Oct 5, 2014

इण्डिया गेट पर एक दिन


     दिल्ली का महत्त्वपूर्ण स्मारक, जिसे 80,000 से अधिक भारतीय सैनिकों की याद में निर्मित किया गया था, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में वीरगति पाई थी। उस महा-स्मारक को इण्डिया गेट से अभिहित किया जाता है। इण्डिया गेट नई दिल्ली के राजपथ पर स्थित 43 मीटर ऊँचा विशाल द्वार है। यहाँ वर्ष भर, हर मौसम में, हर हाल में शैलानियों की भीड़ उमड़ी रहती है। यह स्वतन्त्र भारत का राष्ट्रीय स्मारक है। इसका डिजाइन सर एडवर्ड लुटियन्स ने तैयार किया था। यह स्मारक पेरिस के आर्क डे ट्रॉयम्फ से प्रेरित है। इसे सन् 1931 में बनाया गया था। मूल रूप से अखिल भारतीय युद्ध स्मारक के रूप में जाने जाने वाले इस स्मारक का निर्माण अंग्रेज शासकों द्वारा उन 90000 भारतीय सैनिकों की स्मृति में किया गया था जो ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर प्रथम विश्वयुद्ध और अफगान युद्धों में शहीद हुए थे। लाल और पीले बलुआ पत्थरों से बना हुआ यह स्मारक दर्शनीय है। भले ही व्यक्ति किसी भी उम्र का हो, यहाँ आकर कुछ घंटे अवश्य व्यतीत करना चाहता है। चाहे व्यक्ति दिल्ली में रहने वाला हो या बाहर से आया हो, छुट्टियों में आउटिंग या पिकनिक मनाने का सबसे मनोहारी और आकर्षक स्थल है इंडिया गेट।
    इंडिया गेट के पूरब में मेज़र ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम है तो इन दोनों के बीच में ही जार्ज पंचम के पुतला वाला छतरी। दक्षिण में बाल उद्यान (चिल्ड्रेन्स पार्क) का मनोहारी दृश्य है जहाँ बच्चों की किलकारिया गुँजती रहती हैं। बाल उद्यान के ठीक उत्तर में अगस्त क्रांति मैदान है। इंडिया गेट से पश्चिम की ओर दोनों तरफ समानान्तर  ही कृतिम जलाशय है। इंडिया गेट के इर्द-गिर्द शेरशाह रोड, डाॅ. ज़ाकिर हुसैन मार्ग, शाहजहाँ रोड, अकबर रोड, अशोक रोड, के जी मार्ग, तिलक मार्ग, पुराना किला रोड, का चक्र बना हुआ है। जिस तरह इसके पूरब में मेज़र ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम है, ठीक वैसे ही इसके ठीक पश्चिम में राजपथ है। राजपथ मानसिंह मार्ग, जनपथ आदि को चिरता हुआ राष्ट्रपति भवन तक जाता है। इंडिया गेट के तल पर एक अन्य स्मारक, अमर जवान ज्योति है, जिसे स्वतंत्रता के बाद जोड़ा गया था। यहाँ निरंतर एक ज्वाला जलती है जो उन अंजान सैनिकों की याद में है, जिन्होंने इस राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। अमर जवान ज्योति की स्थापना 1971 के भारत-पाक युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों की याद में की गई थी।

