Nov 15, 2015

आतंक को धिक्कार


मुझमें जितनी असभ्यता है
उससे भी नीचे जाकर
मैं गाली देता हूँ
उन बर्बर कृत्यों को
जो आतंक से अभिहित हैं।
मुझमें जीतनी भी
जैसी भी
सच्चाई है
आज सच्चे मन ने
उन्हें बटोर कर
मैं श्राप देता हूँ
उन नास्तिक विचारों को
जो मानवता के शत्रु हैं।
मुझे जो संस्कार दिए हैं माँ ने
पिता ने जैसे सँवारा है
मैं वह सब कुछ
उड़ेल देना चाहता हूँ
उन असामाजिक तत्त्वों में
जो इसी समाज में रहते हैं।
वे रोटी नहीं खाते
पानी नहीं पीते
चैन से नहीं रहते
चैन से नहीं जीते,
बस जान खाते हैं
खून पीते हैं
आतंक फैलाते हैं
आतंक में जीते है
और नफ़रत करते हैं मानवता से
बम-बारूद से जिन्हें प्यार है
ऐसे आतंक के संवाहक जीवन को
धिक्कार है।
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- केशव मोहन पाण्डेय

Oct 13, 2015

अाग्रह

'प्रतिलिपि काव्य प्रतिस्पर्धा' में सम्मिलित मेरी कविता। कृपया पढ़ें और पसंद आए तो लाइक करें। आपके मार्गदर्शन की भी अपेक्षा है। 
http://www.pratilipi.com/read?id=6031657224110080

Aug 28, 2015

बढ़ते जाना है


हार मत मानना
रे मन!
कदम बढ़ाते जाना
आँखें
लक्ष्य पर अड़ाते जाना।

क्या हुआ जो गिर गए?
ऐसे ही तो
अनगिनत साधु, संत
और असंख्य पीर गए।

जो चलोगे नहीं
तो गिरोगे कहाँ
और जो चलोगे नहीं
सिर्फ डरोगे गिरने से
तो लक्ष्य समर्पण कैसे करेगा
स्वयं को
तुम्हारे चरणों में?

अगर सोचते हो
लक्ष्य को पाना है
तो हर हाल में
आगे
और आगे
और आगे
बढ़ते जाना है।
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© केशव मोहन पाण्डेय

Aug 23, 2015

माँझी : विद्रोह और जिद्द की महागाथा

    रिलीज के दूसरे ही दिन ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म देखकर उठा तो मन कुछ लिखने को बेचैन हो गया। इस फिल्म पर लोगों की भरपूर प्रतिक्रियाएँ आयीं हैं। उन प्रतिक्रियाओं की कतार में मेरा कलम उठाना एक धृष्ठता ही है, क्योंकि मैं कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूँ। पर हाँ, उस संसार से परिचित हूँ। उस विधा से जुड़ा हूँ और देने वाले ने कुछ समझने वाली नजर भी दी है। इन सबसे अलग और बड़ी बात है कि फिल्म देखकर मन आह्लादित है। मनःस्थिति में बहुत कुछ उथल-पुथल चल रहा है। उथल-पुथल कथानक के कारण भी है, वस्तु-स्थिति के कारण भी है और प्रस्तुति के कारण भी है। ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ की कथानक से मैं पूर्णतः 2007 में परिचित हो चुका था। दशरथ माँझी के देहावसान के बाद कई दिनों तक गाहे-बेगाहे समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों पर चर्चाएँ होती रही थीं। 
    आज फिल्म को देखकर मन कई बार आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ को याद करता रहा। कई बार उनकी सर्जना ‘पहलवान का ढोलक’ को याद करता रहा। ‘मैला आँचल’ को याद करता रहा। और याद आती रही उनकी ही लेखनी की कारीगरी का कमाल ‘तीसरी कसम’। मन यही नहीं रूका। कई कलमकारों को याद करता रहा। कई बार राही मासूम रज़ा और उनकी कृति ‘आधा गाँव’, ‘नीम का पेड़’ और ‘टोपी शुक्ला’ को मैं याद करता रहा। सच कहूँ तो ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ को देखकर ‘लगान’ फिल्म भी याद आयी। बस इसलिए कि ‘लगान’ में आंचलिकता को निभाया गया है और ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ में जीया गया है। मेरे विचार से जीना दिखावेपन के धरातल की सरपट दौड़ती सड़क नहीं, वास्तविकता की चट्टानों से लैस चुनौती देता पहाड़ है।
मेरे विचार से ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ एक भाव-प्रवण फिल्म है। इसमें अन्याय का विरोध है और लाठी के विरूद्ध दाँत से काटकर बधुआ न बनने की शक्ति है। शृंगार का सौंदर्य तो है ही, ‘निराला’ के ‘श्याम तन भर बधा यौवन’ का शब्द-शिल्प भी साकार दिखायी देता है। सामर्थ्यहीन दाम्पत्य जीवन का मान और रार-तकरार है तो प्रेम को पाने की पराकाष्ठा भी और ‘फगुनिया’ के पिता की चिंता हर गरीब पिता की चिंता भी है। समुदाय विशेष की रीतियों के साथ ही रूढ़ियों का पूर्णतः चित्रण फिल्म की सार्थकता को बढ़ाते हुए दर्शकों को उनकी जमीन से जोड़े रहता है।
    फिल्म अपने भाव-पक्ष को हर स्तर पर पूर्ण न्याय के साथ प्रस्तुत करने में सफल मानी जा रही है। आज के समाज में सामान्य-से-सामान्य परिवार में भी मातृत्व काल के सपनों को नर्सिंग हाउसों में ही पूरा करने की कल्पना की जा रही है उसके विपरीत साठ के दषक की गरीब ‘फगुनिया’ गृहस्ती में लीन है और तालाब से जल लेते समय बच्चे को जन्म देती है। रोटी के स्वाद के लिए पसीना का टपकाना ही सुखद-जीवन की बुनियाद है। फिल्म अपनी मस्त धारा में बहती चली जाती है और दर्शक एक-एक चित्रण को अपनी आँखों से पीता चला जाता है। 
    सच कहूँ तो मुझे ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म एक जज़्बा की फिल्म लगती है। जज़्बा देश, काल का हो या परिस्थितियों से टकराने का। दशरथ माँझी का चरित्र किसी भी परिस्थिति से लड़ने का चरित्र है। वह अब्बर का समर्थक और जब्बर का विरोधी चरित्र है। चाहे गाँव के मुखिया के पास बधुआ बनने की बात हो या पहाड़ का सीना चीरने का प्रण। ‘मरद’ होने के प्रश्न पर कुल्हाड़ी के धौंस पर अपनी ब्याहता को जबरिया विदा करना का दम-खम हो या बाप के गाली-गलौज को मौन होकर सुनने की शक्ति। चाहे अकाल की परिस्थिति में भी काल से दो-दो हाथ करने की बात हो या पैदल ही दिल्ली की यात्रा पूर्ण करने का जिद्द।
    फिल्म की कहानी भले ही दशरथ माँझी की है मगर अभिनेताओं ने खूब जीया है। नवाजुद्दीन सिद्दिकी कहीं से भी अभिनेता नहीं लग रहे हैं। प्रारंभ से अंत तक लगता है कि साक्षात् दशरथ माँझी को ही देख रहे हैं। राधिका आप्टे भी अपनी भूमिका ईमानदारी से जी रही हैं, मगर नारी पात्रों में वास्तविकता के पास उनसे अधिक ‘लौकी’ लग रही है। फिल्म के पहले शॉट से अंत तक निर्देशक केतन मेहता की कलाकारी देखते बनती है। सिनेमेटोग्राफी भी उम्दा है। बस मुझे लगता है कि टूटते तारा को देखते समय पात्र कुछ अधिक अस्पष्ट हो गया है। वहाँ का रंग-संयोजन कुछ और संपादन लायक लगता है।
    साहित्य व सिनेमा का सीधा संबंध हृदय से होता है। इन दोनों माध्यमों में सिनेमा से कही गई बातों का असर तीब्र होता है। ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म अपने कथानक द्वारा मानव-मन के आंतरिक भावों को व्यक्त करने में पूर्णतः सफल नज़र आती है। अगर देखा जाय तो मुख्य रूप से आंचलिक फिल्मों को मर्मस्पर्शी बनाने में सार्थक व सहज आंचलिक शब्द-प्रयोगों का बड़ा महत्त्व है। फिल्म में प्रयुक्त सहज बातों में भी गालियों का प्रयोग हो या एक-एक संवाद की प्रस्तुति, सारी चीजें फिल्म को ऊँचाई देने में अपनी भूमिका निभाती हैं। किसी छोटे उम्र या जाति वाले व्यक्ति के नाम के आगे ‘वा’ लगाना हो या ‘मेहरिया’ हो या ‘ड़’ का ‘र’ बोलना या वाक्यों के पहले और अंतिम शब्दों पर जोर देकर बोलना, फिल्म को देशज आवरण में सजाकर गया (बिहार) के दशरथ माँझी के गाँव में पहुँचा देता है।
    संवाद में भाषा के सहज प्रयोग से फिल्म का कथानक और भी स्पष्ट व प्रभावशाली हो गया है। किसी भी दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति में भाषा का चयन संवाद को आकर्षक और पूर्ण बनाता है। निर्देशक केतन मेहता की कल्पना भाषा के सार्थक व सहज प्रयोग से पात्रों को साकार व जीवन्त कर बैठती है। पात्रों के हृदय की भावनाओं को भाषा के देशज प्रयोग ने सजीव कर दिया है।
    भाषा की शक्ति, कथानक का गुण, लयात्मक संवाद, सब मिलकर फिल्म को एक रोचक व मनोरंजक फिल्म बना रहे हैं। कुछ संवाद तो अनेक दर्शकों से जुबान से निकलने पर भी सुनता रहा। जैसे, ‘सब राजी-खुशी?’, ‘शानदार, जबरदस्त, जिन्दाबाद’, ‘जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं’ आदि। सहज, असरदार और बेजोड़ संवादों के साथ ही चित्रात्मक प्रस्तुत करने में भी यह फिल्म पूर्णतः सफल रही है। सीने में आग लिया दशरथ माँझी जब पहाड़ को चुनौनी देता है तो एक छोड़े से पत्थर से ही आग लगा देता है। अकाल के समय में जब माँझी जीवन से जुझने के लिए ताल ठोक लेता है तो पानी का स्रोत मिल जाता है। सबसे बड़ी बात कि माँझी जब जिद्द पर अड़ जाता है तो मुखिया, फगुनिया के पिता और पहाड़ से विद्रोह कर के वह आज का ‘दशरथ माँझी पथ’ का निर्माता बन जाता है।
    कुल मिलाकर ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म सिनेमा के स्क्रीन पर दशरथ माँझी के प्रेम, विद्रोह और जिद्द की महागाथा बन कर दर्पण की तरह उभरी है। यह फिल्म दशरथ की कथा को पात्रों के अभिनय, संवाद, देश-काल और वातावरण के साथ प्रस्तुत करने में सफल रही है। वास्तविकता यह है कि फिल्म देखते समय मैं कई बार कलाकारों के अभिनय, संवाद अदायगी व फिल्म की प्रस्तुति की सराहना तो कर ही रहा था, साथ ही अपनी पत्नी से हमेशा कहता रहता हूँ कि माँझी के संघर्ष की इस महागाथा को आॅस्कर में जाना चाहिए। जरूर जाना चाहिए।
                                                           ...................................                                                                  
                                                                                  - केशव मोहन पाण्डेय

Jul 19, 2015

स्किल इंडिया की आवश्यकता क्यों?

    आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्किल डेवलपमेंट की ऊर्जा भर के असंख्य युवाओं की आँखों में सुखद सपने भर दिया है। पर बात केवल सपने दिखने से तो पूरी होगी नहीं। वास्तविकता तो यह है कि वर्त्तमान समय में स्किल डेवलपमेंट के मामले में दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले भारत काफी पीछे है। नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएसओ) के मुताबिक देशभर में सिर्फ 3.5 फीसदी युवा ही कौशल-संपन्न हैं। अगर यह तुलना कुछ अन्य देशों से किया जाय तो पता चलता है कि चीन में 45 फीसदी, अमेरिका में 56 फीसदी, जर्मनी में 74 फीसदी, जापान में 80 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 96 फीसदी लोग स्किल ट्रेंड हैं। इसी दूरी को पाटने के लिए सरकार ने स्किल इंडिया मिशन की शुरुआत की है। इस मिशन को सफल बनाने में केंद्र सरकार के कई मंत्रालयों की भी अहम भूमिका होगी। जिसके माध्‍यम से स्किल डेवलपमेंट का कार्यक्रम चलाया जाएगा। जिसमें मुख्‍य रूप से रेल मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, प्रवासी भारतीय कार्य मंत्रालय, भारी उद्योग मंत्रालय, स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण मंत्रालय, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय, इस्‍पात मंत्रालय, विद्युत मंत्रालय और नवीन एवं नवीकरण ऊर्जा मंत्रालय तथा सामाजिक न्‍याय एवं अधिकारिता मंत्रालय शामिल हैं।
    दरअसल बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी हाल ही में कुशल कामगार तैयार करने और युवाओं को हुनरमंद बनाने के लिए स्किल इंडिया मिशन लांच किया है। मोदी जी अपनी सरकार बनने के बाद से ही स्किल डेवलपमेंट पर जोर देते रहे। अभी उन्होंने वर्ल्‍ड यूथ स्किल डे के अवसर पर इस मिशन की शुरुआत की जिससे इसकी अहमियत और बढ़ गई। सरकार का लक्ष्‍य इस मिशन के जरिए साल 2022 तक 40.2 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करना है। जिसमें 10.4 करोड़ युवाओं को स्किल ट्रेनिंग देकर ट्रेंड किया जाएगा जबकि इसी अवधि तक 29.8 करोड़ मौजूदा वर्कफोर्स को अतिरिक्‍त स्किल ट्रेनिंग भी इसके तहत देने की योजना है। दरअसल सरकार के स्किल इंडिया मिशन का मुख्‍य टारगेट भी यही है। इस मिशन के जरिए शिक्षा के साथ-साथ युवाओं को स्किल डेवलपमेंट में प्रशिक्षित करने पर रोजगार के अवसर उपलब्‍ध होंगे।
    स्किल इंडिया मिशन देश के लिए एक बड़ा अभियान है। इसके तहत सरकार असंगठित क्षेत्र के लोगों को ट्रेनिंग देगी। सरकार इस मिशन के जरिए युवाओं को हुनरमंद बनाकर रोजगार के काबिल बनाएगी जिसके लिए हर राज्‍य में स्किल यूनिर्वसिटी खोली जाएगी। इस मिशन के लिए सरकार ने इस साल बजट में 5,040 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं। युवाओं की आँखे सपने देखने लगी हैं। नई पौध तैयार हो रही है। युवा भी सहयोग के लिए कमर कस रहे हैं। आने वाला कल भारतीय स्किल्स का है। इससे लाखों बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। जीवन की सोच के साथ उद्देश्य बदल जायेगा। तब भारत का स्वरुप ही दूसरा हो जायेगा।
                                                              ————
                                                                                   – केशव मोहन पाण्डेय

