Oct 26, 2014

भोजपुरी लोकगीतों में नारी की प्रासंगिकता

     भारतीय संस्कृति में पूरी तरह से विविधता देखी जाती है। यह विविधता भोजपुरी की विशिष्टता बन जाती है। अलग पहचान बन जाती है। यहीं विविधता तो इस संस्कृति की विशिष्टता है। इसे किसी निश्चित ढ़ाँचे में नहीं गढ़ा जा सकता। इस बलखाती अल्हड़ नदी को किसी बाँध से नहीं घेरा जा सकता। यह तो उस वसंती हवा सी स्वतंत्र है जो अपनी ही मानती है। इसे किसी दिशा-निर्देश का अर्थ नहीं पता। इसका कोई गुरू नहीं है। इसे किसी का गुरूर नहीं है। यह तो बस जन मानस के अंतस से निकली पवित्र मानसिकता और सरस सोच को दर्शाती है। हम अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और उपलब्धियों पर मुग्ध होकर केवल वाहवाही ही नहीं देते, इसके साथ ही जीवन-जगत से उसके संबंध को और तमाम सांस्कृतिक घटकों के आपस के संबंध को पूरी तरह जोड़ते भी हैं। समझते भी हैं। संबंधों का दायरा केवल कुनबे और आस-पड़ोस तक ही नहीं होता, दूर गाँव के ‘फलाने’ भी काका, चाचा, भाई आदि कहे जाते हैं।
      पश्चिम में लिखित साहित्य की परंपरा रही है। वहाँ वाचिकता की परंपरा न के बराबर है। वहाँ का अध्ययन लिखित साक्ष्य को आधार बनाकर किया जाता है, जो उचित ही है। प्रमाण से प्र्रमाणिकता सिद्ध होती है। इसके उलट अफ्रीका में वाचिक परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है, किंतु वहाँ लिखित परंपरा नहीं है। वहाँ के अध्ययन के लिए मौखिक स्रोतों का सहारा लेना ही उचित होगा। भारत में लिखित और लोक की मौखिक परंपराएँ लगभग समान रूप से सशक्त और समृद्ध रही हैं। यहाँ की पारिस्थितिक और तार्किक दोनों ही संरचना के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा तय नहीं की जा सकती। कुछ चीजें अवश्य हैं, जिन्हें पूरी तरह से लोक या शिष्ट परंपरा में रखा जा सकता है, लेकिन इन दोनों के बीच में ढेर सारी चीजें ऐसी हैं, जिन्हें दोनों में से किसी एक में न रखना असंभव है। यह भी याद रखना चाहिए कि जिन चीजों को आज हम निस्संकोच शिष्ट या लिखित परंपरा में रख सकते हैं, वह कभी वाचिक परंपरा में रही हैं।
      भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो लोक और लिखित परंपरा में रामायण-महाभारत के सैकड़ों रूप हैं। लोक और शास्त्र के गुणात्मक योग से फलित भक्ति साहित्य ने तो खैर एक नया त्रिकोण ही रच दिया। यदि लोक और शास्त्र को ही केंद्र मानें, तो ये रचनाएँ इन दोनों केंद्रों के बीच ऐसे स्थित हैं कि लोक-मर्मज्ञ इन्हें लोक-परंपरा के ज्ञान एवं साहित्य का लिखित रूप करार देंगे और शास्त्र-ज्ञानी इन्हीं रचनाओं को शास्त्रीय ज्ञान एवं शिष्ट साहित्य का लोकोपयोगी संस्करण कहेगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी तो है, परन्तु उसके सारे सपने और उसकी सभी इच्छाएँ समाज और इतिहास में पूरी नहीं होतीं। मनुष्य के स्वप्न और उसकी इच्छाएँ समाज और इतिहास से प्रभावित तो होती हैं, लेकिन इनसे बँधी नही होतीं। इसलिए वह ‘स्वप्न लोक स्रष्टा’ है। इतिहास का कोई काल-खंड हो या समाज में व्याप्त कोई भी विचारधारा, स्त्री-पुरुष में भेदभाव स्पश्ट परिलक्षित होता रहा है। जहाँ पुरुष अपने सपनों पर नगरों, महलों और नवीन राजवंशों का उदय करता रहा है, वहीं स्त्रियों के सपने और उनकी इच्छाएँ लोकगीतों में दर्ज हैं।  इस मायने से लोक-साहित्य और समृद्ध होने के साथ-साथ प्राचीन होने हुए भी नवीन चिंतन का केंद्र बन जाता है। 
      मैं अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान हूँ जिसके कारण उनसे मेरी सन्निकटता उनके प्रौढ़ा अवस्था से उनके वृद्धा अवस्था तक बनी रही। मैं अनगिनत बार अनुभव करता था कि माँ जग किसी विषम परिस्थिति से गुजर रही होती तो गीत गाती थी। वे गीत केवल गीत न होकर उसके अंतर की पीड़ा होते थे। मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि त बवह गाते हुए कम, रोते हुए अधिक लगती थी। किसी विषम-परिस्थिति में वह स्वयं को द्रौपदी की तरह प्रस्तुत करते हुए गाती कि -

अब पति राखीं ना हमारी जी, 
मुरली वाले घनश्याम।
बीच सभा में द्रोपदी पुकारे
चारू ओरिया रउरे के निहारे
दुष्ट दुशासन खींचत बाड़ें
देहिंया पर के साड़ी जी, 
मुरली वाले घनश्याम।

     माँ मुझे सुलाते समय शाम-सकारे अक्सर गीत गाया करती थी। उनके गीतों के बोल से ही मैं उनके मन के हर्ष-उल्लास, पीड़ा-वेदना समझ जाता था। जब वे सहज होंती तो उनका सबसे प्रिय गाना होता शृंगार-प्रेम से युक्त गाना होता -

अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन। 
हिरफिर-हिरफिर एक मनवा करे 
रउरे ओरिया ताकी  ये रघुनन्दन।।
मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल 
पैजनिया बाजे बाँकी ये रघुनन्दन।। 

      मैं तो लोक गीतों और साहित्य की समृद्धि में सबसे अधिक स्त्री के ही योगदान को मानूँगा। मैं उदाहरण के रूप में अपनी माँ को रखते हुए कहूँ तो किसी पर्व-त्योहार के अवसर पर जब भैया लोग घर नहीं आ पाते या आने में विलंब हो जाता तो माँ पूर्णतः कौशल्या बन जाती। वह कौशल्या, जिसके राम को समय रूपी कैकेयी ने वन भेज दिया है। तब तो माँ गाते-गाते अपने इतना रोतीं थी कि आवाज बैठ जाती - 

केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना।  
हो हमरो केवल हो करेजवा 
तुहू काढियो लेहलू ना। 
हमरा राम हो लखन के 
तुहू बनवा भेजलु ना। 
हमरा सीतली हो पतोहिया 
के तूँ बनवा भेजलू ना। 
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना। 