     इंडिया गेट से राजपथ की लंबाई नौ सौ मीटर है जिसे पैदल ग्यारह मिनट में पूरा किया जा सकता है। राजपथ को 1947 के पूर्व ‘किंग्स् वे’ के नाम से जाना जाता था। यह पश्चिम में राष्ट्रपति भवन से विजय चौक होकर पूर्व में इण्डिया गेट होकर ध्यानचंद राष्ट्रीय स्टेडियम तक जाता है। इसके दोनोँ ओर घास की हरितिमा से परिपूर्ण सुन्दर मैदान हैं। राजपथ के साथ ही दोनों ओर एक-एक कृत्रिम झील साथ-साथ चलती है, जो कि इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाती है। यहाँ घासों की हरियाली के साथ ही छायादार पेड़ों का भी भरमार है। इन पेड़ों की छाया के कारण इंडिया गेट के आस-पास दिन के दोपहरी में भी आगंतुकों की भीड़ रहती है। पश्चिम में रायसीना की पहाड़ी पर चढ़ कर हम राष्ट्रपति भवन जा सकते हैं। राष्ट्रपति भवन के दोनो ओर सचिवालय है एवं उत्तरी खण्ड नार्थ ब्लॉक व दक्षिणी खण्ड साउथ ब्लॉक हैं। विजय चौक पर यह रफी मार्ग को काटती है, जहाँ से संसद भवन दिखाई देता है। अगला चौक जनपथ के काटने से बनता है। फिर मानासिंह मार्ग के काटने से अगला चौक है। आगे शान से सीना ताने विराजमान - इण्डिया गेट। 
     कहते हैं कि जब इण्डिया गेट बनकर तैयार हुआ था तब इसके सामने जार्ज पंचम की एक मूर्ति लगी हुई थी। जिसे बाद में ब्रिटिश राज के समय की अन्य मूर्तियों के साथ कोरोनेशन पार्क में स्थापित कर दिया गया। अब जार्ज पंचम की मूर्ति की जगह प्रतीक के रूप में केवल एक छतरी भर रह गयी है। 
     अगर मैं कहूँ कि यह दिल्ली को एक पहचान तो देता ही है, साथ ही सबसे बेहतर स्थान पर भी स्थित है, तो कोई मिथ्या नहीं। दिल्ली की कई महत्वपूर्ण सड़कें इण्डिया गेट के कोनों से निकलती हैं। वैसे तो दिलभर यहाँ लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है, मगर रात के समय यहाँ मेले जैसा माहौल होता है। मैं इस वर्ष के दशहरे की अवकाश में एक दिन पत्नी और अपने सुपुत्र के साथ एक दिन पहुँचा। रेंट के कमरे की कैद से आज़ाद और इतना खुला स्थान पाकर मेरा बेटा कुलांचे मारने लगा। उसकी प्रसन्नता उसके चेहरे, हाव-भाव और क्रिया-कलाप से दिखाई दे रही थी। कभी दौड़कर अपने माँ को पकड़ता कभी मुझे अपने साथ दौड़ने का न्योता देकर आगे निकल जाता। बच्चा तो नहीं समझ रहा था, मगर मैंने पत्नी को समझाया कि अभी पाँच ही दिन हुए, 28 सितंबर को यहीं से एक तीन वर्ष की बच्ची जाह्नवी गायब हो गई है। घरवालों से लेकर पुलिस तक खोज रही है, बच्ची का कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तो इंडिया गेट पर भी कोई महफूज नहीं है। बेटे पर नज़र रखना।