Jul 5, 2015

सोशल नेटवर्किंग साइट्स और युवा-वर्ग


   आज का दौर युवाशक्ति का दौर है। भारत में इस समय 65 प्रतिशत के करीब युवा हैं। इन युवाओं को बड़ी ही सक्रियता से जोड़ने का काम सोशल मीडिया कर रहा है। युवा वर्ग में सोशल नेटवर्किंग साइट्स का क्रेज दिन-पर-दिन बढ़ता जा रहा है। युवाओं के उसी क्रेज़ के कारण आज सोशल नेटवर्किंग दुनिया भर में इंटरनेट पर होने वाली नंबर वन गतिविधि बन गया है। एक परिभाषा के अनुसार, ‘सोशल मीडिया को परस्पर संवाद का वेब आधारित एक ऐसा अत्यधिक गतिशील मंच कहा जा सकता है जिसके माध्यम से लोग संवाद करते हैं, आपसी जानकारियों का आदान-प्रदान करते हैं और उपयोगकर्ता जनित सामग्री को सामग्री सृजन की सहयोगात्मक प्रक्रिया के एक अंश के रूप में संशोधित करते हैं।’ सोशल नेटवर्किंग साइट्स युवाओं की जिंदगी का एक अहम अंग बन गया है। यह सही है कि इसके माध्यम से लोग अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के देश और दुनिया के हर कोने तक पहुँचा सकते हैं, परन्तु इससे अपराधों में भी वृद्धि हुई है।
    विगत दिनों मेरे विद्यालय में बच्चों के लिए ‘सोशल नेटवर्किंग साइट्स एवं साइबर क्राइम’ पर आधारित एक कार्यशाला आयोजित किया गया था। कार्यशाला ले रहे थे देश के जाने माने साइबर एक्पर्ट रक्षित टण्डन। देश के लाखों लोगों की तरह रक्षित जी की प्रतिभा का मैं भी कायल हूँ। उनके चाहने वालों में से एक मैं भी हूँ। उनके प्रस्तुति की मेधा और ज्ञान की गरिमा से मैं भी आकर्षित रहता हूँ। उस कार्यशाला ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं लिखने को बेचैन हो गया। लिखने बैठा तो कई बातें सामने आयीं। उन्हीं में से पता चला कि एक अध्ययन में यह दावा किया दावा किया गया है कि युवा वर्ग सोशल साइट्स में फेसबुक को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। निर्यातक कंपनी टी.सी.एस. की ओर से कराये गये सर्वे में युवाओं की सोशल साइट्स के बारे में प्रतिक्रिया जानने के बाद बताया गया कि फेसबुक को सबसे ज्यादा किशोर पसंद करते हैं।
    सर्वे से पता चला है कि फेसबुक के बाद युवाओं को गूगल प्लस और ट्विटर में रुची है। यह सर्वे 14 शहरों में कक्षा आठ से कक्षा 12 तक के 12,365 विद्यार्थियों से लिए गये राय पर आधारित हैं। सर्वेक्षण में शामिल लगभग 90 प्रतिशत विद्यार्थियों का कहना है कि वे फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं और फेसबुक उन्हें काफी पसंद है। वे छात्र किताबों को पढ़ने से अधिक सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपना समय बिताते रहते हैं। उसी सर्वे से ज्ञात होता है कि 65 प्रतिशत छात्रों ने गूगल प्लस तथा 44.1 प्रतिशत ने ट्वीटर के इस्तेमाल की बात कही है। इस सर्वेक्षण के अनुसार इसमें शामिल 45.5 प्रतिशत विद्यार्थियों का कहना है वे अपने स्कूली काम को निपटाने के लिए भी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट का इस्तेमाल करते हैं। उनके लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स सबसे उपयोगी साबित होता है। जहाँ तक पढाई का प्रश्न है तो विकिपीडिया 63.1 प्रतिशत के साथ पहले नंबर पर है। यह एक सार्थक और सकारात्मक पक्ष है।
    भारत सहित दुनिया के विभिन्न देशों में सोशल मीडिया ने सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं बल्कि कई सामाजिक व गैर-सरकारी संगठन भी अपने अभियानों को मजबूती दी है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स राजनैतिक पहलुओं को भी समझने और राजनैतिक विचारधाराओं को समझने में भी अमह भूमिका का निर्वहन कर रहा है। सोशल मीडिया सिर्फ अपना चेहरा दिखाने का माध्यम नहीं रह गया है, वह सामाजिक सोच और धार्मिक कट्टरता को भी स्पष्ट करने का माध्यम है। सोशल मीडिया सामाजिक कुण्ठाओं, धार्मिक विचारों पर अपना पक्ष तो रखता ही है, जिन देशों में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है, वहाँ भी अपनी बात कहने के लिए लोगों ने सोशल मीडिया का लोकतंत्रीकरण भी किया है। आज दुनिया का हर छठा व्यक्ति सोशल मीडिया का उपयोग कर रहा हैं। वर्तमान में यह सोशल मीडिया लोगों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया हैं। हम अगर किसी से नाराज हैं, किसी की बातों का प्रत्यक्ष प्रत्युत्तर नहीं दे पाते हैं, किसी ने आपको प्रसन्नता दी, किसी ने आपका दिल तोड़ा, कुछ अच्छा या बुरा खाए, किए, आज का युवा हर अगले मिनट अपना स्टेटस अपडेट करता रहता है। हमें जिसकी अज्ञानता पर आश्चर्य होता रहता है, वह भी पचास तार्किक सिद्धांतों से अपना प्रोफाइल भर देता है। सोसल साइट्स आज मन की भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम ही नहीं, मन को जोड़ने का भी साधन है। मन का राग-द्वेष, पीड़ा-शूल सब कुछ सहन करते ये अभिव्यक्ति के माध्यम कुंठित और प्रफुल्लित हृदय की भी अभिव्यक्ति हैं। अभिव्यक्ति के इन्हीं माध्यमों को दस्तावेज के तौर पर देखें तो लोगों की बेबाक एवं अवाक् टिप्पणियों से शब्दों का महत्त्व और मायने साफ हो जाता है। साफ हो जाता है कि कितने मायने रखते हैं वे शब्द जो हमारे मुखारबिंद से निकलते हैं और कितना उनका असर होता है सामने वाले पर और खुद अपने ही व्यक्तित्व पर।
    युवाओं के जीवन में सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है। अगर इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा जारी आंकड़ों की माने तो भारत के शहरी इलाकों में प्रत्येक चार में से तीन व्यक्ति सोशल मीडिया का किसी-न-किसी रूप में प्रयोग करता है। इसी रिपोर्ट में 35 प्रमुख शहरों के आंकड़ों के आधार पर यह भी बताया गया कि 77 प्रतिशत उपयोगकर्ता सोशल मीडिया का इस्तेमाल मोबाइल से करते हैं। सोशल मीडिया तक पहुँच कायम करने में मोबाइल का बहुत बड़ा योगदान है और इसमें भी युवाओं की भूमिका प्रमुख है। भारत में 25 साल से अधिक आयु की आबादी 50 प्रतिशत और 35 साल से कम आयु की 65 प्रतिशत है। इससे देखते हुए आँकड़े बताते हैं कि भारत में सोशल मीडिया पर प्रतिदिन करीब 30 मिनट समय लोगों द्वारा व्यतीत किया जा रहा है। इनमें अधिकतम कालेज जाने वाले विद्यार्थी (82 प्रतिशत) और युवा (84 प्रतिशत) पीढ़ी के लोग शामिल हैं। सोशल साइट्स ने स्कूली दिनों के साथियों से मिलवाया तो आज देश-दुनिया के कोने में रहने वाले मित्र भी एक-दूसरे को फेसबुक पर ढूँढ़ रहे हैं। सोशल मीडिया के द्वारा जिनसे वास्तविक जीवन में मुलाकातें भले ही न पाये पर सोशल साइट्स पर हमेशा जुड़े रहते हैं। सोशल मीडिया की सफलता इससे भी देखी जा सकती है कि परंपरागत मीडिया भी अब फेसबुक व ट्विटर जैसे माध्यमों पर न सिर्फ अपने पेज बनाकर उपस्थिति दर्ज करा रही है, बल्कि विभिन्न मुददों पर लोगों द्वारा व्यक्त की गयी राय को इस्तेमाल भी कर रही है। मैं स्वयं करीब 70 प्रतिशत ऐसे लोगों से जुड़ा हूँ, जिनसे प्रत्यक्ष रूप से कभी मिला नहीं। परन्तु हमारी आदतें, हमारी अभिरूचि, हमारा सोच आदि में मेल है और हम चैटिंग, व्हाट्सएप आदि पर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। मेरे कई साहित्यिक अभिरूचि के मित्रों की प्रतिक्रियाएँ मुझे प्रभावित करती हैं और कइयों के विचारों का मैं समर्थन भी करता हूँ।
    फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप, ऑरकुट, गूगल़, इंस्टाग्राम, पिनइंटेरेस्ट, ब्लॉग आदि सोशल मीडिया के और न जाने कितने ही रूप इन दिनों इंटरनेट की मायावी दुनिया में शुमार हो चुके हैं और इनके उपयोग करने वालों की संख्या भी रोज बढ़ती जा रही है। आज के इंटरनेट आधारित समय में हम वर्चुअल वर्ल्ड में जीते हैं, जिसका कोई ठोस अस्तित्व नहीं होता, जिसमें दिन या रात का कांसेप्ट नहीं होता, जिसमें कभी भी छुट्टी नहीं होती, ना ही कभी तालाबंदी होती है। यानी ये 24 गुणे 7 की शैली दुनिया के हर कोने के लोगों को हर पल आपस में जोड़े रखने में सक्षम है। सार्वदेशिक और सार्वकालिक है। सीमाओं से परे है। बहुत हद तक उम्र और संवेदनाओं से परे भी। इनके जरिए कहीं भी चार लोग उठते-बैठते नहीं देखे जा सकते। लेकिन सोशल मीडिया के जरिए इस प्रक्रिया को महसूस किया जा सकता है क्योंकि ये दुनिया सदैव जीवंत है। हर पल इसके जरिए हम किसी से भी जुड़ सकते हैं, बातें कह सकते हैं, अपनी सुना सकते हैं, उसकी सुन सकते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि ठोस रूप में आमने-सामने न होने की वजह से आपस में कोई असहज स्थिति नहीं आ सकती। एक-दूसरे में हाथापाई या सिर-फुटव्वल नहीं हो सकता। इससे बेलगाम तरीके से एक-दूसरे को कुछ भी कहने, गाली-गलौच तक की सुविधा आसान है। ये भी सुविधा है कि ऐसी स्थिति में जिससे बात करना या जिसकी बात सुनना न चाहें, उसे अनफ्रेंड कर दें, या ब्लॉक कर दें। सोशल मीडिया ने जीवनशैली को बहुत ही प्रभावित किया है। आज परिवार में चार सदस्यों के मिलने पर बातें नहीं होतीं, विचारों का आदान-प्रदान नहीं होता। सब मोम का पुतला बन कर अपने हेंडसेट्स के जरिए सोशल बनने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। यह आज की विडंबना है कि हम पारिवारिक तो बन नहीं पाते और सोशल बनने की होड़ में लगे रहते हैं।
    जिस तरीके से इंटरनेट पर मेल और चैटिंग की सुविधा ने पारंपरिक डाक व्यवस्था और टेलीफोन को किनारे कर दिया है, उसी तरीके से अब इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया भी पारंपरिक सामाजिक व्यवहार में कई तरह के बदलाव लाता दिख रहा है। इस सिलसिले में सबसे बड़ा मुद्दा है समय का। काफी लोगों की शिकायत रहती है कि सोशल मीडिया उनका समय बर्बाद करता है। आलसी बना देता है। परोक्ष रूप से आपकी जेब भी काट लेता है क्योंकि आज सोशल मीडिया पर जब सक्रिय रहते हैं तो इसका हिसाब रख पाना बेहद कठिन होता है कि असल में इंटरनेट का कितना चार्ज सर्विस प्रोवाइडर कंपनियाँ वसूल रही हैं और कई बार जब महीने का बिल आपके हाथ में आता है, तो आप हिसाब जोड़ते फिरते हैं कि आखिर कैसे बिल इतना बढ़ गया। इतना ही नहीं, हम सोशल साइट्स पर वास्तविकता को छुपाना चाहते हैं, अपनी कल्पनाओं को दिखाने में लगे रहते हैं। देश में कई ऐसी घटनाएँ सामने आयी हैं कि एक 35-40 साल का युवा 20-22 साल अपनी उम्र डालकर तथा कोई स्मार्ट सा फोटो डाल कर अपना प्रोफाइल बनाता है। उसकी प्रस्तुत करने की बेजोड़ क्षमता से आकर्षित होकर कई टीन एजर लड़कियाँ मित्र बना लेती हैं, बन जाती हैं। बात में मिलना-मिलाना, शादी का झाँसा और फिर शारीरिक संबंध। ऐसे युवाओं से कहना चाहूँगा कि यार दोस्ती ही करनी है तो परिचितों से क्यों नहीं? नए-नए पोज़ का सेल्फी सेकेण्ड में सोशल साइट्स पर डाल दिया जाता है। किसी अपरिचित मित्र का कमेन्ट आता है ‘वाॅउ’। आप रिप्लाई करते हो ‘थैंक यू’। फिर अनाप-सनाप कमेंट। जरा सोचो कि क्या राह चलते कोई लड़का तुम्हें देखकर ‘वाॅउ’ करे तो तुम ‘थैंक यू’ बोलोगे? अगर कोई आपके प्रोफाइल फोटो पर ‘क्या हाॅट है’ कमेंट करता है तो आप दिल या स्माइल का सिममबल भेजते हो, मगर वहीं लड़का आपके सामने आकर बोले तो आप उसे छेड़ने की जुर्म में अंदर करवा दोगे। जरा सोचिए कि क्या हम इतना भी रियल नहीं रह गए। सोशल साइट्स पर अभद्र कमेंट करना उतना ही अपराध है जितना प्रत्यक्ष।
    अक्सर युवावर्ग में ऐसा देखा जाता है कि वह सोशल मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा व्यस्त रहता है। दोस्तों से गप्पें लड़ाने में, लड़कियों को पटाने की कोशिश में, या फिर गेमिंग और ऐसी हरकतों में जिनसे उनके करियर या जिंदगी में कोई फायदा तो नहीं ही हो सकता। ऐसे चंद, बिरले ही युवा हैं, जिनकी सोशल मीडिया पर सक्रियता उनके लिए किसी तरह से लाभकारी साबित हुई हो, चाहे काम-काज या नौकरी के सिलसिले में या फिर निजी जीवन के किसी पहलू में। ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं, जिनमें सोशल मीडिया के अधिकाधिक इस्तेमाल से किसी व्यक्ति का भला हुआ हो। सोशल मीडिया पर दोस्ती बढ़ाकर लड़कियों को ठगे जाने के मामले रोज ही सामने आते हैं। दो-चार दिल सोशल मीडिया के जरिए भले ही आपस में जुड़ गए हों, लेकिन न जाने कितने ही दिल टूटने की खबरें अक्सर आती रहती हैं। कई मेट्रोमोलियल साइट्स पर अपना प्रोफाइल कुछ और बनाते हैं और होते कुछ और हैं। आये दिन इस प्रकार से ठगे जाने की शिकायतें आती रहती हैं। कई ऐसी घटनाएँ हैं जहाँ हम स्वयं को अच्छा और धनी दिखाने के चक्कर में लोगों की महँगी गाडि़यों के सामने अपनी सेल्फी लेकर डाल देते हैं और सामने वाले का नियत बदल जाता है तथा अपहरण और फिरौती जैसी घटनाएँ सामने आ जाती हैं। गुजरात की घटना प्रमाण है इसका। अतः युवावर्ग को सावधानी के साथ सोशल मीडिया का उपयोग करना चाहिए। अगर हम लंदन, न्यूयार्क या कनाडा छुट्टियाँ मनाने जा रहे हैं तो हमें इसे अपडेट करते समय भी सावधान रहना चाहिए।
    सोशल मीडिया के इस्तेमाल के कई आयाम हैं। कई लोग ये भी कह सकते हैं कि सोशल मीडिया उनके लिए काफी लाभकारी है। निस्संदेह, यह मेरे लिए भी अधिकांशतः लाभकारी सिद्ध हुआ है। यदि किसी को अपनी बात रखनी है, तो उसके लिए यह एक बढि़या मंच है, जहाँ पर हम अपने विचारों पर तुरंत प्रतिक्रिया भी पा जाते हैं। जिस पर हमारे कथित दोस्त और दुश्मन भी आपकी राय जान सकते हैं। हमारे विचारों से परिचित हो सकते हैं और उस पर अपना नजरिया पेश कर सकते हैं। कारोबारियों के लिए सोशल मीडिया अपने ब्रांड प्रमोशन का जरिया बन गया है। पेज बनाकर उसे लाइक करने और करवाने की कोशिशें प्रमोशन के फंडे में शामिल हो गई हैं। राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के लिए भी सोशल मीडिया अपनी बात लोगों के सामने लाने का एक सशक्त औजार बन गया है और सिर्फ अपनी बात सामने रखने का ही नहीं, उस पर फीडबैक हासिल करने का भी ये एक बड़ा जरिया है, क्योंकि किसी पक्ष की ओर से कोई बात फेसबुक या ट्विटर पर कही जाती है तो जल्द से जल्द उस पर प्रतिक्रियाएँ आनी शुरु हो जाती हैं। वैसे कई बार स्वयं को असहाय अनुभव करने पर ये सोशल साइट्स हमारे सहयोगी सिद्ध होते हैं। अभी हाल ही में एक प्रतियोगिता के लिए एक नाटक की तैयारी चल रही थी। कल सुबह 7 बजे रिर्पोटिंग है और शाम को 7 बजे एक छात्रा के पिता ने शहर से बाहर जाने की विवशता बता कर मना कर दिया। मेरी क्या दशा हुई होगी, आप सहज कल्पना कर सके हैं। फिर एक छात्रा के पिता से बात हुई, वे तैयार हुए और मुझे स्क्रीप्ट मेल करने को बोले। तबतक रात का 10 बज चुका था। फिर उन्होंने बताया कि प्रिंट तो नहीं हो पाएगा। वहाँ व्हाट्सएप ने साथ दिया। कई बार कुछ विचार आते हैं और तत्काल फेसबुक और ट्वीटर पर अपडेट कर के हम दूसरों की राय ले लेते हैं। अभी हाल ही में मुझे अपने गृहनगर में एक कार्यक्रम में बोलना था मगर कोई स्क्रीप्ट नहीं था। मेरा हेंडसेट था और उसी मुद्दे पर मैं अपने ब्लाॅग पर लिख चुका था। तुरन्त अपने उस पोस्ट को ओपेन किया और एक पसंदीदा वक्ता का प्रमाण दे दिया। कई बार अपने ज्ञान को दिखाने के लिए भी गुगल आदि का उपयोग मैं धड़ल्ले से करता रहता हूँ।
    युवाओं से मैं बतना चाहूँगा कि आज हम लाख प्रयास करें तब भी सोशल मीडिया से दूर नहीं रह सकते। रहना भी नहीं चाहिए। समय के साथ गतिशील रहना ही एक जागरूक युवा की पहचान है। बस हमें थोड़ा सावधान रहना चाहिए जिससे कि कोई हमें चिट न करे। हम किसी को चिट न करे। हमें ध्यान रखना चाहिए कि सोशल मीडिया पर आकर्षक दिखने वाला प्रोफाइल कोई आवश्यक नहीं कि वास्तव में वैसा ही हो। हमें सोशल साइट्स का उपयोग अपने या किसी और के जीवन का बंटाधार करने में नहीं, उसे सँवारने में लगाना चाहिए।
                                             ……………………………………..
                                                                         – केशव मोहन पाण्डेेय