      तब मैं भी उनसे छुपकर उनके दर्द भरे गीतों को सुनता और पलकों से टपकने को तैयार आंसुओं को पोंछकर कहीं दूर हट जाना चाहता। लोकगीतों को बार-बार सुनकर और इनमें आए मुद्दों पर उनकी सोच और उनकी संवेदना को तो नहीं, पर अपनी माँ को एक केंद्र मानकर बहुत कुछ समझ पाया हूँ। तब भोजपुरी लोकगीतों में नारी की प्रासंगिकता समझ में आती है। मुझे विश्वास है कि लोकगीतों का मर्म समझने वाला हर वयक्ति इस अनुभव से गुजरेगा। स्त्री लोकगीतों का स्वभाव है कि उसमें बहुत बड़ी बातें प्रायः साधारण घटना प्रसंगों के जरिए, लेकिन अनुभूति की गहनता के साथ, कही जाती हैं। गीत के अंत में एक-दो ऐसी पंक्तियाँ आ जाती हैं, जो पहले के साधारण घटना प्रसंगों को असाधारण रूप से महत्वपूर्ण बना देती हैं। लोकगीतों में जीवन-जगत के बड़े तथ्य वस्तुनिष्ठ सहसंबंध के सहारे कहे जाते हैं। औपनिवेशिक आधुनिकता के पहले सृष्टि और समाज तो क्या, परिवार की भारतीय अवधारणा भी केवल मनुष्य केंद्रित नहीं रही है। उस समय मनुष्य की भौतिक सुख-समृद्धि के लिए तमाम प्राकृतिक उपादानों के बेहिसाब दोहन की परंपरा भी नहीं रही, बल्कि प्राकृतिक अवयवों के संग प्रेम, पारस्परिकता एवं सहनिर्भरता का जीवन जीने पर जोर रहा है। इसीलिए हमारे यहाँ गंगा मइया हैं, विंध्याचल देवी हैं और लगभग सभी प्रजाति के पेड़ों पर किसी देवता का वास माना जाता है। 
      लोकगीतों में नारी अपने हर रूप में प्रासंगिक दिखती है। नवजात कन्या, युवती बेटी, बहन, पत्नी, माँ आदि हर रूप से नारी ने हमारे लोग-जीवन के साथ अपने सुख-दुःख को भोगते हुए लोक-गीतों को सँवारा है, समृद्ध किया है। भले कोई खुले कंठ से न स्वीकार करे परन्तु आज भी बहुत से लोग है कि जब घर में बेटी का जन्म होता है, उन्हें लगता है, जैसे जीवन में अँधेरा छा गया हो। माँ खुद को कोसती है कि यदि वो पहले जान पाती कि बेटी पैदा होगी, तो कोई जतन करके उसे पेट में ही मार डालती। बेटी पैदा होने की खबर पाकर पिता मुँह लटकाए, मुरझाया हुआ फिरता है। ये बातें स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में भी आई हैं -

जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवाँ
अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ
सासु ननद घरे दीयनो ना जरे
अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाइ रे ललनवाँ।

      अब पूरी तस्वीर ये बनती है कि समाज में बेटी के जन्म से दुखी होने, इसे बुरा मानने की प्रवृत्ति को एक सीमा से अधिक बढ़ने से रोकने के लिए उसी समाज के भीतर एक लोकविश्वास उभरता है। बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप तथा परिजन दुखी और चिंतित क्यों होते हैं? इसे जाने बिना इस मुद्दे के साथ न्याय नहीं होगा। यह चर्चा आगे की जाएगी, जब इसके कारणों को स्पष्ट करने वाली बातें हो चुकी होंगी। बेटी के पैदा होने के बाद उसे मार डालने की कोशिश या इच्छा गीतों में नहीं पाई जाती। जन्म लेने के बाद बेटी भी माँ के लिए अपने ही रक्त से सींचकर पैदा की गई संतान है। वह अपनी बाल-लीलाओं से माँ-बाप के हृदय को आनंदित करती है। उसके प्यार-दुलार में माँ-बाप जीवन की तमाम कष्ट, कुछ ही समय के लिए सही, बिसार देते हैं। 
      यह भारतीय परंपरा द्वारा अनुमोदित स्पेस है। आधुनिकता के आने के साथ आदर्श भारतीय परिवार की आदर्श स्त्री बनाने के अभियान के साथ और इसके बाद यह स्पेस घटा है। स्पेस स्त्री बनाने का, स्पेस लोक-गीतों का। समय के साथ चलने का होड़ लगाता मानव-तर्क चाहे कहे कुछ भी, परन्तु लोक-जीवन, लोक-साहित्य और लोक गीतों का स्वरूप् विकसित ही हुआ है। समृद्ध ही हुआ है। लोक-गीत और लोक-अस्तित्व आधुनिक तार्किक सोच नहीं हैं। इन्हें वर्षों पहले परिभाषित भी किया गया था और पोषित भी। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध पुरुष सूक्त में ‘लोक’ शब्द का व्यवहार जीवन तथा स्थान दोनों अर्थों में किया जाता है। -

नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीष्र्णो द्यौः समवर्तत्।
पद्भ्यां भूमिर्दि्दशः श्रोत्रात्तथा लोकां अकल्पयन्।।

ऐसे असंख्य उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि सामान्य जीवन एवं स्थान से जुड़े संगीत को लोक-संगीत कहा जाता है। लगभग सभी भाषाओं या बोलियों का अधिकांश लोक-संगीत लिखित कम, मौखिक अधिक है। गेय विरासत के रूप में लोक-संगीत पीढि़यों को हस्तांतरित होते रहने वाला  जन-जीवन का दर्पण होता है। जनता के हृदय का उद्गार होता है।
ग्रामीण जनता संस्कारों, ऋतुओं, पूजा-व्रतों, विभिन्न कार्यकलापों आदि के अवसर पर जब अपने मन की भावनाओं का उद्गाार गाकर करती है तो अनायास ही लोक-संगीत का सृजन हो जाता है। लोक-संगीत सभ्यताओं, संस्कारों को समृद्ध करने के साथ-साथ बोलियों, भाषाओं को भी एक पहचान देने में सक्षम है। भोजपुरी लोक-संगीत को अपनी सरसता, मादकता, समृद्धि, उन्माद, अपनापन, ठेंठपन आदि के कारण सबसे समृद्ध कहा जा सकता है। जन-जन में अपनी प्रचुरता एवं व्यापकता के कारण भोजपुरी लोक-संगीत की प्रधानता स्वाभाविक है। 

मजूरी कई के 
हम मजूरी कई के 
जी हजूरी कई के 
अपने सइयाँ केऽऽ 
अपने बलमा के पढ़ाइब
मजूरी कई के।।

भोजपुरी पूरब की बोली है। पूरब! जहाँ की मिट्टी सदानीरा सरीताओं की तरंगों और रसों से आप्लावित रहती है। जब मिट्टी ही सरस होगी तो संगीत का सुर सरस क्यों नहीं होगा? जब सरसता, मादकता , सौंदर्य, प्रेम, ममता, समर्पण, परिश्रम, जीवटता, जीवन आदि की बात आए तो जीवन देने वाली, जीवन भोगने वाली और जीवन बनाने वाली नारी कैसे बच पाएगी? --- नारी तो जीवन का आधार है। लोक-संस्कृति, लोक-संस्कार, लोक-जीवन नारी से है, तो लोक-संगीत उसके बिना कैसे हो सकता?
कुछ वर्षों पहले मैं अपने शहर में हमेशा सिनेमा देखने जाया करता था। एक चित्र मंदिर में तो लगभग एक वर्ष से सिनेमा शुरू होने के पहले एक ही विज्ञापन दिखाया जाता था। मैं उस विज्ञापन को देखते-देखते ऊब गया था, परन्तु उसके शब्दों में डूब गया था। वाॅयस-ओवर के एक-एक शब्द मस्तिष्क में चित्र बनाने लगते थे। नारी! प्रकृति की अनुपम कृति। प्रेम और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति! --- ममता और स्नेह का साकार रूप। 
तब जयशंकर प्रसाद की पंक्तियाँ जबान पर जुगाली करने लगतीं -

