का सृजन न हुआ, उसका यौवन कैसा? इसका मतलब यह तो नहीं कि आज भी मैं वही रहूँ!
        दोनों की समझ ने जीवन को और आकर्षक बना दिया। 
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                                                                                                      - केशव मोहन पाण्डेय 

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