Jun 7, 2015

कुतर्क छोड़िये


कृपया एक मिनट समय दीजिये -
     "सुना है मैगी मे थोडा रासायन बढ गया, इसलिए उस पर बैन लगेगा....
     तम्बाकू, सिगरेट और शराब मे सरकार को, उम्र बढाने के कौनसे
     विटामिन, प्रोटीन दिखे जिनके लाईसेन्स वो रोज जारी कर रही है.".

    लोग मैगी पर बैन के विरोध में उपरोक्त तर्क दे रहे हैं। मैं अपने उन भाइयों से बताना चाहूँगा कि ‘बस दो मिनट’ में तैयार होने वाली मैगी आपके नौनिहालों की सेहत भी दांव पर लगा सकती है। खाद्य संरक्षा व औषधि प्रशासन (एफएसडीए) ने हाल ही बाराबंकी के एक मल्टी स्टोर से लिए गए मैगी के नमूनों की जांच कोलकाता की रेफरल लैब से कराई। जांच में यह नमूना फेल हो गया और इसमें मोनोसोडियम ग्लूटामेट नाम का एमिनो एसिड खतरनाक स्तर तक पाया गया। मैगी में प्रयोग किये गए रसायन एमएसजी की मात्रा का मानक 2.5 रखा गया है और कंपनी 17.65 प्रयोग कर रही है, जो बच्चों के लिए बेहद नुकसानदायक है। एफएसडीए एक्ट के तहत मोनोसोडियम ग्लूटामेट का प्रयोग किए जाने वाली सामग्री के रैपर पर इसकी मौजूदगी साफ-साफ दर्ज करनी होती है। साथ यह भी लिखना होता है कि 12 साल से कम उम्र के बच्चे इसका कतई प्रयोग न करें।एमीनो एसिड श्रेणी का मोनोसोडियम ग्लूटामेट केमिकल वाली खाद्य सामग्री बच्चों की सेहत दांव पर लगा सकती है।यह केमिकल खाने से बच्चे न केवल इसके एडिक्ट हो सकते हैं बल्कि दूसरी चीजें खाने से नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। मैगी खाने वाले छोटे बच्चों के शारीरिक विकास पर भी असर पड़ता है। मोनोसोडियम ग्लूटामेट बच्चों की पाचन क्षमता खराब कर देता है। इससे बच्चों में पेट में दर्द, रोटी-सब्जी, फल खाने पर उल्टी आने, शरीर में सुस्ती, गर्दन के पीछे की नसों के कमजोर होने से स्कूली बस्ते तक का भार न उठा पाने और याददाश्त कमजोर होने की शिकायत हो सकती है। 
    जहाँ तक उपरोक्त उत्पादों की बात है, यह तो सभी जानते हैं कि तम्बाकू, सिगरेट और शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लोग तो इस व्यसन को जानबूझ कर अपनाते है। दूसरी बात कि लोग भले स्वयं इस व्यसन में डूब जाते हैं, मगर अपनी संतानों को तो दूर रखते हैं और मैगी को हम खुद ही बच्चों को दे रहे हैं। तब मुझे उपर्युक्त तर्क फालतू और खुद से ही बेमानी लगता है। इस हाल में भी तम्बाकू, सिगरेट और शराब आदि पर 60 प्रतिशत हिस्से में वैधानिक चेतावनी लगी रहती है और यहाँ तो नेस्ले कंपनी अपनी गलती तक नहीं मान रही है।
    फिर भी बच्चों की बात है। सोचना तो पड़ेगा ही। सोचिये! तर्क के साथ सोचिये। कुतर्क छोड़िये। 
                                                              ----------------
                                                                          - केशव मोहन पाण्डेय 

Jun 5, 2015

मानव की बंदगी

















ज़िन्दगी केवल शहरों से नहीं है
गाँवों से है
गुनगुनाती धूप से है
डरावनी बरसाती रातों से है
और पेड़ों की छावों से है।
 ज़िन्दगी फूल है
पत्ती है
शाखा और तना है
ज़िन्दगी पानी है
जंगल है
जंगल भी घना है।
ज़िन्दगी पेड़ों की टहनी है
टहनी पर चिड़िया है
पर्यावरण के साथ
हम चढ़ सकते सीढियाँ हैं
प्रकृति से अलग
न जीवन है
न उसकी कल्पना है
साथ है स्वच्छ पर्यावरण तो
जिंदगी सबसे कलात्मक अल्पना है
आओ बचाएँ पर्यावरण
तो अक्षुण ज़िन्दगी होगी
चिरंतन काल तक तब
मानव की बंदगी होगी।
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- केशव मोहन पाण्डेय









Jun 3, 2015

तू बाम्हन, मैं कासी का जोलहा


    हिन्दू समाज के पतनोन्मुख काल में कबीरदास का आविर्भाव हुआ था। ब्र्राह्मण वर्ण जहाँ सिद्धांततः एकता तथा समानता का हामी था वही व्यवहारतः वर्ण-व्यवस्था का पोषक था। उस समय देष में विभिन्न साधना-पद्धतियों और संप्रदायों का प्रचलन था। सभी अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने में लगे थे। कोई देव-पाठी था तो कोई उदासी। कोई दीन बना रहता तो कोई दान-पुण्य में व्यस्त रहता। कोई मदिरा सेवन को साधना का चरम मानता तो कोई तंत्र-मंत्र के तमाशे दिखाता। कोई सिद्ध था तो कोई तीर्थ-व्रती। अगर यह कहा जाय कि उस समय मिथ्या अभिमान तथा ब्राह्याचार के थोथे आडंबर के कारण हिन्दू समाज का और हिन्दू मान्यताओं का पतन हो रहा था तो कुछ भी गलत नहीं होगा। हिन्दू और मुसलमान दोनों बड़ी तादाद में आडंबरों के अधीन होते जा रहे थे। कबीर ने अपनी रचनाओं से आडंबरों, धार्मिक संकीर्णताओं और संकुचित मानसिकताओं के अंधकार को रास्ता दिखाने का काम किया है। उन्होंने अपने समय के सामाजिक आडंबरों और दोषों का बेहिचक और निडर रूप से वर्णन किया। वे ना तो हिन्दू थे और ना ही मुसलमान। वे हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। वे अच्छाइयों को स्वीकारने में झिझकते नहीं थे और बुराइयों का खुलकर विरोध करते थे। उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है। वे दिनभर रोजा रखकर रात को गायों की कुर्बानी देने वाले रोजेदार मुसलमानों का विरोध करते हुए कहते हैं, -
दिन को रोजा रखत है, रात हनत है गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुश खुदाय।।
  बाबा कबीर दास मानवीय गुणों को महत्त्व देने वाले व्यक्ति थे। वे मानवता के सेवक और मानवता के ही उपासक थे। वे किसी जाति, धर्म, संप्रदाय में सीमित होने वाले व्यक्ति नहीं थे। उनका ईश्वर ही उनका खुदा था। उनके राम और रहीम में कोई भेद नहीं है। उनके इष्ट मंदिर में भी रहते थे और मस्जिद में भी। उनके आराध्य फूल-अक्षत और सिजदा से प्रसन्न होने वाले नहीं थे, वे तो मन की पवित्रता से ही आराधक के हो जाने वाले थे। जो लोग ईश्वर और खुदा में भेद मानते हैं, कबीर ने उनके गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा है। 
    कबीरदास का समाज छुआछूत की बीमारी से बहुत ग्रसित था। उस समय जाति-भेद और वर्ण-भेद चरम पर था। वे धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व करने वालों से हमेशा छत्तीस का आँकड़ा रखते थे। उनके अनुसार समाज को सही दिशा देने का उत्तरदायित्व मुल्लाओं और पंडितों का था, जो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर रहे थे। वे हमेशा मुल्लाओं और पंडितों की भत्र्सना करते थे। उनका विद्रोही स्वर सिर्फ मुसलमानों का विरोधी नहीं था, अपितु हिन्दुओं के धर्म, तीर्थ, व्रत, मूर्ति-पूजा आदि का भी विरोधी था। कबीर ने एक और ‘पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहाड़’ कह कर हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा का विरोध किया तो दूसरी और प्रेम, प्रकृति, व्यवहार आदि पर अपनी नीति-परक अनुभवी दृष्टि डाली। कबीर के व्यंग्य का सर्वाधिक विषय धार्मिक आडंबर और कर्मकांड रहा है। कबीरदास जी का सिर मुड़ाकर संन्यासी बनने वालों पर एक व्यंग्य देखिए -
मुड़ मुड़ाये हरि मिलै, सब कोई लेई मुड़ाय।
बार-बार के मुड़ते, भेंड़ न बैकुण्ठ जाय।।
   कबीर के धार्मिक मत सहज थे। वे अपने सहज धार्मिक विचारों के अंतर्गत समदर्शिता के साथ ही अन्य नैतिक संयमों पर बल दिया है। कबीर के संयम विधान में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, परोपकार, ब्रह्मचर्य, इंद्रीय-निग्रह, सत्संग, ज्ञान आदि हैं। कबीर के समय में सामाजिक परिथितियाँ प्रतिकूल थीं। समाज में गतिषीलता के स्थान पर जड़ता का साम्राज्य था। जनता चारों ओर से असहाय होकर अपना सहारा ढूँढ रही थी। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में जनता का ईश्वर के शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं था। यह तो हर काल-खंड और परिस्थिति की बात है कि ईश्वर सबका होता है और सब ईश्वर के होते हैं, अतएव उस परिस्थिति में सुख-साधनों का एकत्रण सुखकर नहीं है। कबीर ने उस परिस्थिति में भी ‘संतोषम् परमं सुखम्’ के शंखनाद को पूरजोर स्वर दिया। उन्होंने कहा है, -
गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।
    कबीर का काल संक्रांति का काल था। उस संक्रांति का की विषम परिस्थितियों में कबीर को मार्गदर्शक का काम करना था। उस समय तो धर्म और समाज में से किसी एक की श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा था। कबीर ने उन नकारात्मक प्रयासों को छिन्न-भिन्न कर के मानवता के विकास के लिए सामान्य धर्म और सामान्य समाज की स्थापना करने का प्रयास किया। सरल जीवन बड़ा कठीन होता है। वे सरल जीवन को अनुभव के धरातल पर स्थापित करना चाह रहे थे। वे अनुभवजन्य ज्ञान के समक्ष पुस्तकीय ज्ञान को तुच्छ समझते थे।
    कबीरदास ने जीवन के पुस्तक को स्वयं पढ़ा और ‘ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय’ कह कर दूसरे को भी प्रीति के पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इस बात को कबीर भी मानते थे कि जीवन यापन के लिए धन आवश्यक है, परन्तु वे संचयवृŸिा के समर्थक नहीं थे। वे संचयवृŸिा को सामाजिक विषमता की जननी मानते थे। अराजकता का केंद्र मानते थे। वैमनष्य का आधार मानते थे। असहिष्णुता का घर मानते थे। उनकी मान्यता थी कि पशु-पक्षी या जीव-जन्तु भी तो जीवन व्यतीत करते हैं। वे तो बिना पूँजी के ही जीवन का आनन्द उठाते हैं। अतः धन के संचय की प्रवृŸिा त्याज्य है। वे सदा भोजन और उच्च विचार का आदर्श मानते थे। वे गोश्त-रोटी के बदले खिचड़ी खाने के पक्ष में थे, क्योंकि उन्होंने कहा भी है ‘हेरा रोटी कारनै, गला कटावै कौन।’
    किंवदन्ती है कि कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के कोख से हुआ था, जिसने लोक-लाज के कारण उन्हें त्याग दिया था। निरू और निमा नामक जुलाहा दंपति ने उन्हें ‘लहरतारा’ के किनारे पाया था। इस प्रकार वे ब्राह्मण होते हुए भी जुलाहा हो गए। कबीर के इस जीवन-घटना का उनके विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उन्हें लगता है कि कोई परम शक्ति हमारे कर्मों का परिणाम हमें दिया करती है। वे समस्त तŸववाद का निचोड़ राम-नाम को मानते हैं। उनकी मान्यता है कि राम से विरत किये गये कृत्य बंधन है। वे मानते हैं कि समाज के तथाकथित उच्च वर्ग सिर्फ उस वर्ग में जन्म ले लेने से महान नहीं बन जाता। वे ज्ञान को महŸव देते हैं। वे कहते हैं कि तू ब्राह्मण (तथाकथित ज्ञानी) हो और मैं काशी का जुलाहा। तुम्हें मेरे ज्ञान की परख नहीं है। यह तो कर्मों की बात है कि ओछे कर्मों के कारण और तप विहिन होने के कारण मैं भी पूर्व जन्म में ब्राह्मण होते हुए भी राम-सेवा में चूक के कारण जुलाहा बन गया। कबीर अपने जुलाहा बनने की बात कह कर स्वयं को कोस नहीं रहे हैं, उन ज्ञानियों को बताना चाहते हैं कि कल तुम भी जुलाहा बन सकते हो। अतः राम (सत्य) की सेवा से चूकना नहीं चाहिए। आप भी देखिए -
‘तू बाम्हन मैं कासी का जोलहा, चीन्हि न मोर गियाना।
तैं सब माँगै भूपति राजा, मोरे राम धियाना।
पूरब जनम हम बाम्हन होते,  ओछे करम तप हीना।
रामदेव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीना।।
    कबीर सहज पंथ की भक्ति भावना रखते थे। उनके दर्शन में मायावाद की स्पष्ट झलक है। वे पूर्ण रूप से एक कवि हैं तो समर्थ भाव से एक विचारक हैं। वे एक क्रूर आलोचक हैं तो सहृदय समाज-सुधारक। वे निडर वक्ता हैं तो भावुक ज्ञानी। उन्होंने अपनी रचनाओं की मनका पर प्रेम का रंग चढ़ाया है तो मनका के रंगों में कही उस प्रेम का रहस्य भी अंतध्र्यान है। संत कबीरदास भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वे कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।
    कबीर की रचनाओं में अद्भुत प्रतीक विधानों को देखा जा सकता है। कबीर भारतीय संप्रदाय और धर्म-साधना के शीर्ष पर विराजमान हैं। काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि कबीर, सन्त कवि और समाज सुधारक थे। वे सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- श्मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।श्उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति्त, रोजा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर में उपरोक्त सभी गुणों के साथ ही मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत व्यावहारिक विचार भी है। यह अतिशयोक्ति नहीं कहा जाएगा कि कबीर अपने समय के रूढि़गत सामंती दुराचार और अन्यायी सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध डंटकर लड़ते भी हैं और किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को लड़ना सिखाते भी हैं।
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                                                             - केशव मोहन पाण्डेय 

