भारतीय संस्कृति में पूरी तरह से विविधता देखी जाती है। यह विविधता भोजपुरी की विशिष्टता बन जाती है। अलग पहचान बन जाती है। यहीं विविधता तो इस संस्कृति की विशिष्टता है। इसे किसी निश्चित ढ़ाँचे में नहीं गढ़ा जा सकता। इस बलखाती अल्हड़ नदी को किसी बाँध से नहीं घेरा जा सकता। यह तो उस वसंती हवा सी स्वतंत्र है जो अपनी ही मानती है। इसे किसी दिशा-निर्देश का अर्थ नहीं पता। इसका कोई गुरू नहीं है। इसे किसी का गुरूर नहीं है। यह तो बस जन मानस के अंतस से निकली पवित्र मानसिकता और सरस सोच को दर्शाती है। हम अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और उपलब्धियों पर मुग्ध होकर केवल वाहवाही ही नहीं देते, इसके साथ ही जीवन-जगत से उसके संबंध को और तमाम सांस्कृतिक घटकों के आपस के संबंध को पूरी तरह जोड़ते भी हैं। समझते भी हैं। संबंधों का दायरा केवल कुनबे और आस-पड़ोस तक ही नहीं होता, दूर गाँव के ‘फलाने’ भी काका, चाचा, भाई आदि कहे जाते हैं।
पश्चिम में लिखित साहित्य की परंपरा रही है। वहाँ वाचिकता की परंपरा न के बराबर है। वहाँ का अध्ययन लिखित साक्ष्य को आधार बनाकर किया जाता है, जो उचित ही है। प्रमाण से प्र्रमाणिकता सिद्ध होती है। इसके उलट अफ्रीका में वाचिक परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है, किंतु वहाँ लिखित परंपरा नहीं है। वहाँ के अध्ययन के लिए मौखिक स्रोतों का सहारा लेना ही उचित होगा। भारत में लिखित और लोक की मौखिक परंपराएँ लगभग समान रूप से सशक्त और समृद्ध रही हैं। यहाँ की पारिस्थितिक और तार्किक दोनों ही संरचना के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा तय नहीं की जा सकती। कुछ चीजें अवश्य हैं, जिन्हें पूरी तरह से लोक या शिष्ट परंपरा में रखा जा सकता है, लेकिन इन दोनों के बीच में ढेर सारी चीजें ऐसी हैं, जिन्हें दोनों में से किसी एक में न रखना असंभव है। यह भी याद रखना चाहिए कि जिन चीजों को आज हम निस्संकोच शिष्ट या लिखित परंपरा में रख सकते हैं, वह कभी वाचिक परंपरा में रही हैं।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो लोक और लिखित परंपरा में रामायण-महाभारत के सैकड़ों रूप हैं। लोक और शास्त्र के गुणात्मक योग से फलित भक्ति साहित्य ने तो खैर एक नया त्रिकोण ही रच दिया। यदि लोक और शास्त्र को ही केंद्र मानें, तो ये रचनाएँ इन दोनों केंद्रों के बीच ऐसे स्थित हैं कि लोक-मर्मज्ञ इन्हें लोक-परंपरा के ज्ञान एवं साहित्य का लिखित रूप करार देंगे और शास्त्र-ज्ञानी इन्हीं रचनाओं को शास्त्रीय ज्ञान एवं शिष्ट साहित्य का लोकोपयोगी संस्करण कहेगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी तो है, परन्तु उसके सारे सपने और उसकी सभी इच्छाएँ समाज और इतिहास में पूरी नहीं होतीं। मनुष्य के स्वप्न और उसकी इच्छाएँ समाज और इतिहास से प्रभावित तो होती हैं, लेकिन इनसे बँधी नही होतीं। इसलिए वह ‘स्वप्न लोक स्रष्टा’ है। इतिहास का कोई काल-खंड हो या समाज में व्याप्त कोई भी विचारधारा, स्त्री-पुरुष में भेदभाव स्पश्ट परिलक्षित होता रहा है। जहाँ पुरुष अपने सपनों पर नगरों, महलों और नवीन राजवंशों का उदय करता रहा है, वहीं स्त्रियों के सपने और उनकी इच्छाएँ लोकगीतों में दर्ज हैं। इस मायने से लोक-साहित्य और समृद्ध होने के साथ-साथ प्राचीन होने हुए भी नवीन चिंतन का केंद्र बन जाता है।
मैं अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान हूँ जिसके कारण उनसे मेरी सन्निकटता उनके प्रौढ़ा अवस्था से उनके वृद्धा अवस्था तक बनी रही। मैं अनगिनत बार अनुभव करता था कि माँ जग किसी विषम परिस्थिति से गुजर रही होती तो गीत गाती थी। वे गीत केवल गीत न होकर उसके अंतर की पीड़ा होते थे। मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि त बवह गाते हुए कम, रोते हुए अधिक लगती थी। किसी विषम-परिस्थिति में वह स्वयं को द्रौपदी की तरह प्रस्तुत करते हुए गाती कि -