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग-पद-तल में।
पियुष-स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।।

नारी चर्चा के बिना कोई भी लोक-संगीत को शून्य कहा जा सकता है। भोजपुरी-संगीत में भी नारी के विविध रूपों का वर्णन देखा जा सकता है। भोजपुरी का श्रृंगाार, करुण, वीर, हास्य, निर्गुण संगीत हो या आधुनिक फिल्मी ठुमका, सारे झाँझ, पखावज, हारमोनियम, बैंजू, गिटार नारी के आस-पास ही स्वर-साधना करते हैं। सोहर में नारी के एक रूप को देखें -

मचीया बइठल मोरे सास
सगरी गुन आगर हेऽ।
ए बहुअर, ऊठऽ नाही पनीया के जावहु
चुचुहीया एक बोलेलेऽ हेऽ।।

     भोजपुरी लोक-संगीत में वर्णन चाहे ऋतुओं का हो या व्रतों का, देवताओं का हो या संस्कारों का, जातियों का हो या श्रमों-कर्मों का, हर संगीत में नारी के हर रूप को पाया जा सकता है। भोजपुरी लोक-संगीत आल्हा भले ही वीर रस से सराबोर है, नारी विवशता, अधिकार, सौंदर्य और समर्पण के रूप में वर्णित हो ही जाती है, - 

जाकी बिटिया सुन्दर देखी, ता पर जाई धरे तरवार।।
या
चार मुलुकवा खोजि अइलो कतहु ना जोड़ी मिले बार-कुँआर
कनिया जामल नैनागढ़ में राजा इन्दरमल के दरबार
बेटी सयानी सम देवा के बर माँगल बाघ झज्जार
बडि़ लालसा बा जियरा में जो भैया के करों बियाह
करों बिअहवा सोनवा सेऽ -----।।

    फगुआ और चैता के शब्द तो जैसे नारी से ही ऊपजे हैं -

गोरी भेजे बयनवा हो रामा
अँचरा से ढाकि-ढाकि के।।

     सावन की हरियाली में जब पूरी भोजपुरीया धरती लहलहा उठती है, तब कोई भी विवाहिता अपने पति से दूर नहीं रहना चाहती। कजरी के गीतों में नारी के प्रेयसी स्वरूप को देखा जा सकता है। -

भइया मोर अइलें बोलावे होऽ
सवनवा में ना जइबें ननदी।
चहें भइया रहें चाहें जाएँ होऽ
स्वनवा में ना जइबें ननदी।।

     भोजपुरी-क्षेत्र में होने वाले सभी व्रत-त्योहारों में नारी के पावन रूप का वर्णन आयास ही देखा जा सकता है। व्रत-त्योहार तो वैसे ही स्त्री के निष्ठा के प्रतीक हैं। फिर उनसे स्त्री  अलग कैसे हो सकती है? भोजपुरी मिट्टी के सबसे पावन व्रत छठ में करुणा से सनी, छठ माता के आशीष की आग्रही नारी का एक चित्रण -

पटुका पसारि भीखि माँगेली बालकवा के माई
हमके बालकऽ भीखि दींहि, ए छठी मइया
हमके बालकऽ भीखि दींहि।

    निर्गुण में तो नारी आत्मा ही बन जाती है -

जबसे गवनवा के दिनवा धराइल
अँखिया ना नींद आवे
देंह पीअराइल।।

      हम कह सकते हैं कि नारी चैता की विरह है। लोरी की थाप है। निर्गुण का छंद है। कँहरवा की पीड़ा है। पचरा की भक्तिन है। आल्हा की मर्दानगी है। फगुआ की मांसलता है। छठ की सुशीलता है। विदाई की अश्रुधारा है। सोहर की सद्यः-प्रसुता है। बिरहा की अलाप है। झूमर की भाव व्यंजना नारी है। जँतसार की ध्वन्यात्म राग भी नारी ही है। नारी बारहमासा का वर्णन है। निर्धनता की आह नारी व्यक्त करती है। रिश्तों की डोर नारी संभालती है। भोजपुरी के किसी भी लोक-संगीत की बात की जाए, नारी का रूप पहले झलकता है। ननद-भौजाई का व्यंग्य हो या सासु का शासन, देवर की छेड़छाड़ या जेठ की बदमाशियाँ, नारी की उपस्थिति मात्र से ही लोक-संगीत में इनका वर्णन संभव हो जाता है।
     कुँआरी लड़कियाँ भाई के शुभ के लिए कार्तिक मास में पिडि़या का व्रत रहती हैं तो माताएँ पुत्र की रक्षा के लिए जिउतिया। पत्नियाँ अपने सुहाग की रक्षा के लिए तीज का व्रत रहती हैं तो नारियों में बहुरा और पनढरकउवा आदि भी व्रत-त्योहार रहती हैं। नारी के माध्यम से भोजपुरी लोक-संगीत में जन-जीवन के आर्थिक पक्ष की झाँकी भी प्रस्तुत की जाती रही है-

सोने के थाली में जेवना परोसलों,
जेवना ना जेवें अलबेला,
बलम कलकत्ता निकल गयो जीऽऽ।

      भोजपुरी लोक साहित्य में नारी का जो चित्रण किया गया है वह मांसल, मादक और आकर्षक होने के साथ-साथ सरस, शिष्ट और सभ्य भी है। पति-पत्नी, भाई-बहन, माता-पुत्री, ननद-भौजाई, सास-बहु का जो वर्णन हमारे सामने उपलब्ध होता है, उससे समाज में नारी का विविध चित्र अंकित हो जाता है। नारी के जिन रूपों का शुद्ध एवं सत्य वर्णन भोजपुरी लोग-संगीत में पाया जाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
      समय के साथ बदलाव की बयार का गंध सब सूँघ रहें हैं। भोजपुरी का लोक-संगीत भी इससे अछुता नहीं है। व्यावसायिकता और बाजारू संस्कृति ने लोक-संगीत को कुछ रंगीन कर दिया है। भोजपुरी लोक-संगीत पर भी आधुनिकीकरण का मुलम्मा चढ़ाकर बाजार में परोसा जा रहा है। मांसलता के वर्चस्व के साथ ही सरसता को भी नहीं बिसारा गया है। भोजपुरी भाषा, भाव और संगीत में भी नित नए जीविकोपार्जन के अवसर सृजित किए जा रहे हैं। नारी रूपों के विविध वर्णन से ही भोजपुरी के लोक-संगीत का अतीत तो समृद्ध है ही, वर्तमान में रोजगार के अवसर उपलब्ध रहे हैं। इस आधार पर कह सकते है कि आने वाला कल हमारा अत्यंत उज्ज्वल है। सच ही प्रत्येक सफलता के पीछे नारी का हाथ होता है। इसे मानने के साथ ही स्वीकार करने की भी क्षमता रखनी पड़ेगी। नारी से ही तो यह सृष्टि है। भोजपुरी लोकगीतों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो उस नारी की प्रासंगिकता अधिक समृद्ध और सार्थक दृष्टिगत होती है। 
                                                                   ---------------