May 17, 2015

रहिमन पानी राखिए …


    आजकल उत्तर भारत गर्मी की नज़र में है। दिल्ली की दशा कुछ अधिक दयनीय है। यह दयनीयता केवल दिल्ली की जनता के लिए ही नहीं है, यहाँ के सर्वमत संपन्न मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए भी है। मुफ्त पानी-बिजली का सब्ज-स्वप्न दिखाकर सत्ता तक पहुँचाना भले ही आसान रहा हो, मगर अब सत्ता संभालने के बाद बेचारे पार्टी, सरकार और जनता के अंदर-बाहर, चारों ओर अपना पानी बचाने में लगे हैं। अब जनता की सुधि लेने का समय नहीं हैं। अब तो वैसे ही उनके सिर तक पानी पहुँच चुका है। 
    अब गाहे-बेगाहे, सुबह-शाम पानी की पुकार और सरकार से गुहार का दृश्य दिख जाता है। कल शाम को कमरे से निकला ही था कि महिपालपुर लाल बत्ती के पास, वसंतकुंज मार्ग पर बेजोड़ जाम दिखा। पता चला कि यह जाम ट्रैफिक के कारण नहीं, पानी के कारण है। यह स्थिति सुबह से दो बार आ चुकी है। औरतें पानी का ड्रम लेकर सड़क पर बैठ गई हैं और सड़क जाम। मामला है कि कहाँ तो मुफ्त पानी का सपना और कहाँ पानी-पानी के लिए तरसना। 

    'पानी' का पोस्टर लेकर औरतें केजरीवाल सर को पानी-पानी होने से बचने की सलाह दे रहीं हैं। और सर हैं कि पार्टी के अंदर और बाहर 'टक्कर' लेने-देने पर उतारू हैं। न्यूज़ चैनल ऑन किया तो 'केजरीवाल के टक्कर' देखकर तरस आने लगी। सर, कथनी और करनी दो दिलों की बात है न। आप भी तो यहीं मानते हैं न। आप ही कहाँ कम हैं। तरस भारतीय राजनीति की संभावनाओं पर आने लगी। तरस दिल्ली की पढ़ी-लिखी जनता पर आने लगी। कम पढ़े-लिए भावनाओं में भले बहते हैं, मुफ्त की रोटी नहीं चाहते। तरस महिपालपुर  की उस 64 प्रतिशत जनता पर आने लगी कि उन्होंने भी बिजली-पानी के सपनों को ही चुना था। अब वहीं जनता कई-कई दिन तक पानी के लिए तरस रही है और जो बचा हुआ पानी है, उसे संभालने में ही समय गँवा रही है। अब वहीं जनता स्वम के साथ-साथ सरकार से भी 'रहिमन पानी राखिये' का ज्ञान दे रही है। 
    ये अलग बात है कि सरकार को अभी कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। सत्ता के मद में कान काम करना छोड़ देता है। सरकारें बहुत जल्द भूल जाती हैं कि जनता भले अपने निर्णय पर पश्चाताप कर ले, मगर एक समय ऐसा आता है कि विश्व-भ्रमण धरा का धरा रह जाता है, अपना पानी बचाने के लिए कइयों को 59 दिवसीय अज्ञातवास पर जाना पड़ता है। तब गलतियों के बाद क्षमा माँगने की राजनीति काम नहीं आती। 
मैं भी बहुत बोल दिया। सर! अगर आपके दिल को चोट पहुँचे तो मैं सबके सामने माफ़ी माँगता हूँ। आप भी तो यहीं करते हैं। मगर मुफ्त पानी का क्या हुआ?
                                                                     --------------- 
                                                                           -केशव मोहन पाण्डेय 

May 11, 2015

एक और मर्दानी


     किसी ट्रैफिक पुलिस द्वारा की गई यह पहली बदतमीज़ी नहीं है। दिल्ली, गुडगाँव और अन्य एन.सी.आर. में तो आये दिन अनेक सतीश चन्द्र मिल जाते हैं। जब मैं इन्हें देखता हूँ तो कई बार अपनी शिकार की टोह में दम साधे, निशाना लगाए सियार से कम नहीं लगते ये लोग। तब मुझे अपने स्कूल के समय अक्सर दुहराते हुए ज्ञान बाँटने वाले अपने कज़न भाई नन्द किशोर की याद आ जाती है। हम अनुभवहीन कल्पना से हमेशा कुछ न कुछ बातें गढ़ा करते थे। मेरे वे भाई जान कहते रहते थे कि पुलिस वालों को ट्रेनिंग में हर बात में तीन गालियाँ देने का अभ्यास करवाया जाता है। - 'साले, फिर बहन पर, फिर माँ पर।' वह चित्र दिमाग में यूँ ही नहीं बैठ गया है, मेरे चाचा जी कहते थे कि 'दरोगा' शब्द को तोड़ने पर बनता है - द, रो, गा। फिर 'थाना' शब्द को तोड़ने पर बनता है - था, ना। 

    मतलब आप मामले में थे या नहीं, पुलिस वालों की तीन गालियाँ सुननी ही हैं और साथ में पैसे 'रो' कर या 'गा' कर, आपको देना ही है। आज वे सारी बातें पुनः प्रत्यक्ष हो गईं। दो सौ रूपये में मामले को रफा-दफा करने का ऑफर देने वाले दिल्ली ट्रैफिक के हेड कॉन्स्टेबल सतीश चन्द्र जी ने दिया। सोचा, महिला है, वर्दी के धौंस पर जेब गरम कर ही देगी। पहले बत्ती जम्प पर चार्ज लगाया। महिला चार्ज देने को तैयार तो थी, मगर उसे रिसीविंग चाहिए था। जो कही से गलत नहीं है। महिला रमनजीत कौर की स्कूटी पर लात मारकर कॉन्स्टेबल साहब ने गिरा दिया। कामकाजी महिलाएँ बोल्ड होती हैं, यह तो सभी मानते हैं, मगर आज एक हाउस वाइफ रमनजीत ने भी अपनी बोलडनेस दिखाई। कॉन्स्टेबल महोदय की बाइक पर पत्थर दे मारा। सतीश चन्द्र साहब आग बबूला हो गए। महिला की कमर पर पत्थर दे मारा। ये सारा दृश्य एक यात्री अपने कैमरे में बड़ी ही चतुराई से कैद कर रहा था, जो टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है। 
     डिजिटल लाइफ और साइबर वर्ल्ड की सिर्फ खामियों को गिनने वाले आज उसकी एक और सकारात्मक पहलू देख उदास हुए होंगे। खैर, बात ये है कि भ्रष्टाचार का विरोध करना और पत्थर खाना उचित ही समझा जाये। मधुर परिणाम पाने के लिए पत्थर तो खाना ही पड़ेगा। हमने भी असंख्य बार पत्थर, डंडे और ढेला आदि मार-मार कर मीठे फल पाये हैं। खूब झरबेर झारे हैं। खूब आम टपकाए हैं। तो क्या चोट की डर से घूस को प्रश्रय देना चाहिए? या फिर चोट खा कर भी समाज को सीख देनी चाहिए?
     मैंने टीवी स्क्रीन पर अमरजीत कौर की बेटी को देखा। दर्प से दीप्त मस्तक मानो कह रहा हो, आज मदर्स डे पर मेरी माँ ने (फिर एक माँ ने) हर माताओं के लिए फिर से एक नज़ीर प्रस्तुत किया है। अपनी बेटियों के लिए अमरजीत कौर एक मर्दानी हैं। अब उनकी बेटियाँ भी कभी मुसीबत में पड़ीं तो निडरता से सामना करने में सक्षम रहेंगी। 
   दिल्ली पुलिस ने भी अपनी बहादूरी दिखाई है। अपने ही कुनबे के किसी सदस्य की गलतियों को स्वीकार कर उसके विरुद्ध कार्यवाही करना बहादूरी ही है। सच ही, वह दिन दूर नहीं की उस मर्दानी माँ अमरजीत कौर की निडरता तथा पुलिस विभाग की न्यायप्रिय बहादुरी के कारण मैं अपने कज़न और अपने चाचा जी के कहावतों को झूठा सिद्ध कर दूँगा और हम निडरता से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करेंगे। 
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                                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय 