     अब तो इण्डिया गेट सुरक्षा चाक-चौबंद रहती है। मैं पहले भी एकबार पत्नी को लेकर आया था। पास तक नहीं जा पाया था। जनपथ के बाद बैरेकेटिंग थी। बैरेकेटिंग तो अभी भी है, मगर हम पैदल जा सकते हैं। छू तो कभी नहीं सकते। बस, बगल से ही छू सकते हैं। पूरब-पश्चिम की ओर से लौहे का मोटा जंजीर लटका रहता है। उस पर सूचनार्थ एक तख्ती भी है, - ‘स्मारक की दीवार, जंजीर व खंभे को नहीं छुए।’ अमर जवान ज्योति के पास एक जवान मूर्तिवत खड़ा था, दूसरा लोहे की जंजीर के अंदर ही गस्त लगा रहा था। हमने अपनी सुविधा और माध्यम से तो फोटो लिया ही, एक प्रोफेशनल कैमरा मैन से भी तीन फोटो बनवाए। फोटो की प्रतीक्षा करते-करते पानी का बोतल गटका। लोगों की भीड़ और बेटे की प्रसन्न्ता के बीच का सामन्जस्य थोड़ा हर्षक इसलिए भी था कि यहाँ से यातायात के साधन नहीं आते-जते। सभी जनपथ से गुजर जाते हैं। कहते हैं कि पहले इसके आसपास होकर काफी यातायात गुजरता था। परन्तु अब इसे भारी वाहनों के लिये बन्द कर दिया गया है। शाम के समय जब स्मारक को प्रकाशित किया जाता है तब इण्डिया गेट के चारो ओर एवं राजपथ के दोनों ओर घास के मैदानों में लोगों की भारी भीड़ एकत्र हो जाती है। 625 मीटर के व्यास में स्थित इण्डिया गेट का षट्भुजीय क्षेत्र 306000 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में फैला है। इस परिसर में अब जो वाहन दिखाई दे रहे थे, वे सुरक्षा कारणों से आ-जा रहे थे या रूके थे।
     दिल्ली के सभी मुख्य आकर्षणों में से पर्यटक, इंडिया गेट जाना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। दिल्ली के हृदय में स्थापित यह भारत के एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में शान से खड़ा है। अबकी बार मैं लगभग आठ माह बाद यहाँ परिवार लाया था। इस बार भागमदौड़ की भी कोई बात नहीं थी। पर्याप्त समय था। मैं अपने मोबाइल से हर पाँच-दस मिनट पर बेटे का चित्र लेता रहता था। उसकी प्रसन्नता के कारण मैं सबको लेकर बाल-उद्यान की ओर चला गया। झूला और बस झूला। खेल के इतने साधनों को देखकर बेटा हमारे पास ही नहीं रहता था। उसकी तो अलग दुनिया बन गई थी। कभी इसपर, कभी उसपर। बाल उद्यान में हम उत्तरी द्वार से प्रवेश किए थे और अपने दाँये से परिक्रमा करते हुए उस छोटे से उद्यान से लगभग दो घंटे बाद निकले। जब पूर्वी छोर पर गए तो पापड़ खाने के चक्कर में वह थोड़ा रूका। चेहरा खेलने और धूप के कारण लाल हो गया था मगर इधर झूला न देखकर थोड़ा उदास हो गया। अब बाहर निकलने के लिए बेचैन। 
बाल उद्यान के उस उत्तरी द्वार पर बैठे खोमचे वाले बहुत ही अच्छी तरह से बाल-मनोविज्ञान के ज्ञाता होते है। बबल्स, पाॅपकोर्न, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक और बाॅल। सबकुछ के लिए आवाज़ लगाने लगते हैं। मेरा बेटा जूस के लिए बेचैन हो गया। उसके लिए जूस का अर्थ है - फ्रूटी। फ्रूटी नही तो कोई भी शीतल पेय।.…..हम उसे बहलाने का प्रयास करते हुए इंडिया गेट की बाँयी ओर वाली कृत्रिम नहर के पास एक पेड़ की छाया में बैठ गए। बेटा जूस के लिए परेशान कर रहा था। हमने कॉर्न खाया। जब वह नहर के फव्वारे से पानी निकलता देखा तो बारिश का पानी समझ नहाने की इच्छा व्यक्त करने लगा। मैं उसकी हर एक क्रिया-कलाप का फोटो लेता रहा। वह जूस के लिए परेशान करता रहा। ‘मैं जूस ले लूँ?’ कह कर कुछ दूर गया और आकर पैसा माँगने लगा। अब मैं कोल्ड ड्रिंक खरीदने के लिए मन बना चुका था। हम चल पड़े, मगर मैं उसका फोटो लेता रहा। मेरे बार-बार फोटो लेने से वह इस कदर परेशान हो गया कि दोनों हाथों से सिर पकड़ कर कहने लगा, - ‘मेले समझ में कुछ नहीं आ रहा।...अब मैं क्या कलूँ?’ 

     हँसी की एक लहर फूटी। भले ही मैं पत्नी को नहीं बताया, मगर मेरे द्वारा बार-बार फोटो लेने का वास्तविक कारण तो यह था कि जाह्नवी की घटना चर्चा में है। एक तीन वर्षीय बच्ची अपहृत या गायब हो गई थी। मैं बार-बार फोटो ले रहा था, उसी के बहाने मेरी नज़र बेटे पर रहती थी। अगर सावधानी नहीं रहेगी तो क्या पता, विपदा किस रूप में आ जाए। .....खैर, मैंने एक शीतल पेय लिया। माँ-बेटे ने आनन्द लिया। इंडिया गेट के समक्ष का सारा पसारा अपने आकर्षण से सबको सम्मोहित तो करता ही है, आज मेरे बेटे ने भी पूरा आनन्द उठाया।
     अब हम राजपथ पर थे। मैं अपने आप में गर्वित हो रहा था। मैं उस राजपथ पर था, जहाँ राजपथ 26 जनवरी को परेड होता है। जहाँ रिवलुएशन के नाम पर कैंडल लेकर या मौन रूप से या उग्रता के रूप में भी लोग पहुँचा करते है। …मेरा बेटा आनंदातिरेक से भर उठा था। उसके साथ हम पति-पत्नी भी बच्चे हो गए थे। अब हम आॅटो के लिए जनपथ की ओर बढ़ चले थे। बैरेकेटिंग पर एक सूचना चस्पा किया गया था। जान्ह्वी के गुमशुदा की सूचना। पत्नी को दिखाया तो रूक कर पढ़ने लगी और उस मासूम की पीड़ा की कल्पना कर के द्रवित भी हो गईं। मैं का नहीं। वे भी आ गई। इंडिया गेट पर एक पूरे दिन को व्यतीत कर के अब हम अपने बसेरे की ओर चल दिए।
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