Oct 22, 2014

मेरे लिए दिवाली का आना


     अब जब भी दिवाली आती है, मैं अपने टीन-ऐज में चला जाता हूँ। तब की पूरी दिवाली अपने घर पर मनाया हूँ। दिवाली आने के तीन-चार दिन पहले से ही घर-द्वार और उसके आगे-पीछे की सफाई में सब लग जाते थे। तब सबसे आनंददायक होता था कठ-बक्सा (वुडेन-बॉक्स) साफ़ करना। उसकी सफाई में मेरी सहभागिता अवश्य होती। कारण यह था कि मैं अपने भाई-बहनों में सबसे छोटा होने के कारण बक्से में अंदर घुस जाता और दोनों बक्सों की जमकर सफाई करता। सफाई के दौरान जो कोने में पड़े सिक्के मिलते उसमे किसी का हिस्सा नहीं होता था। वे सिक्के मेरे लिए दिवाली पर लक्ष्मी जी की कृपा होते। उसके बाद ही द्वार पर कहीं बन आये गड्ढों के लिए मिट्टी धोना, फूल-पौधों की साफ-सफाई, बस वहीं से 'दीप जलाओ, दीप जलाओ, आज दिवाली आई रे' की शुरुआत हो जाती। 
      अब घर से बाहर नौकरी करते वक़्त दिवाली की अनुभूति कुछ अलग हो गई है। लगता है कि आज तो राम जी अपनी भार्या को स्वतंत्र करा कर घर आये थे, हम तो स्वंय ही परतंत्र है। तब, जब कभी भैया घर नहीं आ पाते तो माँ समय-कैकेयी को कोसते हुए फफकती और गाती रहती - 
'केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना।  
हो हमरो केवल हो करेजवा 
तुहू काढियो लेहलू ना। 
हमरा राम हो लखन के 
तुहू बनवा भेजलु ना। 
हमरा सीतली हो पतोहिया 
के तूँ बनवा भेजलू ना। 
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना।'  

      तब मैं भी उनसे छुपकर उनके दर्द भरे गीतों को सुनता और पलकों से टपकने को तैयार आंसुओं को पोंछकर कहीं दूर हट जाना चाहता। वे गीत आज के दिन फिर याद आते हैं। याद आती है कठ-बक्सा की सफाई के लिए बाबूजी की पुकार, किसी कोने से सिक्का पाना, दीदी का माँगना, मुझे मना करना, भैया का भाभी के साथ आना,और तब अपने कुनबे की विराटता पर बाबूजी के गर्व से चमकते मस्तक और माँ के मुख-मंडल पर दीप्त दूध की ताक़त। 
      आज मेरे लिए दिवाली का आना सिर्फ दीपों के उत्सव का आना नहीं है, लड़ियों की सजावट और तेल-बत्ती की तैयारी ही नहीं है, बचपन के उन याद का आना भी है, जो समय के दावानल में भस्म होने के बदले कुंदन हो गई है। उन्हें किसी भी हुदहुद से रत्ती भर भी नुकसान नहीं हुआ, वनिस्पत उसपर चढ़ी धूल की परतें धूल गई हैं। मैं वहीं दिवाली चाहता भी हूँ। 
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ऊर्वर मिट्टी के सजग कलमकार


     उत्तर-प्रदेश का सबसे पिछड़ा जिला है कुशीनगर। कुशीनगर की अपनी ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता है। प्रशासनिक रूप से देखें तो कुशीनगर जिला में चार तहसीलें हैं - कसया, हाटा, पडरौना और तमकुहीराज। जब राजतंत्र था, तब बनारस राज्य भूमिहार ब्राह्मणों के आधिपत्य में 1725-1947 तक रहा। बनारस की ही तरह बेतिया, हथुवा, टिकारी, लालगोला और तमकुही भी उनके द्वारा शासित एक बड़ा राज्य था।  आज के प्रजातंत्रीय व्यवस्था में तमकुहीराज एक तहसील है। तहसील होने के साथ ही साथ तमकुहीराज उत्तर-प्रदेश का एक विधानसभा क्षेत्र भी है। इतिहास को देखने पर पता चलता है कि यहाँ के राजा इंद्रजीत प्रताप साही बड़े ही साहित्यिक मिज़ाज़ के तथा कला-प्रिय व्यक्ति थे।
     तमकुहीराज परिक्षेत्र के वर्तमान स्वरूप का आकलन करने के लिए सरकारी दस्तावेज़ों और आकड़ों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस तहसील में लगभग 395 गाँव है। उनमें से सबसे बड़ा गाँव परसौनी बुज़ुर्ग है, जिसकी 8375 जसंख्या है। पूरे तहसील की जनसंख्या 674720 है, जिसमें 341108 पुरुष और 333614 महिलाएँ हैं। यहाँ की जलवायु सर्वजन अनुकूल है। मिट्टी नम है। नमी के कारण ऊर्वर भी है। यहाँ के खेतों की फसलें तीन-चार माह की बरसात के पानी से लबालब होने के साथ ही त्रिवेणी (नेपाल) से आने वाली पूर्वी गंडक नहर से भी सिंचित होकर लहलहाती हैं।
     इस क्षेत्र ने देश को अनेक राजनैतिक व्यक्तित्व, सामाजिक चिंतक और साहित्यिक सेवक भी दिया है। यह क्षेत्र साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की दृष्टि से उपेक्षित रहा है, परन्तु यहाँ किसी भी प्रकार की कमी नहीं रही है। इस क्षेत्र में लोकमान्य इंटर काॅलेज के प्रधानाचार्य श्री आर.डी.एन. श्रीवास्तव और किसान स्नात्कोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय जैसे लोगों ने साहित्यिक अलख जगाते हुए कई साहित्यकारों को सजाया, सँवारा और अग्रसर किया है। एक उदाहरण का तो मैं स्वयं ही प्रमाण हूँ। इनके अतिरिक्त पंडित सुदामा शुक्ल जी, श्री केदारनाथ मिश्र, सिराज अहमद आदि जैसे अनेक साहित्य-प्रेमियों और सुधीजनों ने भी कहा है और अन्य भी कहते हैं कि इस क्षेत्र की पहली साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ थी। ‘संवाद’ की अनेक सफलताएँ हैं। जुलाई 2001 से प्रतिमाह  दूसरे शनिवार को आयोजित होने वाली गोष्ठियों से ही प्रेरित होकर तमकुहीराज में ‘दीप-ज्योति’, फाजि़लनगर में ‘संस्कार’ तथा गोंसाई पट्टी में ‘भवम भवानी परिषद’ का संयोजन हो रहा है। इन गोष्ठियों से अनेक साहित्यकार परिस्कृत होकर अपनी रचनाओं से विस्मित कर रहे हैं।