May 1, 2015

मैं मजदूर हूँ

    मैं मजदूर हूँ। हाँफता, काँपता मजदूर। खुशियाँ बनाता, खुशियों की दुनिया बसाता मजदूर। मैं मजदूर हूँ। मेहनतकश मजदूर। आलस्य से मेरा कोई वास्ता नहीं। काम से भी कभी नफरत नहीं। मैं दिन रात मेहनत करने के लिए बना हूँ। मैं अनवरत मेहनत करता हूँ। मैं कल-कारखाने बनाता हूँ। मैं सुई से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनें बनाता हूँ। उन्हें चलाता भी मैं ही हूँ। पछताता भी मैं ही हूँ। फिर से मेहनत करता हूँ। मैं जिन्दगी के साथ होड़ लगाये चलता हूँ। कई बार तो मैंने हरा भी दिया है जिंदगी को। सरिया में बिध कर भी मैं जी उठा हूँ। 
    मैं मजदूर हूँ। वह मजदूर, जो मौसम की हर मार सहता है। मेरा शरीर पसीने से लतपथ रहता है। केवल बंडी-बनियान से पुस को झेलता है। निरन्तर वर्षा में भिंगते हुए भी मैं अपने काम से मुँह नहीं मोड़ता। भले पेट में रोटी नहीं गया हो तो भी चेहरे पर चमक होती है। अधर पर अक्षय मुस्कान रहती है। आँखों में मंजिल। जब मैं अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर लेता हूँ, तब तो मैं ही विश्व-विजेता होता हूँ।
    मैं मजदूर हूँ। सपनों को पालत मजदूर। सत्य के धरातल पर जी रहा मजदूर। फ्रांस की क्रांति से अमर हो चुका मजदूर। पर आज भी असहाय हूँ। आज भी असफल माना जाता हूँ। आज भी अकिंचन कहा जाता हूँ। तो क्या? मैं जिंदगियाँ देता हूँ। सड़क, बाजार, घर, दुकान, मंडी, कल-कारखाने और खेतों में भी मेरी ही मजदूरी है। मैं अपने दम पर संसार को पालता हूँ। जिंदगी मेरे साथ है। मेहनत मेरे साथ है। काम ही मेरी संपत्ति है। पसीना ही मेरा जागीर। भले मैं आँसू बहाता हूँ, मगर दूसरे की आँखों में आँसू नहीं देख सकता।
    चाहे देश कोई भी हो, मेरी कहानी एक ही जैसी है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी। विश्व के किसी कोने में भी। मैं तो बस अपने मेहनत पर विश्वास करता हूँ। मेहनत के बल पर जी रहा हूँ। मेरी प्राण-शक्ति भी मेहनत ही है। दूसरे पर क्या भरोसा? यहाँ तो सरकारें आती हैं और जाती हैं, मजदूरी तो मेरी ही रहती है। मेरे एक बार के निर्णय पर पाँच साल तक मुझ पर ही शासन की व्यवस्था की व्यवस्था भी तो मैंने ही की है। यहाँ तो लूट की ऐसी व्यवस्था है कि जो जिस स्थिति में हैं, अपना हाथ साफ कर ही लेना चाहता है। चाहे बात काले धन का हो या सार्वजनिक शौचालयों से लोटे को उठा ले जाने का। यह तो देश की विडम्बना है कि जिस किसान का उगाया हुआ अन्न खाकर लोग उसपर नीतियाँ बनाते हैं, वहीं किसान आत्महत्या करने पर विवश हो जाता है। मजदूर जिन कल कारखानों को तैयार करता है, जिन्हें चलाता है, उसी कारण मजदूर की जिन्दगी बोझ बन जाती है। मैं तो जिन्दगी भर बोझ ढोता रहता हूँ तो मेरी जिन्दगी खुशहाल क्यों नहीं? इन्हीं प्रश्नों के साथ दुनिया में मेहनत को तवज्जो देने वाले सभी मजदूरों को आज के लिए शुभकामना।
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 - केशव मोहन पाण्डेय

Apr 30, 2015

---- गुटबाजी--- (लघुकथा)


    राघव और विकल्प रिश्तेदार के रिश्तेदार होने के नाते एक-दो बार मिले थे। दोनों साहित्यिक अभिरुचि के जीव थे। मिलते ही साहित्यिक चर्चाएँ होने लगती थीं। इन चर्चाओं में ही पता चला कि विकल्प एक साहित्यिक पत्रिका में लिख रहा है। राघव ने उस नई पत्रिका के सारे अंक देखे थे। प्रयास से अभिभूत भी था। एक-दो बार कुछ लेख भी भेजा था। कारण तो नहीं समझ पाया था, मगर उसके लेख नहीं छपे थे। दूसरी ओर प्रत्येक अंक में उन्हीं रचनाकारों को नियमित देखकर उसे लगता कि नई पत्रिका है, और कहीं से लेख नहीं मिल रहा होगा। नहीं मिल रहा होगा तो मेरा लेख क्यों नहीं छपा???

    विकल्प से मिलते ही राघव ने अपनी बात कही, - भाई पत्रिका तो बहुत अच्छी है, मगर पता नहीं क्यों मेरे लेख तो प्रकाशित ही नहीं हो पा रहे हैं।  
    दरअसल हमारी टीम को लगता है कि आप दूसरी पत्रिका के लिए लिखते ही हैं। 
     हाँ, मैं तो देश की अनेक पत्रिकाओं में लिखता हूँ। 
    तो आप किसी एक गुट के नहीं हैं? वैसे हमारी पत्रिका भी किसी गुट, किसी ग्रुप को महत्त्व नहीं देती। हम जितने हैं, एक टीम की तरह काम करते हैं। वैसे अच्छा लगा कि आप दूसरे गुट की पत्रिका की भी तारीफ करते हैं। 
    इस गुटबाजी के कारण मेरी आँखों के सामने का अँधेरा साफ़ हो गया। अब पता चला कि उस पत्रिका में मेरे लेख क्यों नहीं आते। 
                                                                     ------------ 
                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय 

Apr 26, 2015

काँपती धरती का भय


    काँपती धरती ने सबको कँपा दिया है। क्या नेपाल, क्या भारत, भय दोनों देशों की आँखों में है। लोग चैन से न सो पा रहे हैं, न चैन से खा पा रहे हैं। गोरखपुर से एक रिश्तेदार का फोन आया। वे बताने लगीं कि जैसे ही नहाकर वाॅशरूम से निकलीं कि झटके आने लगे। एक मित्र का फोन आया कि मेरे गृह नगर में कोई महिला हृदय गति रूकने के कारण चल बसीं। चारों ओर अफरा-तफरी है। रात ग्यारह बजे तक लोग फोन करते रहे कि समाचार में क्या आ रहा है। अफवाह फैला है कि रात में साढ़े ग्यारह बजे फिर से भूकंप आएगा। सभी लोग बाहर आ गए हैं। खेतों में लोग रात बिता रहे हैं। काँपती धरती से सबकी आँखों में भय पसरा हुआ  है।
    मैं अभी तक दो-तीन बार भूकंप का झटका अनुभव किया हूँ। सबसे पहली बार तीन या चार में पढ़ रहा था। बरसात का समय था। दरवाजे पर विराजमान पीपल का पेड़ झूम गया था। दूसरी बार 2012 में। आफिस में था। लगा कि कुर्सी नीचे क्यों हो गई। और इस बार अधिक। 25 अप्रैल को किसी मनीषी के पास बैठा था। फर्श पर ही हम सभी थे। दीवाल का सहारा लेकर बैठे थे हम सभी। एकाएक झूमने लगे। पाँचवी मंजिल से नीचे उतरने का विचार बनने लगा। पहले एक मिनट तो समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। सबकुछ हिल रहा था। कुर्सी भी। खिड़की भी। सामने का टावर भी और सबके साथ हम भी। फिर जैसे-तैसे काँपने की क्रिया कम हुई। होश आया कि पत्नी तो कमरे पर हैं नहीं। आज उनका विद्यालय खुला है। कमरे पर सिर्फ मेंरा 3.5 वर्षीय बेटा और मेरी भतीजी ही हैं। भतीजी को तुरंत फोन किया। उसने अनुभव तो किया था, मगर समझ नहीं पायी थी। दिल धक् से रह गया। जल्द ही उनसे विदा लेकर कमरे पर आया। सबकुछ कुशल था। दिल्ली हिली अवश्य थी, मगर नुकसान नहीं हुआ था। ऊपर वाले की असीम कृपा ही थी।

    ऐसा नहीं है कि प्रकृति ने पहली बार लोगों को डराया है। भुज, लातूर, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर आदि असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं। मगर इस बार का मामला कुछ अलग है। झटके बार-बार आ रहे हैं। बार-बार डरा रहे हैं। पता चल रहा है कि जीने के लिए आदमी कितना बेचैन रहता है। वैसे नेपाल की तबाही बहुुत ही डरावनी है। बार-बार झटका अधिक डर पैदा कर रहा है। मन ईश्वर को याद कर रहा है। मृतकों के आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहा है और आँखों में भय पसरा हुआ है। कहीं भी, कुछ भी हिलता या बजता है तो मन काँप जाता है। मन के भय को भगाने का प्रयास हो रहा है मगर चैकन्नी आँखें व्यक्त कर ही दे रही हैं। 
    सोचिए, यहाँ दिल्ली में बैठा मैं इतना भयभीत हूँ तो नेपाल के वासी कैसे नहीं पशुपति नाथ को याद करें। उन्हें तो अब ऊपर वाले का ही भरोसा है। प्रकृति ने बार-बार मानव को विवश सिद्ध किया है, फिर भी दंभी मानव अपनी ही धुन में लगा रहता है। अहंकार के नशे में चूर पागल मानव कमजोरों को दबाने का एक मौका भी नहीं छोड़ता और प्रकृति पल में ही धराशायी कर देती है। पीड़ा तब होती है, दया तब आती है जब प्रकृति का कोप निदोर्षों पर होता है और गोद के गोद, घर का घर, गाँव का गाँव उजड़ जाता है। अगर जिसमें संवेदना है, मानवता का वास है, तो सच्चे मन से अपने ईश्वर से इस प्राकृतिक आपदा से निजात पाने के लिए प्रार्थना करें। उनके दुख में सम्मिलित हों। उन्हें अपनों की अनुभूति होगी। उनकी आँखों से भय का नाश होगा और मानवता को बल मिलेगा।
                                                                            
