बात 2003 के अक्टूबर की है। हमलोग प्रतिवर्ष दशहरा के अवकाश में कहीं-न-कहीं भ्रमण पर निकल जाते हैं। यह भ्रमण एकल तो कत्तई नहीं होता। सामूहिकता का अलग ही आनन्द होता है। इस बार भी ड्राइवर को लेकर हम दस थे। उनमें उम्र में सबसे छोटा मैं ही था। हमारी यात्रा अपनी गाड़ी से ही प्रारंभ हुई थी। दस आदमी की बैठक क्षमता वाली मार्शल गाड़ी लिया गया था। हमारा पहला विराम आजमगढ़ में कुछ घंटों के लिए हुआ। वहाँ बालमुकुंद भैया के पास चाय-पानी करने के उपरांत हम शाम होते-होते चित्रकूट पहुँच गए थे। ‘चित्रकूट में रमि रहे रहीमन अवध नरेस। जा पर विपदा पड़त है, सोई आवत एही देस।।’......मगर आज हम भगवान राम के विपत्तिकाल में व्यतीत किए गए स्थली का दर्शन करने आए थे।
दो रात और दो दिन चित्रकूट में बिताने के बाद हम सतना होते हुए मैहर गए। शारदा माँ का आशीर्वाद लेने। माता की कृपा और उनके भक्तों में आल्हा-उदल की वीरता की कथा तो सुना ही था, मैं एकबार दर्शन भी कर चुका था। तब ट्रेन द्वारा आया था। आज सड़क मार्ग द्वारा। संध्या की कालिमा का साम्राज्य होते-होते हम सतना में थे। मार्ग भटकने के कारण हमें वहाँ विलंब हो गया। अग्रसेन चैराहे से हमें जाना था उत्तर और आ गए थे दक्षिण। बस-स्टैंड की ओर। पहले रास्ता नहीं पता था और आज उसी सतना में पली-बढ़ी लड़की मेरी जीवन-संगिनी है।
दूसरे दिन सुबह मैहर वाली माता का दर्शन करने के बाद हम लोग करीब डेढ़ बजे दोपहर तक नीचे आ गए थे। खाना के बाद तीन बजे से हमारी यात्रा अब खजुराहो के लिए प्रारंभ हुई। सतना से आगे कुछ ही किलोमीटर चलने के बाद हरिशंकर परसाई जी की रचना ‘मेरी बस यात्रा’ की एक-एक पंक्तियाँ याद आने लगीं। तब मुझे प्रमाण मिल गया कि लेखक की लेखनी कितनी प्रमाणित है। उस रचना का अक्षर-अक्षर प्रमाण दे रहा था। सड़क नाम की कोई चीज भर लगती थी। कहीं-कहीं कंकरीट नज़र आ जाता तो हम ‘अब अच्छी सड़क है’ की बात कहकर प्रसन्न होते कि गाड़ी थोड़ी स्पीड पकड़ेगी। कहीं तारकोल नज़र आया तो उस क्षणिक खलेपन का सुख हमारे लिए ‘मल्टी लेन हाई वे’ होता था।
हम जहाँ कहीं भी अपनी इस यात्रा के बोरियत को दूर करने रूकते तो लोगों से जरूर पूछते, - भाई अगले चुनाव में दिग्विजय सिंह का क्या हाल होगा? लगभग सबका एक ही उत्तर होता - ‘जमानत जब्त।’ हमने रास्ते भर तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को चाहकर खुब गालियाँ दी। उस समय उस बोरिंग यात्रा में हमारे द्वारा दी गई गाली हमें अपनी यात्रा ज़ारी रखने की शक्ति देती। कुछ पल के लिए जी हल्का हो जाता। तब लगता कि गाली तो संजीवनी है, लोग इसे बुरा क्यों कहते हैं? अब तो ऐसा ही लगता है कि हमारे कष्टों की तड़प का ही पाप उन्हें लग गया और आज तक बेचारे बिना सिर-पैर का बयान देते हुए खिसियानी बिल्ली के जैसे खंभा नोंचते हैं। खैर, हम दस बजते-बजते पन्ना पहुँचे। सतना से पन्ना तक की 74 किलोमीटर की यात्रा हमने पाँच घंटे में पूरा किया था। यात्रा की थकान और अरूचिकरता के कारण अभी यहीं रूकने का विचार बना। सारे लाॅज बंद थे, अतः हम बस स्टैंड के लाॅज में ही शरण लिए।
लाॅज में सुविधा के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं था जिसका रत्ती भर भी तारीफ किया जाय। वह एक ऐसी रात थी जिसे मैं भूल ही नहीं पाता हूँ। उस रात हमें न खाने के लिए कुछ मिला, न सोने के लिए उचित साधन। बस, वह लाॅज हमारे लिए केवल अंधे की लकड़ी जैसे था। हम रात गुजारे और सुबह की मरीचि के दर्शन देने के पहले ही नित्यकर्म के बाद अपनी यात्रा प्रारंभ कर दिए। पन्ना की रात सबसे दुखदायी रात थी। हम अतिशीघ्र पन्ना को छोड़ना चाहते थे। उस पन्ना को, जो हीरे की खानों के शहर के रूप में प्रसिद्ध है। उस पन्ना को, जो एक ऐतिहासिक नगर है। यह नगर