पं. धरीक्षण मिश्र - तमकुहीराज क्षेत्र के बरियारपुर की धरती पर जन्म लेने वाले स्व. पण्डित धरीक्षण मिश्र किसी के परिचय के मोहताज नहीं हैं। धरीक्षण मिश्र लोक भाषा भोजपुरी के एक महान साहित्यकार थे। व्यंग्य उनकी प्रकृत विधा थी। काव्य में वे रस, छंद और अलंकार के आग्रही थे। उनकी रचनाओं में अलंकार, छंद-सामर्थ्य की व्यापकता एक गौरव की बात है। प्राचीन आचार्यों की भाँति काव्यशास्त्र की मर्यादा में रहकर काव्य-सृजन के साधक थे। भोजपुरी जैसी लोकभाषा में भी उन्होंने संस्कृत के जटिलतम माने जाने वाले ‘शिखरिणी’ तथा ‘अमृतध्वनि’ जैसे छंदों का सार्थक तथा सफल प्रयोग किया है। यही कारण है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि के रूप में उनको साहित्यिक जगत में स्थान प्राप्त हुआ। इस नाते प्रख्यात साहित्यकार कवि को भोजपुरी का कबीर कहना नहीं भूलते। वैसे तो वे सामाजिक जीवन की विद्रूपता के कवि थे। समाज के सभी वर्गों पर उन्होंने अपनी कविताएँ लिखी हैं। लेकिन ‘कवना दुखे डोली में रोअत जाति कनियाँ’ ने तत्कालीन समाज की कुव्यवस्था पर एक लकीर खींच दिया। इसे साहित्यकारों में सबसे पहले धरीक्षण मिश्र ने रेखांकित किया। 
     तमकुहीराज तहसील क्षेत्र के बरियारपुर में चैत राम नवमी के दिन वर्ष 1901 में आचार्य पं. धरीक्षण मिश्र ने एक सम्पन्न परिवार में जन्म लिया। प्राथमिक व मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद इनकी कुशाग्र बुद्धि देख माता-पिता ने वर्ष 1926 में हाई स्कूल की पढ़ाई हेतु लंदन मिशन स्कूल वाराणसी में दाखिला करवाया। पढ़ाई के बाद घर वापस आने पर इन्हें प्रशासनिक पद पर तैनात होने का भी अवसर मिला। जिसे त्याग कर वे गंवई परिवेश में अपनी निजी भूमि पर लगायी गयी वाटिका को पसंद किए तथा वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने भोजपुरी भाषा में लोक से जुड़ी कविताओं, सामाजिक विसंगतियों पर कलम चलाई। छुआछूत के घोर विरोधी रहे कविवर को समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में भी चिंतित होना पड़ा। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, बेधड़क सच्चाई बयान करना कवि की विशेष विशेषताओं में था।
     भिखारी ठाकुर की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए धरीक्षण मिश्र ने घर आंगन, बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों में बसे गँवई जीवन की कथा-व्यथा को अपने गीतों, कविताओं में बड़ी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। वर्ष 1977 में ‘शिव जी के खेती’, 1995 में ‘कागज के मदारी’, 2004 में ‘अलंकार दर्पण’, 2005 में ‘काव्य दर्पण’, 2006 में ‘काव्य मंजूषा’, 2008 में ‘काव्य-पीयूष’ के प्रकाशन के साथ ही उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा 1980 में मिले सम्मान के साथ ही ‘अंचल भारती सम्मान’ से राज्यपाल मोतीलाल बोरा द्वारा 1993, ‘भोजपुरी रत्न अलंकरण’ द्वारा अखिल भारती भोजपुरी परिषद लखनऊ 1993 में प्राप्त हुआ। 1994 में श्रीमहावीर प्रसाद केडिया साहित्य एवं संस्कृति संस्थान देवरिया द्वारा ‘श्री आनन्द सम्मान’, 1994 में उ.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन उरई द्वारा ‘गया प्रसाद शुक्ल सनेही पदक’, 1995 में प्रथम विश्व भोजपुरी सम्मेलन देवरिया में पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर के हाथों प्रथम ‘सेतु सम्मान’, 1997 में साहित्य आकादमी नई दिल्ली द्वारा ‘भाषा सम्मान’, विश्व भोजपुरी सम्मेलन नई दिल्ली द्वारा 2000 में मरणोपरांत ‘भोजपुरी रत्न’ आदि सम्मान से सम्मानित हुए।
     साधना के रूप में कविता करने के शौकीन इस कवि का व्यक्तित्व नितांत सादगी भरा था। इनकी विलक्षणता की ही देन है कि वर्तमान समय में गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के ‘लोक-साहित्य’ में इनकी कविता रखी गयी है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के अतिरिक्त इग्नू और अन्य कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम में स्वीकार की गई हैं। कबीर की तरह विसंगतियों पर प्रहार करने वाले इस कवि ने 1997 के कार्तिक कृष्ण नवमी को बरियारपुर स्थित अपनी कुटिया में महाप्रयाण किया और मरते वक्त राम राम लिखते हुए अंतिम साँस ली।

डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय - डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय रहने वाले बालापार, गोरखपुर के हैं, परन्तु वे किसान स्नात्कोत्तर महाविद्यालय सेवरही, तमकुहीरोड में लंबे समय तक प्राचार्य रहे। उनको जानने वाले उनकी भावुकता, संवेदना, सृजनधर्मिता, सहानुभूति और मानवता के कायल हैं। 29 अक्टूबर 1944 को जन्मे डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय की प्रथम पुस्तक ‘बढ़ने दो आकाश’ दोहा-संग्रह के अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद के माध्यम से सन 1998 में आयी। उसके बाद 2004 में उनका शोध प्रबंध ‘हनुमद्भक्ति: परम्परा और साहित्य’ तथा ‘बिन पानी सब सून’ निबंध संग्रह के अतिरिक्त संस्मरणात्मक इतिहास पर आधारित ‘मेरा गाँव’ 2009 में, साहित्य अकादमी से, ‘धरीक्षण मिश्र’ (2011) विनिबंध और  दोहा-संग्रह ‘प्रश्न-चिह्न गहरे हुए’ (2011) में प्रकाशित हुए। वे अपनी रचनाओं में अपने अनुभवों को बड़ी सूक्ष्मता के साथ व्यक्त करते हैं। जहाँ उनके निबंधों की बुनियाद आत्मपरकता, आत्मीयता, अनायासता और व्यक्तित्व संपन्नता है, वहीं उनके दोहो में दुनियावी अनुभवों के साथ समयगत सजगता और गतिशीलता भी है। अपने दोहों को पारिभाषित करते हुए वे स्वयं लिखते हैं, -
जब भी जलते पैर हैं, सिर पर पड़ती धूप।
ढल जाती है वेदना, ले दोहों का रूप।।

     डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय की रचनाओं में मूल्यवादी संतुलित दृष्टि का सूत्रपात होने के साथ ही साथ प्रकृति के प्रति सहृदयता झलकती है। सेवरही को कभी ‘गमलों का शहर’ बनाने की कल्पना और प्रयास करते थे। उनकी दृष्टि में आज के गाँवों में भी पुरानी बात नहीं हैं। वे आज अपने मूल्यों और पहचानों को भी परिवर्तित कर चुके हैं। -
द्वेष दंभ हिंसा कपट, निन्दा छल अपमान।
बने हुए हैं आजकल, गाँवों के प्रतिमान।।'