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 - केशव मोहन पाण्डेय

Apr 25, 2015

धरीक्षण मिश्र (परिचय)


    पूर्वी उत्तर-प्रदेश के तमकुहीराज (कुशीनगर) क्षेत्र के बरियारपुर की धरती पर जन्म लेने वाले स्व. पण्डित धरीक्षण मिश्र किसी के परिचय के मोहताज नहीं हैं। धरीक्षण मिश्र लोक भाषा भोजपुरी के एक महान साहित्यकार थे। व्यंग्य उनकी प्रकृत विधा थी। काव्य में वे रस, छंद और अलंकार के आग्रही थे। उनकी रचनाओं में अलंकार, छंद सामर्थ्य की व्यापकता एक गौरव की बात है। प्राचीन आचार्यों की भाँति काव्यशास्त्र की मर्यादा में रहकर काव्य-सृजन के साधक थे। भोजपुरी जैसी लोकभाषा में भी उन्होंने संस्कृत के जटिलतम माने जाने वाले ‘शिखरिणी’ तथा ‘अमृतध्वनि’ जैसे छंदों का सार्थक तथा सफल प्रयोग किया है। यही कारण है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि के रूप में उनको साहित्यिक जगत में स्थान प्राप्त हुआ। इस नाते प्रख्यात साहित्यकार कवि को भोजपुरी का कबीर कहना नहीं भूलते। वैसे तो वे सामाजिक जीवन की विद्रूपता के कवि थे। समाज के सभी वर्ग व श्रेणियों पर उन्होंने अपनी कविताएँ लिखी हैं। लेकिन ‘कवन दुखे डोली में रोअत जालि कनियाँ’ ने तत्कालीन समाज की कुव्यवस्था पर एक लकीर खींच दिया। इसे साहित्यकारों में सबसे पहले धरीक्षण मिश्र ने रेखांकित किया। 

    तमकुहीराज तहसील क्षेत्र के बरियारपुर में चैत राम नवमी के दिन वर्ष 1901 में आचार्य पं. धरीक्षण मिश्र एक सम्पन्न परिवार में जन्म लिया। प्राथमिक व मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद इनकी कुशाग्र बुद्धि देख माता-पिता ने वर्ष 1926 में हाई स्कूल की पढ़ाई हेतु लंदन मिशन स्कूल वाराणसी में दाखिला करवाया। पढ़ाई के बाद घर वापस आने पर इन्हें प्रशासनिक पद पर तैनात होने का भी अवसर मिला। जिसे त्याग कर वे गंवई परिवेश में अपने निजी भूमि पर लगाये गये वाटिका को पसंद किए तथा वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने भोजपुरी भाषा में लोक से जुड़ी कविताओं, सामाजिक विसंगतियों पर कलम चलाई। छुआछूत के घोर विरोधी रहे कविवर को समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में भी चिंतित होना पड़ा। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, बेधड़क सच्चाई बयान करना कवि की विशेष विशेषताओं में था।
भिखारी ठाकुर की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए धरीक्षण मिश्र ने घर आंगन, बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों में बसे गँवई जीवन की कथा-व्यथा को अपनी गीतों, कविताओं में बड़ी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। वर्ष 1977 में ‘शिव जी की खेती’, 1995 में ‘कागज के मदारी’, 2004 में ‘अलंकार दर्पण’, 2005 में ‘काव्य दर्पण’, 2006 में ‘काव्य मंजूषा’ के प्रकाशन के साथ ही उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा 1980 में मिले सम्मान के साथ ही ‘अंचल भारती सम्मान’ से राज्यपाल मोतीलाल बोरा द्वारा 1993, ‘भोजपुरी रत्न अलंकरण’ द्वारा अखिल भारती भोजपुरी परिषद लखनऊ 1993 में प्राप्त हुआ। 1994 में श्रीमहावीर प्रसाद केडिया साहित्य एवं संस्कृति संस्थान देवरिया द्वारा ‘श्री आनन्द सम्मान’, 1994 में उ.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन उरई द्वारा ‘गया प्रसाद शुक्ल सनेही पदक’, 1995 में प्रथम विश्व भोजपुरी सम्मेलन देवरिया में पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर द्वारा प्रथम ‘सेतु सम्मान’, 1997 में साहित्य आकादमी नई दिल्ली द्वारा ‘भाषा सम्मान’, विश्व भोजपुरी सम्मेलन नई दिल्ली द्वारा 2000 में मरणोपरांत ‘भोजपुरी रत्न’ आदि सम्मान से सम्मानित हुए।
    साधना के रूप में कविता करने के शौकीन इस कवि का व्यक्तित्व नितांत सादगी भरा था। इनकी विलक्षणता की ही देन है कि वर्तमान समय में गोरखपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में इनकी रचनाओं को लेकर भोजपुरी भाषा की भी पढ़ाई की शुरूआत की गयी है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के अतिरिक्त इग्नू और अन्य कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकार की गई हैं। कबीर की तरह विसंगतियों पर प्रहार करने वाले इस कवि ने 1997 के कार्तिक कृष्ण नवमी को बरियारपुर स्थित अपनी कुटिया में महा प्रयाण किया और नास्तिक होते हुए भी मरते वक्त राम राम लिखते हुए अंतिम साँस लिए। -
लोकतंत्र के मानी ई बा,
लोकि, लोकि के खाईं 
जिन गिरला के आशा करिहें,
हाथमलत पछताई ए भाई,
अइसन राज ना आई ।
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यह कविता नहीं है (एक लम्बी कविता)



बहुत दिनों के प्रयास से
मैं कर पाया
बंद दरवाजे
उलझन भरे मन की।
बंद दरवाजे के रिक्त कंपन से
आते हुए शब्द
हिला देते हैं
अंतर के उस दीवार को
जिसे जोड़ा गया था
भावनाओं की गिली मिट्टी से
जिस पर उकेर देता
कोई/कुछ चित्र
चित्र/स्मृतियाँ . . .
जिन्हें मिटाने के लिए
बंद कर दी थी मैंने दरवाजे
परन्तु सेंध लगा दी रिक्तता ने
उस कच्ची दीवार में
जोड़े गए ईंट की संधि-मध्य की रिक्तता से।
साँस नहीं थी
उस रिक्तता में
परन्तु जीवन था,
रातें नहीं थीं
एक चंद्रमा था,
प्रभा नहीं जागती थी
परन्तु वहीं से फूट रही थी
एक किरण
अंगार बनकर।
और बौनी काया
नख-शिख की
काँप जाती थी
स्मृतियों से।
मैं कवि नहीं था
लेखनी नहीं थी
कुछ भी नहीं था साधन के रूप में
बस एक कागज था मेरे सम्मुख
कोरे विचारों का।
‘एक साधन से कैसे निखरेगा रूप’
घेरती थीं चिंताएँ कि
रूप निखारने के लिए
पुस्तक रखती है
अलमारी रखती है
आज की स्त्री।
एक ही घर में
अलग-अलग कमरे होते हैं
घर के सुडौल सौंदर्य के वास्ते,
परन्तु नोचने के लिए
अपना मुखौटा
तोड़ने के लिए दीवार
मैंने बढ़ा ली थी
दसों नाखून
जो हो गए थे सौ।
बढ़ने पर संख्या के
शक्ति बढ़ती है
स्वभाव बढ़ता है
संस्कृति बढ़ती है
सूर्य भी बढ़ता है
पूरब से पश्चिम की ओर
और नाखून का बढ़ना
पश्चिम जाना ही तो है।
बढ़े हुए नाखून
मेरे लिए
तीक्ष्ण विशिख
तीव्र-धार-तलवार नहीं
कलम बन गए
और मुझे कलम अच्छी लगी
‘कलम या तलवार’ में से,
कौन देगा सजा
कलम से की गई हत्या का?
रोज़ तो मरते हैं पात्र।
तब अपने सभी मित्रों से
माँगी थी स्याही मैंने
हताश होकर सोचा था कि
समुद्र को ही बना लूँ मसि
परन्तु डर गया कि
समुद्र सूख जाएगा
मर जाएँगे के भूखे-प्यासे
अनगिनत जीव सारे
तब भी नहीं लिख पाऊँगा
अपनी स्मृति-कथा को।
मेरे एक मित्र ने समझाया
‘तब भी जीवित रहेंगे केकड़े’
बात सही निकली
केकड़े ने बिना छल के ही
काट ली अंगुली मेरी
और फूट पड़ी लहू की धारा
सुन्न होने लगी चेतना
पीला पड़ने लगा शरीर
तब भी स्मृतियाँ शेष थीं
उस अशेष जीवन में
और दीवार हिल रही थी।
अब कागज, नाखून तथा लहू से
मैं स्मृतियों को
लिखना चाह रहा था
परन्तु आज भी
मैं कवि नहीं हूँ
तब भी नहीं था
क्योंकि मेरे शब्द नहीं हैं
मेरे छंद नहीं हैं
विधा भी तो मेरी नहीं थी
तब भी
अब भी कहाँ कुछ सीखा हूँ मैं?
हाँ, शक्ति थी, साहस था
अनुभूति थी
और आँखों में कुछ चित्र थे . . .
कमर तक धोती चढ़ाकर
जंघे से मसलकर
सरकाना नीचे
और बाँयी तर्जनी में फँसे
सूत के साथ
नाचती तकली का
गोल-गोल/स्थिर नाचकर
तैयार करना संस्कार।
दूर, खेत के मेढ़ पर
चलाते रहना कुदाल
और निरंतर तत्पर रहना
नव-सृजन के लिए
हर साँस में प्रयासरत
हमेशा परछायीं के लंबी होने पर ही
दम लेते थे मेरे पिता।
मैं भूल गया ध्वस्त होता पैंटागन
अपनी स्मृति के आगे
अयोध्या और गोधरा भी
भुज और लातूर
आकाशगंगा बनी कल्पना,
पढ़ना और परीक्षाएँ पास करना,
सुबह उठना, नहाना, खाना
मैं भूलता रहा सब कुछ
लेकिन स्मृतियाँ आती रहती थीं
दीवार हिलती रहती थी।
स्मृतियाँ नहीं दूर होती थीं
मैं कवि भी नहीं था
मेरे शब्द नहीं थे
बस अनुभूति थी मेरी,
एक कागज
सौ कलमें
थोड़े रंग थे मेरे पास।
तब मुझे
लिखने से अच्छा लगा चित्र बनाना
पर मैं चित्रकार भी तो नहीं था।
प्रयास से मैंने खींचा चित्र
शब्दों का
और जब दिखाया तुम्हें
तब कुछ भी नहीं समझ पाए थे मित्र!
आज पुनः सुनाना चाहता हूँ तुम्हें
क्योंकि यह कविता नहीं है
स्मृति है मेरे बचपन की
जो टकराने लगी हैं दीवारों से
पिता जी के जाने के बाद।
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 - केशव मोहन पाण्डेय