मध्य-प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित है। बुंदेलखंड की रियासत के रूप में इस नगर को बुंदेला नरेश छत्रसाल ने औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् अपने राज्य की राजधानी बनाया था। मुगल सम्राट बहादुरशाह ने 1708 ई. में छत्रसाल की सत्ता को मान लिया था। पन्ना में अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के भवन हैं जिनमें संगमरमर के गुंबद वाला स्वामी प्राणनाथ मंदिर और श्री बलदेवजी मंदिर शामिल हैं। यहाँ पद्मावती देवी का एक मंदिर है, जो उत्तर-पश्चिम में स्थित एक नाले के पास आज भी स्थित है। किंवदंती है कि प्राचीन काल में पन्ना की बस्ती नाले के उस पार ही थी। वहाँ राजगौंड और कोल लोगों का राज्य था। पन्ना से दो मील उत्तर की ओर महाराज छत्रसाल का पुराना महल आज भी खण्डहर रूप में विद्यमान है। पन्ना को अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में पर्णा भी कहते थे। यह नाम तत्कालीन राज्यपत्रों में उल्लिखित है।
पन्ना में हीरे की महत्त्वपूर्ण खानें हैं, जिनमें 17वीं शताब्दी से खुदाई हो रही है। यह भारत में हीरा उत्पादन करने वाला एकमात्र खदान क्षेत्र है। यह नगर कृषि उत्पादों, इमारती लकडि़यों और वस्त्र व्यापार का केंद्र है। यहाँ के हीरे सारी दुनिया में गुणवत्ता और स्पष्टता के लिए ही नहीं बल्कि हर महीने के आखिर में जिला मजिस्ट्रेट के द्वारा नीलामी किए जाने के कारण भी विख्यात है। हमने चलते-चलते ही सब जाना और समझने का प्रयास किया। अब हम पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट से गुजर रहे थे।
अब हम राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या - 75 से खजुराहो की यात्रा पर थे। यह सड़क पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट के बीचोंबीच से गुजरती है। हम दोनों ओर स्थान-स्थान पर सूचना और सुझााव के लिए लगे बोर्ड देखते और रोमांचित होते बढ़े जा रहे थे। जंगल में सुबह के आगमन के साथ ही वन्य-जीवों और पक्षियों की आवाज़ें अपना अलार्म बजा रही थी। यह टाइगर रिजर्व का खूबसूरत जंगल रंग-बिरंगे प्रवासी पक्षियों के कलरव से भी जीवंत हो गया था। दुर्लभ कहे जाने वाले गिद्ध प्रजाति के प्रवासी पक्षी भी इस अभय वन के ऊँचे वृक्षों पर डेरा डाले थे। पन्ना टाइगर रिजर्व के 543 वर्ग किमी क्षेत्र में तीन सौ से भी अधिक प्रजातियों के पक्षी देखने को मिलते है। पन्ना आने वाले प्रवासी गिद्धों में हिमालयन वल्चर, यूरोपियन ग्रिफिन वल्चर तथा सेनरस वल्चर प्रमुख हैं। पर्यटन स्थल के रूप में यह राष्ट्रीय उद्यान बहुत ही महŸव रखता है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना पर्यटन का एक मुख्य आकर्षण है, यह उन सभी वाइल्ड लाइफ रिजर्व में से एक है जहां बाघों को पाया जा सकता है। यह पार्क, खजुराहो से आसान दूरी पर स्थित है।
पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट के बीच से गुजरने पर हमें उस सुहानी सुबह में सुखद अनुभूति हो रही थी। रात की सारी पीड़ा हम भूल गए थे। सुबह-सुबह विविध पक्षियों के कलरव के साथ किसी हरे-भरे वातावरण की मोहकता बढ़ ही जाती है। जंगल की सर्पिली सड़क अच्छी थी। अब सब कुछ हमारे मन लायक था। जंगल समाप्त हो रहा था कि अचानक एक लंबा पुल दिखाई दिया। हमारे वरिश्ट सह-यात्री विनय राय जी ने बताया कि यह केन नदी है। मध्य-प्रदेष की विशालतम नदियों में से एक। उन्होंने पुल के प्रारंभ होते ही गाड़ी रूकवा दिया। हम सब उतर गए। नीचे उतर कर देख तो पीछे जंगल की विशालता और सामने लंबा पुल। पुल के दोनों ओर असीम केन का जल-संसार। दूर खड़े पहाड़ों और दायें-बायें जंगलों की हरियाली के बीच केन का स्वरूप अंतर तक उतर गया। किसी को भी अरूचिकर नहीं लग रहा था और ना ही किसी को वहाँ से जाने का मन कर रहा था। हम सभी कभी पुल के किनारों पर बैठकर तो कभी जमीन पर बैठकर समय को अपने साथ बाँध लेना चाहते थे। अनगिनत फोटो लिया गया। सबने सड़क के कंकरीटों को उठा-उठाकर नदी की जल-घाराओं को नापने का फालतु प्रयास किया। वह प्रयास नहीं, बस केन के किनारे रूकने का बहाना था।