अब पति राखीं ना हमारी जी,
मुरली वाले घनश्याम।
बीच सभा में द्रोपदी पुकारे
चारू ओरिया रउरे के निहारे
दुष्ट दुशासन खींचत बाड़ें
देहिंया पर के साड़ी जी,
मुरली वाले घनश्याम।
माँ मुझे सुलाते समय शाम-सकारे अक्सर गीत गाया करती थी। उनके गीतों के बोल से ही मैं उनके मन के हर्ष-उल्लास, पीड़ा-वेदना समझ जाता था। जब वे सहज होंती तो उनका सबसे प्रिय गाना होता शृंगार-प्रेम से युक्त गाना होता -
अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।
हिरफिर-हिरफिर एक मनवा करे
हिरफिर-हिरफिर एक मनवा करे
रउरे ओरिया ताकी ये रघुनन्दन।।
मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल
पैजनिया बाजे बाँकी ये रघुनन्दन।।
मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल
पैजनिया बाजे बाँकी ये रघुनन्दन।।
मैं तो लोक गीतों और साहित्य की समृद्धि में सबसे अधिक स्त्री के ही योगदान को मानूँगा। मैं उदाहरण के रूप में अपनी माँ को रखते हुए कहूँ तो किसी पर्व-त्योहार के अवसर पर जब भैया लोग घर नहीं आ पाते या आने में विलंब हो जाता तो माँ पूर्णतः कौशल्या बन जाती। वह कौशल्या, जिसके राम को समय रूपी कैकेयी ने वन भेज दिया है। तब तो माँ गाते-गाते अपने इतना रोतीं थी कि आवाज बैठ जाती -
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू
राम के बनवा भेजलू ना।
हो हमरो केवल हो करेजवा
तुहू काढियो लेहलू ना।
हमरा राम हो लखन के
तुहू बनवा भेजलु ना।
हमरा सीतली हो पतोहिया
के तूँ बनवा भेजलू ना।
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू
राम के बनवा भेजलू ना।
तब मैं भी उनसे छुपकर उनके दर्द भरे गीतों को सुनता और पलकों से टपकने को तैयार आंसुओं को पोंछकर कहीं दूर हट जाना चाहता। लोकगीतों को बार-बार सुनकर और इनमें आए मुद्दों पर उनकी सोच और उनकी संवेदना को तो नहीं, पर अपनी माँ को एक केंद्र मानकर बहुत कुछ समझ पाया हूँ। तब भोजपुरी लोकगीतों में नारी की प्रासंगिकता समझ में आती है। मुझे विश्वास है कि लोकगीतों का मर्म समझने वाला हर वयक्ति इस अनुभव से गुजरेगा। स्त्री लोकगीतों का स्वभाव है कि उसमें बहुत बड़ी बातें प्रायः साधारण घटना प्रसंगों के जरिए, लेकिन अनुभूति की गहनता के साथ, कही जाती हैं। गीत के अंत में एक-दो ऐसी पंक्तियाँ आ जाती हैं, जो पहले के साधारण घटना प्रसंगों को असाधारण रूप से महत्वपूर्ण बना देती हैं। लोकगीतों में जीवन-जगत के बड़े तथ्य वस्तुनिष्ठ सहसंबंध के सहारे कहे जाते हैं। औपनिवेशिक आधुनिकता के पहले सृष्टि और समाज तो क्या, परिवार की भारतीय अवधारणा भी केवल मनुष्य केंद्रित नहीं रही है। उस समय मनुष्य की भौतिक सुख-समृद्धि के लिए तमाम प्राकृतिक उपादानों के बेहिसाब दोहन की परंपरा भी नहीं रही, बल्कि प्राकृतिक अवयवों के संग प्रेम, पारस्परिकता एवं सहनिर्भरता का जीवन जीने पर जोर रहा है। इसीलिए हमारे यहाँ गंगा मइया हैं, विंध्याचल देवी हैं और लगभग सभी प्रजाति के पेड़ों पर किसी देवता का वास माना जाता है।
लोकगीतों में नारी अपने हर रूप में प्रासंगिक दिखती है। नवजात कन्या, युवती बेटी, बहन, पत्नी, माँ आदि हर रूप से नारी ने हमारे लोग-जीवन के साथ अपने सुख-दुःख को भोगते हुए लोक-गीतों को सँवारा है, समृद्ध किया है। भले कोई खुले कंठ से न स्वीकार करे परन्तु आज भी बहुत से लोग है कि जब घर में बेटी का जन्म होता है, उन्हें लगता है, जैसे जीवन में अँधेरा छा गया हो। माँ खुद को कोसती है कि यदि वो पहले जान पाती कि बेटी पैदा होगी, तो कोई जतन करके उसे पेट में ही मार डालती। बेटी पैदा होने की खबर पाकर पिता मुँह लटकाए, मुरझाया हुआ फिरता है। ये बातें स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में भी आई हैं -
जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवाँ
अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ
सासु ननद घरे दीयनो ना जरे
अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाइ रे ललनवाँ।
अब पूरी तस्वीर ये बनती है कि समाज में बेटी के जन्म से दुखी होने, इसे बुरा मानने की प्रवृत्ति को एक सीमा से अधिक बढ़ने से रोकने के लिए उसी समाज के भीतर एक लोकविश्वास उभरता है। बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप तथा परिजन दुखी और चिंतित क्यों होते हैं? इसे जाने बिना इस मुद्दे के साथ न्याय नहीं होगा। यह चर्चा आगे की जाएगी, जब इसके कारणों को स्पष्ट करने वाली बातें हो चुकी होंगी। बेटी के पैदा होने के बाद उसे मार डालने की कोशिश या इच्छा गीतों में नहीं पाई जाती। जन्म लेने के बाद बेटी भी माँ के लिए अपने ही रक्त से सींचकर पैदा की गई संतान है। वह अपनी बाल-लीलाओं से माँ-बाप के हृदय को आनंदित करती है। उसके प्यार-दुलार में माँ-बाप जीवन की तमाम कष्ट, कुछ ही समय के लिए सही, बिसार देते हैं।
यह भारतीय परंपरा द्वारा अनुमोदित स्पेस है। आधुनिकता के आने के साथ आदर्श भारतीय परिवार की आदर्श स्त्री बनाने के अभियान के साथ और इसके बाद यह स्पेस घटा है। स्पेस स्त्री बनाने का, स्पेस लोक-गीतों का। समय के साथ चलने का होड़ लगाता मानव-तर्क चाहे कहे कुछ भी, परन्तु लोक-जीवन, लोक-साहित्य और लोक गीतों का स्वरूप् विकसित ही हुआ है। समृद्ध ही हुआ है। लोक-गीत और लोक-अस्तित्व आधुनिक तार्किक सोच नहीं हैं। इन्हें वर्षों पहले परिभाषित भी किया गया था और पोषित भी। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध पुरुष सूक्त में ‘लोक’ शब्द का व्यवहार जीवन तथा स्थान दोनों अर्थों में किया जाता है। -
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीष्र्णो द्यौः समवर्तत्।
पद्भ्यां भूमिर्दि्दशः श्रोत्रात्तथा लोकां अकल्पयन्।।
ऐसे असंख्य उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि सामान्य जीवन एवं स्थान से जुड़े संगीत को लोक-संगीत कहा जाता है। लगभग सभी भाषाओं या बोलियों का अधिकांश लोक-संगीत लिखित कम, मौखिक अधिक है। गेय विरासत के रूप में लोक-संगीत पीढि़यों को हस्तांतरित होते रहने वाला जन-जीवन का दर्पण होता है। जनता के हृदय का उद्गार होता है।
ग्रामीण जनता संस्कारों, ऋतुओं, पूजा-व्रतों, विभिन्न कार्यकलापों आदि के अवसर पर जब अपने मन की भावनाओं का उद्गाार गाकर करती है तो अनायास ही लोक-संगीत का सृजन हो जाता है। लोक-संगीत सभ्यताओं, संस्कारों को समृद्ध करने के साथ-साथ बोलियों, भाषाओं को भी एक पहचान देने में सक्षम है। भोजपुरी लोक-संगीत को अपनी सरसता, मादकता, समृद्धि, उन्माद, अपनापन, ठेंठपन आदि के कारण सबसे समृद्ध कहा जा सकता है। जन-जन में अपनी प्रचुरता एवं व्यापकता के कारण भोजपुरी लोक-संगीत की प्रधानता स्वाभाविक है।
मजूरी कई के
हम मजूरी कई के
जी हजूरी कई के
अपने सइयाँ केऽऽ
अपने बलमा के पढ़ाइब
मजूरी कई के।।
भोजपुरी पूरब की बोली है। पूरब! जहाँ की मिट्टी सदानीरा सरीताओं की तरंगों और रसों से आप्लावित रहती है। जब मिट्टी ही सरस होगी तो संगीत का सुर सरस क्यों नहीं होगा? जब सरसता, मादकता , सौंदर्य, प्रेम, ममता, समर्पण, परिश्रम, जीवटता, जीवन आदि की बात आए तो जीवन देने वाली, जीवन भोगने वाली और जीवन बनाने वाली नारी कैसे बच पाएगी? --- नारी तो जीवन का आधार है। लोक-संस्कृति, लोक-संस्कार, लोक-जीवन नारी से है, तो लोक-संगीत उसके बिना कैसे हो सकता?