Feb 7, 2015

‘संगीत से मुझे ऊर्जा मिलती है’ (साक्षात्कार)


     उत्तर-प्रदेश के गोरखपुर का बेतिया हाता आज भी अपनी समृद्धि, विद्वता और रौनक के कारण अपनी अलग पहचान बनाता है। उन्हीं गलियों में अपना बचपन व्यतीत की हुई संगीतिका आडवानी आज अमेरिका के लांस एंजलिस में रहती हैं। वहाँ वे लगभग पचीस वर्षों से हैं। वहाँ उनका भरा-पूरा परिवार है। वे एक संगीत-स्कूल चलाती हैं, एक अस्पताल में नर्सिंग करती और मौका मिलते ही निरंतर शो करती रहने की व्यस्तता के बीच भी अपने भारतीयों और विशेषकर भोजपुरी-भाषियों के लिए भी भोजपुरी संगीत का सुगंध फैलाती रहती हैं। पिछले दिनों जब उनसे मुलाकात हुई तो मैं उनके अनुभवों को जानने के लिए बेचैन हो गया। प्रस्तुत है संगीतिका आडवानी से किए गए साक्षात्कार का कुछ अंश -
प्रश्न - संगीतिका जी, सबसे पहले आप अपने विषय में विस्तार से बताइए।
उत्तर - मेरा जन्म उत्तर-प्रदेश के गोरखपुर के बेतिया हाता में हुआ। मेरी मम्मी स्वयं भी एक प्रतिष्ठित गायिका है, अतः संगीत मेरे खून में ही था। पाँच साल की उम्र से मैं संगीत की साधना में लग गई। बचपन से ही संगीत के अतिरिक्त और कुछ मुझे पता ही नहीं था कि इसके अलावा और भी कुछ करना है। तो इस प्रकार मेरी मम्मी और परिवार के नाते मुझे संगीत से लगाव हो गया। मैं तेरह साल की उम्र तक वहाँ रही। अनेक मंचों के साथ-साथ आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी मुझे गाने का मौका मिला। तेरह साल की उम्र में मुझे भारतखंडे संगीत विद्यालय में एडमिशन मिल गया। वहाँ मैं दो वर्षों तक रही। 15 साल की उम्र में मेरा यू.एस.का विज़ा मिल गया। वहाँ जाकर मैं निरंतर संगीत साधना करती रही। वहाँ पर लक्ष्मीशंकर जी से दो साल संगीत सीखा। उसके बाद से मैं स्वयं भी सिखाती गई। फिर करीब पाँच साल बाद मुझे मास्टर की डिग्री मिली। उसके बाद मेरी स्वयं की यात्रा प्रारंभ हुई जो कि ले देकर संगीत, संगीत और सिर्फ संगीत। आज भी कैलिफोर्निया में मेरा खुद का सुर संगीत म्यूजि़क एण्ड आर्ट स्कूल है। अब तो बस उसी को लेकर काम कर रही हूँ।
प्रश्न - जैसा कि आपने बताया कि आप एक शिक्षक, गीतकार, संगीत-निर्देशक और गायिका आदि की भूमिका निर्वाह करती हैं। इतना कुछ एक साथ कैसे संभव हो पाता है?
उत्तर - इतना कुछ संभव इस नाते हो पाता है क्योंकि स्वयं संगीत ही एनर्जी देता है। मुझे गाना बहुत पसंद है। एक दिन गाना न गाऊँ तो बीमार पड़ जाऊँगी। दूसरा है कि शो करना। वह भी म्यूजि़क से ही संबंधित है, तो वह भी बाधा नहीं है। सर, एक औरत कभी कमजोर नहीं होती। हम लोग मल्टी टाॅस्क करने की क्षमता रखते हैं और मैं भी करती हूँ। तो अभी आपने जितना कुछ बताया, उसमें सिर्फ और सिर्फ संगीत से ही मुझे ऊर्जा मिलती है। और निश्चिततः मैं इतना सबकुछ इसलिए भी कर पाती हूँ कि मेरे पति का भरपूर सहयोग मिलता है।
प्रष्न - अपना देश, अपनी मिट्टी और अपने लोगों को आप कब याद करती है?
उत्तर - हर क्षण। हर क्षण याद करती हूँ। जैसे कि मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण दूँगी कि अगर आप सैंट वजे़ में मेरे घर आये तो मेरे मुहल्ले में प्रवेश करते ही आपको पता चल जाएगा कि मेरा घर कौन है। क्योंकि वहाँ अपने देशी मसाले की मँहक आयेगी। मैं यहाँ जब भी आती हूँ तो मसाला, अचार आदि पहले पैक किया जाता है। मैं अपने बच्चों से अपनी भाषा में बात करती हूँ। 'भोजपुरी परिवार' के कारण हम जब भी मिलते हैं, आपस में भोजपुरी में बातें करते हैं। लगता ही नहीं कि हम लांस एंजलिस और कैलिफोर्निया में है। 
प्रश्न - आपके लिए भारतीय संगीत कितना मायने रखता है? अमेरिका में रहकर भारतीय संगीत को आप कितना इंज्वाॅय करती हैं?
उत्तर - आई उड से, मे बी मोर। क्योंकि मुझे लगता है कि भले ही यहाँ पर क्वांटिटी बहुत है, वहाँ पर क्वालिटी है। भारतीय संगीत और अपनी भोजपुरी के विषय में सोचने की क्या बात है, वह तो साँसों में बसा है।
प्रश्न - भोजपुरी आपके जीवन में कहीं-न-कहीं हैं। भोजपुरी भाषा और संगीत को आप कैसे देखती हैं?
उत्तर - भोजपुरी भाशा बहुत समृद्ध और पुरानी भाषा है। भोजपुरी को लेकर मेरी तथा भोजपुरी परिवार की निरंतर यह कोशिश रहती है कि वहाँ पर हम अपने बच्चों को भोजपुरी सिखाते रहते हैं। हम जब मिलते हैं तो आपस में भोजपुरी ही बोलते हैं। भोजपुरी के एक-एक गाने ऐसे हैं कि अगर हमारे बच्चे समझ लें तो हम अपने लक्ष्य में सफल हो जाएँगे। हम इस भाषा के विकास के लिए वास्तव में प्रयास करते हैं, केवल बैनर-पोस्टर और अखबारों तक ही सीमित नहीं रहते। (भोजपुरी संगीत के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त करते हुए एक गीत गाती हैं) - 
मोरा हीयरा हेरा गइले कचरे में।
कहू जोहे काशी में, केहू काबे में,
केहू जोहे पंडित के पतरे में।
मोरा हीयरा हेरा गइले कचरे में।।
प्रश्न - कहा जाता है कि माँ-बाप का प्रभाव संतानों पर पड़ता है। आप पर आपके माता-पिता का क्या प्रभाव है? आगे की पीढ़ी को आप क्या देना चाहती है? 
उत्तर - आज तक जो कुछ भी मैं हूँ, जो आप मुझे देख रहे हैं, पच्चीस साल हो गया अमेरिका में रहते हुए, मगर मेरी जो भाषा सुन रहे हैं, जो मेरी सोच है या जो मेरा संगीत है, यह पूरा-का-पूरा मेरे माता-पिता की देन है। मेरे मम्मी-पापा ने जो कुछ मुझे दिया, मैं वह सारा कुछ अपने बच्चों में देना चाहती हूँ।
प्रश्न - लोग कहते हैं कि आजकल विशेषकर गायिकाओं के लिए गायिकी की प्रतिभा के साथ-साथ शारीरिक आकर्षण भी बहुत मायने रखता है। आप इस बात को कितना मानती हैं?
उत्तर - (एक लंबी साँस लेकर) मैं इस बात से पूर्णतः सहमत नहीं हूँ। मगर ईमानदारी से कहा जाय तो अगर आप शो कर रहे हैं तो आकर्षक चेहरा होना जरूरी है। अगर लोग आपको देखने-सुनने आ रहे हैं तो प्रतिभा के साथ आकर्षक चेहरा भी अवश्य चाहिए। आज की दुनिया विज्ञापन की दुनिया है और आप अच्छा गायिका हैं तथा साथ ही देखने में भी अच्छी हैं तो सफलता की अधिक संभावना है। मैं आपकी बातों से फिफ्टी-फिफ्टी सहमत हूँ क्योंकि अपनी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में भी बहुत सी गायिकाएँ रही हैं जो चेहरे से बहुत आकर्षक न होने पर भी अपनी प्रतिभा के दम पर आज भी कायम हैं और पहले भी रही हैं।
प्रश्न - संगीत को साधना कहा जाता है। इसे साधने वालों की एक अलग परंपरा है। सबका कोई-न-कोई आदर्श होता है। आप किसे अपना आदर्श मानती हैं?
उत्तर - मैं आदर्श तो तीन-चार लोगों को मानती हूँ परन्तु उनमें सबसे पहला नाम मेरी माँ का है। उन्हीं से मैंने सीखा कि किस अनुशासन में रहकर, किस प्रकार से समूचित समय निकाल कर संगीत की साधना की जाय। मेरी माँ मेरे लिए सबसे पहले आदर्श इसलिए भी हैं कि उन्हीं से भोजपुरी संगीत के प्रति मुझमें लगाव उत्पन्न हुआ। फिर मेरे लिए भीमसेन जोशी जी, हरिहरन जी, अनूप जी आदि से मैं बहुत प्रभावित रहती हूँ और उन्हें अपना आदर्श मानती हूँ।
प्रश्न- क्या आप भी मानती हैं कि आज की गायिकी एक व्यावसायिक तमाशा बनकर रह गई है?
उत्तर - जी हाँ। व्यावसायिक तमाशा इस नाते बनकर रह गया है क्योंकि आज के संगीत में यह सोचा जा रहा है कि क्या चले। मैं यह भी मानती हूँ कि संगीत में पहले से अधिक सुधार आया है, मगर व्यावसायिकता बहुत अधिक है। सर, वास्तविकता यह है कि जिस संगीत में क्वालिटी नहीं रहता, उस संगीत को एक साल बाद कोई नहीं पूछता है। उसमें स्थिरता नहीं रहती।
प्रश्न - संगीत को लेकर आपने आगे कुछ विचार बनाया है? अगर हाँ तो मेरे पाठको को बताइए।
उत्तर - हाँ, संगीत को लेकर हम एक बहुत बड़ा विचार बना रहे हैं। हम अपने सोलहों संस्कारों को लेकर एक समृद्ध एलबम बनाने वाले हैं। कमर्शियल तो वह होगा, मगर अपने शुद्ध पारंपरिक भोजपुरी गीतों को लेकर के बनाया जाएगा। 
प्रश्न - हमारे पाठकों के लिए कोई सन्देश ?
उत्तर - जी, हमें अपनी मिट्टी और अपनी भोजपुरी भाषा को लेकर हमेशा गर्व अनुभव करना चाहिए। चाहे कथा-कहानी हो या कहावत, चाहे संस्कार हो या गीत या व्रत-त्योहार, जो हमारे पास है, वह किसी के पास नहीं है।
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                            - केशव मोहन पाण्डेय 
                                         (भोजपरी-पंचायत के फरवरी 2015 के अंक में प्रकाशित)