केन जैसी सुन्दर नदी के विषय में मैं अज्ञानी पहले कुछ भी नहीं जानता था। विनय राय जी आदि ने बहुत ज्ञान दिया तब अपनी अज्ञानता पर हँसी आने लगी। पता चला कि केन, यमुना की एक सहायक नदी है जो बुन्देलखंड क्षेत्र से गुजरती है। दरअसल मंदाकिनी तथा केन यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं, क्योंकि इस के बाद यमुना गंगा से जा मिलती है। केन नदी जबलपुर, मध्यप्रदेश से प्रारंभ होती है। पन्ना में इससे कई धारायें आ जुड़ती हैं और फिर बाँदा, उत्तर-प्रदेश में इसका यमुना से संगम होता है। इसकी लंबाई सिर्फ 250 किलोमीटर है परन्तु प्रवाह बहुत तीब्र होता है।
यह नदी कैमूर पहाडि़यों की उत्तरी-पश्चिमी ढाल से निकलकर मध्य प्रदेश के दमोह, पन्ना इत्यादि क्षेत्रों से होती हुई बाँदा में चिल्ला नामक स्थान पर यमुना से मिलती है। इस नदी को कियाना नाम से भी जाना जाता है। इस नदी को प्राचीन समय में ‘कर्णावती’, ‘कैनास’, ‘शुक्तिमति’ आदि नाम से जाना जाता था। ‘सोनार’, ‘वीरमा’, ‘बाना’, ‘पाटर’ इत्यादि केन नदी की सहायक नदियाँ हैं। इसकी घाटियाँ बहुत ही पथरीली हैं जिसके कारण इसमें चलने वाली नावें यमुना नदी और केन के संगम से बाँदा तक ही आती-जाती हैं। नदी में ‘पाँडवा घाट’ तथा ‘कोराई’ नामक दो जलप्रपात भी हैं। यह नदी केवल वर्षा ऋतु में ही जलमग्न रहती है। गर्मी के मौसम में नदी लगभग सूख जाती है। केन तथा मंदाकिनी यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं, क्योंकि इसके बाद यमुना गंगा से जा मिलती है। इस नदी का ‘शजर’ पत्थर मशहूर है।
इसके नामकरण से संबंधित एक कथा यह है कि नदी के किनारे अक्सर एक प्रेमी युगल अठखेलियाँ किया करता था। बाद में किसी ने युवक की हत्या कर उसके शव को नदी के किनारे दफना दिया। युवक की प्रेमिका ने ईश्वर से अपने प्रेमी का शव दिखाने की प्रार्थना की। तब नदी में भीषण बाढ़ आई और नदी का किनारा कटा तो शव उसके सामने नजर आया। शव देखते ही लड़की ने भी अपने प्राण त्याग दिए। इस घटना के बाद नदी का नाम कर्णवती से ‘कन्या’ हो गया। कन्या का अपभ्रंश ‘कयन’ और फिर ‘केन’ हो गया। अब उसी केन नदी के लिए कहा जाता है कि यह सात पहाड़ों का सीना चीरकर बहती है। यह नदी अपनी यात्रा में पत्थरों में रंगीन चित्रकारी भी करती है। इसमें पाए जाने वाले चित्रकारी वाले पत्थरों को ‘शजर’ कहा जाता है। शजर में झाडि़यों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, मानव और जलधारा के विभिन्न रंगीन चित्र देखने को मिलते हैं। इसके किनारों पर अवैध रूप से बड़ी ही तादाद में बालू उत्खनन का काम होता है।
हम अब तक की यात्रा का सबसे सुखद और चित्ताकर्षक समय केन के पुल पर व्यतीत किए थे। हमें वहाँ से जाने का मन तो नहीं कर रहा था, मगर लक्ष्य तो खजुराहो के ऐतिहासिक और विश्व-प्रसिद्ध मंदिरों का दर्शन था। हम अनमने मन से चल पड़े।
पन्ना से खजुराहो की दूरी 44 किलोमीटर है। पन्ना से राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या -75 पर 35 किलोमीटर आगे बामिथा जाकर वहाँ से उत्तर दिशा में अर्थात बायें मुड़ने पर नौ किलोमीटर बाद खजुराहो आ जाता है। पन्ना और बामिथा के ठीक मध्य में केन नदी मिलती है। हम बमिथा में एक ढाबा पर रूके। सुबह का दस बज रहा था। हम ढाबे पर ही स्नन किए और पूरी यात्रा का सबसे ताज़ा भोजन किया। अब सब कुछ हमारे पक्ष में जो हो गया था। केन ने हमारी पीड़ा को धो जो डाला था।
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