कुछ वर्षों पहले मैं अपने शहर में हमेशा सिनेमा देखने जाया करता था। एक चित्र मंदिर में तो लगभग एक वर्ष से सिनेमा शुरू होने के पहले एक ही विज्ञापन दिखाया जाता था। मैं उस विज्ञापन को देखते-देखते ऊब गया था, परन्तु उसके शब्दों में डूब गया था। वाॅयस-ओवर के एक-एक शब्द मस्तिष्क में चित्र बनाने लगते थे। नारी! प्रकृति की अनुपम कृति। प्रेम और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति! --- ममता और स्नेह का साकार रूप।
तब जयशंकर प्रसाद की पंक्तियाँ जबान पर जुगाली करने लगतीं -
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग-पद-तल में।
पियुष-स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।।
नारी चर्चा के बिना कोई भी लोक-संगीत को शून्य कहा जा सकता है। भोजपुरी-संगीत में भी नारी के विविध रूपों का वर्णन देखा जा सकता है। भोजपुरी का श्रृंगाार, करुण, वीर, हास्य, निर्गुण संगीत हो या आधुनिक फिल्मी ठुमका, सारे झाँझ, पखावज, हारमोनियम, बैंजू, गिटार नारी के आस-पास ही स्वर-साधना करते हैं। सोहर में नारी के एक रूप को देखें -
मचीया बइठल मोरे सास
सगरी गुन आगर हेऽ।
ए बहुअर, ऊठऽ नाही पनीया के जावहु
चुचुहीया एक बोलेलेऽ हेऽ।।
भोजपुरी लोक-संगीत में वर्णन चाहे ऋतुओं का हो या व्रतों का, देवताओं का हो या संस्कारों का, जातियों का हो या श्रमों-कर्मों का, हर संगीत में नारी के हर रूप को पाया जा सकता है। भोजपुरी लोक-संगीत आल्हा भले ही वीर रस से सराबोर है, नारी विवशता, अधिकार, सौंदर्य और समर्पण के रूप में वर्णित हो ही जाती है, -
जाकी बिटिया सुन्दर देखी, ता पर जाई धरे तरवार।।
या
चार मुलुकवा खोजि अइलो कतहु ना जोड़ी मिले बार-कुँआर
कनिया जामल नैनागढ़ में राजा इन्दरमल के दरबार
बेटी सयानी सम देवा के बर माँगल बाघ झज्जार
बडि़ लालसा बा जियरा में जो भैया के करों बियाह
करों बिअहवा सोनवा सेऽ -----।।
फगुआ और चैता के शब्द तो जैसे नारी से ही ऊपजे हैं -
गोरी भेजे बयनवा हो रामा
अँचरा से ढाकि-ढाकि के।।
सावन की हरियाली में जब पूरी भोजपुरीया धरती लहलहा उठती है, तब कोई भी विवाहिता अपने पति से दूर नहीं रहना चाहती। कजरी के गीतों में नारी के प्रेयसी स्वरूप को देखा जा सकता है। -
भइया मोर अइलें बोलावे होऽ
सवनवा में ना जइबें ननदी।
चहें भइया रहें चाहें जाएँ होऽ
स्वनवा में ना जइबें ननदी।।
भोजपुरी-क्षेत्र में होने वाले सभी व्रत-त्योहारों में नारी के पावन रूप का वर्णन आयास ही देखा जा सकता है। व्रत-त्योहार तो वैसे ही स्त्री के निष्ठा के प्रतीक हैं। फिर उनसे स्त्री अलग कैसे हो सकती है? भोजपुरी मिट्टी के सबसे पावन व्रत छठ में करुणा से सनी, छठ माता के आशीष की आग्रही नारी का एक चित्रण -
पटुका पसारि भीखि माँगेली बालकवा के माई
हमके बालकऽ भीखि दींहि, ए छठी मइया
हमके बालकऽ भीखि दींहि।
निर्गुण में तो नारी आत्मा ही बन जाती है -
