अब जब भी दिवाली आती है, मैं अपने टीन-ऐज में चला जाता हूँ। तब की पूरी दिवाली अपने घर पर मनाया हूँ। दिवाली आने के तीन-चार दिन पहले से ही घर-द्वार और उसके आगे-पीछे की सफाई में सब लग जाते थे। तब सबसे आनंददायक होता था कठ-बक्सा (वुडेन-बॉक्स) साफ़ करना। उसकी सफाई में मेरी सहभागिता अवश्य होती। कारण यह था कि मैं अपने भाई-बहनों में सबसे छोटा होने के कारण बक्से में अंदर घुस जाता और दोनों बक्सों की जमकर सफाई करता। सफाई के दौरान जो कोने में पड़े सिक्के मिलते उसमे किसी का हिस्सा नहीं होता था। वे सिक्के मेरे लिए दिवाली पर लक्ष्मी जी की कृपा होते। उसके बाद ही द्वार पर कहीं बन आये गड्ढों के लिए मिट्टी धोना, फूल-पौधों की साफ-सफाई, बस वहीं से 'दीप जलाओ, दीप जलाओ, आज दिवाली आई रे' की शुरुआत हो जाती।
अब घर से बाहर नौकरी करते वक़्त दिवाली की अनुभूति कुछ अलग हो गई है। लगता है कि आज तो राम जी अपनी भार्या को स्वतंत्र करा कर घर आये थे, हम तो स्वंय ही परतंत्र है। तब, जब कभी भैया घर नहीं आ पाते तो माँ समय-कैकेयी को कोसते हुए फफकती और गाती रहती -
'केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू
राम के बनवा भेजलू ना।
हो हमरो केवल हो करेजवा
तुहू काढियो लेहलू ना।
हमरा राम हो लखन के
तुहू बनवा भेजलु ना।
हमरा सीतली हो पतोहिया
के तूँ बनवा भेजलू ना।
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू
राम के बनवा भेजलू ना।'
तब मैं भी उनसे छुपकर उनके दर्द भरे गीतों को सुनता और पलकों से टपकने को तैयार आंसुओं को पोंछकर कहीं दूर हट जाना चाहता। वे गीत आज के दिन फिर याद आते हैं। याद आती है कठ-बक्सा की सफाई के लिए बाबूजी की पुकार, किसी कोने से सिक्का पाना, दीदी का माँगना, मुझे मना करना, भैया का भाभी के साथ आना,और तब अपने कुनबे की विराटता पर बाबूजी के गर्व से चमकते मस्तक और माँ के मुख-मंडल पर दीप्त दूध की ताक़त।
आज मेरे लिए दिवाली का आना सिर्फ दीपों के उत्सव का आना नहीं है, लड़ियों की सजावट और तेल-बत्ती की तैयारी ही नहीं है, बचपन के उन याद का आना भी है, जो समय के दावानल में भस्म होने के बदले कुंदन हो गई है। उन्हें किसी भी हुदहुद से रत्ती भर भी नुकसान नहीं हुआ, वनिस्पत उसपर चढ़ी धूल की परतें धूल गई हैं। मैं वहीं दिवाली चाहता भी हूँ।
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