      सन 2006 में अवकाश लेने के बाद तो डाॅ. पाण्डेय साहित्य और साहित्यिक गतिविधियों के प्रति और भी समर्पित हो चुके हैं। वे आज भी कई आयोजनों के निमित्त बन जाते हैं। कई रचनाओं के प्रेरक बन जाते हैं और मेरे जैसे अनेक लोगों को गाहे-बेगाहे निर्देशित और प्रेरित करते हुए साहित्य-सृजन की राह दिखाते हुए अपने जीवन के अनुभवों से रूबरू कराते रहते हैं। उन्होंने पंडित धरीक्षण मिश्र जी रचनाओं ‘काग़ज के मदारी’ (1995), धरीक्षण मिश्र रचनावली-प्रथम खंड (2004), धरीक्षण मिश्र रचनावली-द्वितीय खंड (2005), रचनावली-तृतीय खंड (2006), धरीक्षण मिश्र रचनावली- चतुर्थ खंड (2008) के साथ ही ‘सारस्वत साधना के प्रतीक: आचार्य रामचंद्र तिवारी (2005) का संपादन किया। आज भी अथक रूप से साहित्य को सजाने, सँवारने और समृद्ध करने में लगे हुए हैं। तमकुही की ऊर्वर धरती धन्य है, जहाँ पर ऐसी साहित्यिक शक्तियों ने अपना समय व्यतीत किया और क्षेत्र को साहित्यिक रूप देने में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन किया।

आर. डी. एन. श्रीवास्तव - सजग चेतना वालों में सिसृक्षा का बीज बोने के लिए निरंतर तत्पर श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव का जन्म 10 दिसंबर 1939 को ग्राम बैरिया, रामकोला, जनपद कुशीनगर में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया परन्तु रचनाएँ हिंदी में करने लगे। उन्होंने लोकमान्य इंटर कालेज, सेवरही से प्रधानाचार्य पद से अवकाश लिया है। उनकी रचनाओं की धार बहुत ही तीक्ष्ण होती हैं। वे अपने अंदाज़ में ग़ज़ल लिखते हैं, अपने अंदाज़ में पढ़ते भी हैं। उनकी कविताएँ उच्च कोटि के हास्य और व्यंग्य से परिपूर्ण होती हैं। ‘वक्त की परछाइयाँ’, ‘ये ग़ज़ल’, ‘कविता समय’, ‘शब्द कुंभ’, ‘सितारे धरती के’, ‘मोती मानसरोवर के’, ‘नव ग़ज़लपुर’ में संग्रहीत तथा ‘थाल में बाल’ 2010 में, ‘दिल भी है दीवार भी है’ 2014 में प्रकाशित उनके काव्य-संग्रहों में उनके विचारों, मानदंडों और जीवन-मूल्यों को देखा जा सकता है। समय-समय पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से  प्रसारित होते रहने वाले श्री श्रीवास्तव वर्तमान समय में गोरखपुर में रहते हुए आज भी अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हैं। साहित्य-सृजन और कलम की कला का कमाल देखिए कि आज श्रीवास्तव जी का कई और संग्रह  प्रकाशनार्थ प्रेस में है।
      श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव की ग़ज़लें जहाँ अपने मतला, रदीफ़ और काफि़या की बुनावट के लिए समीक्षकों को आकर्षित कर लेती हैं, वहीं अपने विषय-शिल्प, शब्द-संयोजन और चित्र-प्रस्तुति के कारण पाठकों और श्रोताओं को अपना बना लेती हैं। वे जितने सुलझे व्यक्ति हैं उतने ही एक लोकप्रिय प्रधानाचार्य भी रह चुके हैं। उनकी सोच विलक्षण और भावात्मक होने के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबिंब को प्रदर्शित करती हैं। ‘कुत्ता और कर्फ्यू' का कुत्ता किसी रईस के घर का दुलारा टाॅमी या चीकी, पीकी नहीं है, वह सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ अपने शोषण के विरूद्ध आवाज बुलंद करता है। आज का कुत्ता केवल दुम हिलाता अनुकरण और स्नेह-प्रदर्शन नहीं कर रहा है, वह चीख-चीखकर चिल्लाता है और सामने वाले की मानसिकता को ललकारता भी है। एक उदाहरण देखें - 
जी हाँ,
मैं चीखूँगा, चिल्लाऊँगा और काट खाऊँगा
तुम्हारा ईमान नहीं हूँ जो बदल जाऊँगा।

      कलमकार की सार्थकता सामाजिक सोच की दृष्टि पर ही निर्भर करती है। कलमकार समाज को अपनी ही दृष्टि से देखता है और समाज के सामने उसी का चित्रांकन करता है। श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव अपने समाज के नव-रचनाकारों को पहचानते भी है, तैयार भी करते हैं और आगे बढ़ाने का कार्य भी करते हैं। उनकी ग़ज़लें जितना चमत्कृत करती हैं, उनका व्यंग्य उससे अधिक अवाक्। सीधे शब्दों की मारक क्षमता बड़ी तीखी होती है। सहज शब्दों का ऐसा चमत्कार देखना हो तो उनकी किसी भी कविता को देखा जा सकता हैं। दहेज-समस्या पर कुछ पंक्तियाँ देखें, -
स्त्रियाँ अग्नि-शिखा हैं -
कुछ देवियाँ यह धर्म बखूबी निभा रही हैं
बचपन में रोटियाँ जलाईं, जवानी में दिल
बुढ़ापे में बहुएँ जला रही हैं।।

     अगर कभी तमकुही क्षेत्र के कलमकारों की चर्चा हो तो क्या श्री आर.डी.एन. श्रीवास्तव के अवदानों को भूला जा सकता है? उनकी चर्चा के बिना क्या यहाँ की मिट्टी साहित्यिक-समृद्धि का गीत गा सकती है? मैं निश्चिंत भाव से कह सकता हूँ कि मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं होगा।

आचार्य परमानन्द पाठक - लोकमान्य इंटर काॅलेज, जानकीनगर, सेवरही के हिंदी अध्यापक रह चुके आचार्य परमानन्द पाठक हिंदी शिक्षकों में एक अलग पहचान वाले व्यक्ति थे। वे मूलतः बथनाकुटी, गोपालगंज (बिहार) के रहने वाले थे परन्तु कालांतर में उनका कार्यक्षेत्र ही उनका स्थायी निवास बन गया। तमकुहीरोड कस्बे में पुरानी पुलिस चैकी के कोने वाला मकान कौन नहीं पहचानता? श्री पाठक के श्रेष्ठ शिक्षक होने के पीछे उनकी शिक्षा-दीक्षा, उनका निरंतर अध्ययन और लगन था। वे व्याकरण से शास्त्री, आयुर्वेदाचार्य होने के साथ ही हिंदी साहित्यरत्न भी थे। उनकी एक पुस्तक ‘हिंदी व्याकरण प्रदीप’ आदर्श प्रिंटिंग प्रेस तमकुहीरोड द्वारा प्रकाशित है। श्री पाठक ने अपनी इस लघुकाय परन्तु बृहद् व्याकरण की पुस्तक में सभी स्तर के अध्ययेताओं के योग्य सामग्री का समन्वय किया है। इस व्याकरण-पुस्तक में परमानन्द पाठक की योग्यता, मौलिकता, व्याकरण-ज्ञान, स्वाध्याय और उत्तम शिक्षण कला का समन्वय हुआ है। इसमें हिंदी व्याकरण संबंधी प्रायः सभी नियमों और उसके भेदोपभेदों को सहज, सुबोध और रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।
     एक छोटी सी जगह, सेवरही नगर पंचायत में निवास करने वाले श्री पाठक की ऊर्वरा-शक्ति ही है कि व्याकरण जैसे कठिन विषय पर उन्होंने इस पुस्तक को तब रूप दिया जब वे सेवा-निवृत्त हो चुके थे। क्षेत्र में उन्हें एक लोकप्रिय अध्यापक के साथ ही एक सफल आयुर्वेंदिक चिकित्सक के रूप में भी आदर प्राप्त था।