जबसे गवनवा के दिनवा धराइल
अँखिया ना नींद आवे
देंह पीअराइल।।
हम कह सकते हैं कि नारी चैता की विरह है। लोरी की थाप है। निर्गुण का छंद है। कँहरवा की पीड़ा है। पचरा की भक्तिन है। आल्हा की मर्दानगी है। फगुआ की मांसलता है। छठ की सुशीलता है। विदाई की अश्रुधारा है। सोहर की सद्यः-प्रसुता है। बिरहा की अलाप है। झूमर की भाव व्यंजना नारी है। जँतसार की ध्वन्यात्म राग भी नारी ही है। नारी बारहमासा का वर्णन है। निर्धनता की आह नारी व्यक्त करती है। रिश्तों की डोर नारी संभालती है। भोजपुरी के किसी भी लोक-संगीत की बात की जाए, नारी का रूप पहले झलकता है। ननद-भौजाई का व्यंग्य हो या सासु का शासन, देवर की छेड़छाड़ या जेठ की बदमाशियाँ, नारी की उपस्थिति मात्र से ही लोक-संगीत में इनका वर्णन संभव हो जाता है।
कुँआरी लड़कियाँ भाई के शुभ के लिए कार्तिक मास में पिडि़या का व्रत रहती हैं तो माताएँ पुत्र की रक्षा के लिए जिउतिया। पत्नियाँ अपने सुहाग की रक्षा के लिए तीज का व्रत रहती हैं तो नारियों में बहुरा और पनढरकउवा आदि भी व्रत-त्योहार रहती हैं। नारी के माध्यम से भोजपुरी लोक-संगीत में जन-जीवन के आर्थिक पक्ष की झाँकी भी प्रस्तुत की जाती रही है-
सोने के थाली में जेवना परोसलों,
जेवना ना जेवें अलबेला,
बलम कलकत्ता निकल गयो जीऽऽ।
भोजपुरी लोक साहित्य में नारी का जो चित्रण किया गया है वह मांसल, मादक और आकर्षक होने के साथ-साथ सरस, शिष्ट और सभ्य भी है। पति-पत्नी, भाई-बहन, माता-पुत्री, ननद-भौजाई, सास-बहु का जो वर्णन हमारे सामने उपलब्ध होता है, उससे समाज में नारी का विविध चित्र अंकित हो जाता है। नारी के जिन रूपों का शुद्ध एवं सत्य वर्णन भोजपुरी लोग-संगीत में पाया जाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
समय के साथ बदलाव की बयार का गंध सब सूँघ रहें हैं। भोजपुरी का लोक-संगीत भी इससे अछुता नहीं है। व्यावसायिकता और बाजारू संस्कृति ने लोक-संगीत को कुछ रंगीन कर दिया है। भोजपुरी लोक-संगीत पर भी आधुनिकीकरण का मुलम्मा चढ़ाकर बाजार में परोसा जा रहा है। मांसलता के वर्चस्व के साथ ही सरसता को भी नहीं बिसारा गया है। भोजपुरी भाषा, भाव और संगीत में भी नित नए जीविकोपार्जन के अवसर सृजित किए जा रहे हैं। नारी रूपों के विविध वर्णन से ही भोजपुरी के लोक-संगीत का अतीत तो समृद्ध है ही, वर्तमान में रोजगार के अवसर उपलब्ध रहे हैं। इस आधार पर कह सकते है कि आने वाला कल हमारा अत्यंत उज्ज्वल है। सच ही प्रत्येक सफलता के पीछे नारी का हाथ होता है। इसे मानने के साथ ही स्वीकार करने की भी क्षमता रखनी पड़ेगी। नारी से ही तो यह सृष्टि है। भोजपुरी लोकगीतों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो उस नारी की प्रासंगिकता अधिक समृद्ध और सार्थक दृष्टिगत होती है।
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