नथुनी प्रसाद कुशवाहा - भोजपुरी कवि नथुनी प्रसाद कुशवाहा उर्फ रामपति रसिया का जन्म उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में तमकुहीराज तहसील के गाँव मोरवन में 12 दिसम्बर 1948 में हुआ है। पिता मुखी भगत और माता चिरई देवी के लाल रसिया जी भोजपुरी के गीतकार हैं। स्व0 धरीक्षण मिश्र उनके गुरू थे। उन्होंने हाई स्कूल तक शिक्षा ग्रहण की है। गरीबी में तपे रामपति रसिया की रचनाएँ गँवई मन की पीड़ा को बखूबी व्यक्त करती हैं। रसिया जी वर्तमान में सेवरही कस्बे के पास शिराजनगर में पाकड़ के पेड़ के नीचे गरीब बच्चों को पढ़ाते हैं। ये क्षेत्र में आयोजित होने वाले सभी कार्यक्रमों में सरीक होते है। गेय विधा के सिद्ध-हस्त रसिया जी की रचनाएँ अपने निर्गुण रूप के लिए खासी प्रसिद्ध हैं। हाल ही में भोजपुरी भाशा एवं साहित्य का इतिहास तैयार कर रहे डॉ अर्जुन तिवारी ने रसिया जी को अपनी पुस्तक में जगह देकर उन्हें प्रतिष्ठा दी है।  
     रसिया जी उस गँवई माटी की उपज हैं, जहाँ राग है तो द्वेष भी है। स्नेह है तो ईर्ष्या भी है। जीवन की जटिलता को चुनौती देते हुए कवि कभी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ता है तो कभी जातिगत जाल को। रामपति रसिया एक विचारशील कवि हैं। उनकी रचनाओं के विषयों में विविधता है। उन्हीं की एक पुस्तक की भूमिका में डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय ने उन्हें एक जन्मना कवि कहा है। वास्तव में रसिया जी की काव्य-प्रतिभा मौलिक है। वे जनकवियों की भाँति लिखने के साथ-साथ अपनी रचनाओं का अत्यन्त सरस रूप में पाठ भी करते हैं। वे भोजपुरी मिट्टी की संतान हैं। उनकी रचनाओं की भाषा भी खाँटी भोजपुरी है। उन्हें कई मंचों पर सम्मानित किया गया है। अब तक उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई है।  पहली ‘अँजोरिया में बदरी’ जीवन ज्योति जागृति मिशन तरया लच्छीराम द्वारा सन 2001 में प्रकाशित हुई थी। दूसरी ‘घेरले बा बदरी’ सन 2008 में प्रकाशित हुई थी। उसी वर्ष युवा विकास मंच, पटहेरवा द्वारा उनकी तीसरी कृति ‘श्रद्धा’ उनके साहित्यिक गुरु ‘पं. धरीक्षण मिश्र की संक्षिप्त चरितावली’ के रूप में प्रकाशित हुई। कुछ पक्तियाँ उनकी पहली कृति ‘अँजोरिया में बदरी’ से प्रस्तुत हैं -
झरि जाई फूलवा रे भँवरा, उजड़ी बगिया तोर।
पिरितिया ना निबही रे भँवरा, मलिया बा कठिन-कठोर।
रसवा के मातल भँवरा, भरमेला चारू-ओर,
अचके आई रे मलिया, लेई फुलवा तोर,
पिरितिया ना निबही रे भँवरा, मलिया कठिन-कठोर।

     अपने साहित्यिक गुरु के प्रति ‘श्रद्धा’ में अपनी श्रद्धा-भक्ति का निवेदन करते-करते वे सजल हो जाते हैं। कुछ पक्तियाँ प्रस्तुत हैं -
आजु हियरा जुड़ाई गइल देखि के तसवीर हो
नजीर रही रहल केहू इहँवा फकीर हो।
नजीर रही रहल केहू .... 
हिंदी अंगरेजी संस्कृत भाषा सिखले
बाप-दादा बोलल वोही भाषा में लिखले
कइले उजियार भोजपुरी के हीर हो
नजीर रही रहल केहू इहँवा फकीर हो।

रामानंद राय ‘गँवार’ - रामानंद राय ‘गँवार’ पेशे से तो पशुचिकित्सक थे परन्तु भोजपुरी साहित्य की साधना के वे बड़े साधक थे। उनकी लेखनी जब भी उठी, भोजपुरी के मान-वर्धन के लिए ही उठी। शैली कोई भी हो, उनकी विधा काव्य ही रही। उनके पास तत्कालीन जीवन और समाज की दषा को देखने और अनुभव करने की एक अलग दृष्टि थी। उनका जन्म 13 फरवरी 1935 को सपहीं खुर्द में हुआ, परन्तु पटहेरवा का ‘गँवार-कुटीर’ किसे याद नहीं है? वे बड़ी खूबी से सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं पर नज़र रखते रहे हैं। भोजपुरी भाषा सम्मान सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत श्री गँवार जी का कवि-मन समाज में व्याप्त लूट-खसोट को देखकर द्रवित भी होता है और संवेदनशील भी। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र पूर्णतः लूटतंत्र में परिणत हो गया है। जनता के बीच अपनी दाल गलाने के लिए नेताओं ने अपना पानी उतार दिया है। नेताओं की चतुराई और सरल जनता की त्रासदी पर लिखते हुए वे अपनी ‘गँवार सतसई’ में कहते हैं, -

बइठल धुरतई आज अस, जस सुरसा के गाल।
सब सबके बाटे छलत, अइसन बिगड़ल चाल।।

      आकाशवाणी और दूरदर्शन पर निरंतर काव्यपाठ करते रहने वाले गँवार जी की रचनाएँ ‘संपदा’, ‘भोजपुरी माटी, ‘कुबेरनाथ’ जैसे पत्रिकाओं का मान बढ़ाती थीं। ‘गँवार सतसई’, ‘राग-गँवार’, ‘अइसन हमार ई माटी ह’ जैसी रचनाओं का सृजन करने वाले गँवार जी कई बार सरकारी विचारों-व्यवहारों का भी समर्थन करते नजर आते हैं। जीवन की दैनिकी में न ही वे अपनी माटी को भूलते हें और न ही जीवन की गतिशीलता में माँ के ममत्व को ही। लंबे-चैड़े शारीरिक डील-डौल वाले गँवार जी हृदय के भी विशाल थे। उनकी भावना की सहजता को इस बात से आँका जा सकता है कि जब कभी कोई साहित्य-प्रेमी पटहेरवा से गुजरता, तो वे उसे बुला ही लेते। एक गोष्ठी भी  हो जाती और फिर स्वागत में परोसे गए उनके मालपुआ को कौन भूल सकता है? भले ही उनका देहावसान 3 अगस्त 2010 को हो गया, परन्तु शब्द-ब्रह्म के उस साधक को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 
      उनके जीवन के अंतिम दिनों में उनकी दो और कृतियाँ ‘शैतान सिंह’ और ‘जवाहर’ आयीं। उनकी रचनाओं पर कई शोधार्थियों ने शोध भी किया है। अब उनके पुत्र उनका जन्मोत्सव एक साहित्यिक आयोजन के रूप में प्रतिवर्ष पटहेरवा में मनाते हैं। उनपर एक स्मृति-ग्रंथ भी तैयार किया जा रहा है। 

दीपराज गुप्त - तमकुहीराज तहसील के ही धुरिया इमिलिया गाँव में जन्मे दीपराज गुप्त ‘दीपक’ पेशे से तो व्यावसायी हैं, परन्तु कलम पर व्यवसाय का बंधन कहाँ? उनका जन्म 19 मार्च 1947 को हुआ। विद्यालयी शिक्षा के नाम पर केवल चार तक ही पढ़ पाए किन्तु उनमें काव्य-प्रतिभा है। शिक्षा से वंचित होने के बाद भी वे कल्पना के धनी हैं। दीपराज गुप्त ‘दीपक’ की कविताओं का क्षेत्र व्यापक है। वे मानव और प्रकृति दोनों को समान संवेदना से देखते हैं। उन्होंने मनुष्य के सुख-दुख, विरह-मिलन, नश्वरता-शाश्वतता का वर्णन तो किया ही है, साथ ही सामाजिक विद्रूपताओं पर सहजता से चोट भी किया है। उनकी कविताओं में दहेज-हत्या, भ्रूण-हत्या, बधू-दहन जैसे सामाजिक विषयों को भी देखा जाता सकता है। एक उदाहरण देखें -
व्यवहार से विचार तक मारल जाईं हम।
बेटी हँई जान के कोख में झारल जाईं हम।।
अगिन परिच्छा ले के त्यागल गइल बानी,
धोबी के बात पर लछना लागल गइल बानी,
अबला नइहर रहत वन उतारल जाईं हम।

आकाश महेशपुरी - तहसील के कलमकारों की सजगता ही है कि इसी क्रम में युवा कवि ‘आकाश महेशपुरी’ और उनकी प्रथम कृति ‘सब रोटी का खेल’ को भी नहीं विस्मृत किया जा सकता। महेशपुरी अपनी लेखनी से सोसल साइट्स पर तो हलचल पैदा किए ही रहते हैं, साहित्यिक संस्था कवितालोक द्वारा कई बार उन्हें सप्ताह का कवि भी घोषित किया जा चुका है। कभी पहली बार ‘संवाद’ की गोष्ठी में अपनी रचना प्रस्तुत करने वाले आकाश महेशपुरी आज युवा कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

रुहुल अमीन अंसारी - तमकुहीरोड के श्री रुहुल अमीन अंसारी अपना परिचय देते हुए स्वयं कहते हैं कि ‘मैं अलबेला बक्से वाला’। रहीम, रसखान और कबीर की परंपरा वाले श्री अंसारी जैसे भारतीय संस्कृति में लिप्त कवियों को ध्यान में रखकर ही कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था, - ‘इन मुसलमान हरिजन पर कोटि हिन्दू वारिये।’ उनके लिए परिश्रम ही खुदा है और सच्चाई ही धर्म। वे आज भी अपने बक्से की दूकान पर बैठकर अपने काँपते हाथों के मंद प्रहार से बक्से को स्वरूप देते हैं और भावों के उमड़ते बादलों के गाँवों में भ्रमण करते हुए कविताओं को छोटे-छोटे कागजों पर लिपिबद्ध करते रहते हैं। वे एक ऐसे साधक हैं जो अपनी खरी-मोहक बातों से ग्राहकों को आकर्षित करते हैं तो अपनी कविताओं से श्रोताओं को विस्मित।

जितेन्द्र पाण्डेय - बिहार की सीमा पर स्थित हफुआ बलराम गाँव के जितेंद्र पाण्डेय नेहरू इंटर काॅलेज से सेवा-निवृत्त हो चुके हैं। श्री पाण्डेय वहाँ हिंदी प्रवक्ता थे। कुछ दिनों तक कार्यवाहक प्रधनाचार्य का भी दायित्व-निर्वहन किए। वे एक कुषल वक्ता, सहृदय व्यक्ति होने के साथ-साथ कवि भी हैं। वे कविता को जितनी ही तन्मयता से लिखते हैं, उतनी ही आत्मीयता से गाते भी हैं। वैसे तो उनकी कोई ग्रंथ प्रकाशित नहीं है, परन्तु उनकी कविता से पूरा क्षेत्र प्रकाशित है।
     रकबा से अवध किशोर यादव ‘अवधू’ ने अनेक कलमकारों को प्रभावित किया है। यहाँ के युवा कवियों में अवधू अपनी प्रतिभा के दम पर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में एक अलग पहचान बना चुके हैं। रविशंकर‘रवि’, अंगद उदास हो या लालमती श्रीवास्तवा ‘ललिता’ या संतोष श्रीवास्तव ‘तनहा’, प्रेमनाथ मिश्र, कृष्ण सिंह ‘चुलबुल’ हों या रामसागर सिंह ‘सागर पावापुरी’ ये लोग तमकुही की मिट्टी के ऐसे कलमकार हैं, जो रोज जीवन की चादर को बुनते हुए साहित्य की दुनिया को बसाते हैं। उत्तर-प्रदेश के सबसे पिछड़े क्षेत्र में रहकर भी ये लोग अपनी साहित्यिक ऊर्वरा से अपना स्थान बनाते हुए देश भर में छा रहे हैं। आज जब मैं अपने सेवरही, तमकुहीरोड से इतना दूर हूँ, फिर भी इन कलमकारों की संगति से अपने को कटा नहीं पाता हूँ। ये अपनी मेधा और प्रतिभा की ताकत और ऊर्जा से मुझे हमेशा प्रेरित करते रहते हैं। देश, राज्य या क्षेत्र की सरकारें भले ही साहित्यिक गतिविधियों पर ध्यान न दे, भले ही कलमकारों को दोयम दर्जें का समझा जाय, मगर इनकी पारदर्शिता, कर्मनिष्ठा और सहृदयता की ही देन है कि आज मेरी लेखनी स्वयं को रोक नहीं पायी। मैं इनके सानिध्य को अनुभव करने लगा। धन्य हैं मेरे यहाँ के वे लोग जिनके लिए न कोई गोलबंदी है, न कोई दिखावे का साधन है और न ही ईष्र्या का कोई कारण। धन्य है वह धरती भी, जो इन सपूतों को जन्म देनेे के बाद भी स्वयं के भाग्य पर घमंड नहीं करती, अपितु और अधिक ऊर्वर होते जाती है।
                                                                                  -------------

                                                  (भोजपुरी-पंचायत' फरवरी 2014 के अंक में प्रकाशित)

Oct 9, 2014

एक त्रिवेणी यहाँ भी

मन में भ्रमण का उत्साह, सौंदर्य का आकर्षण और दो देशों की राजनैतिक सीमा के साक्षात्कार की त्रिवेणी में प्रवाहित होकर ही त्रिवेणी जा रहा था। हम छः मित्र और एक जीप ड्राइवर! मुझे छोड़ अन्य सभी इस प्रांत से परिचित थे। मेरी बेचैनी का एक यह भी कारण था कि आज तक त्रिवेणी स्थान का नाम इलाहाबाद के संगम के लिए सुना था। यह कौन त्रिवेणी है?
उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम की दिशा में है त्रिवेणी। पहले गंडक की भयावहता को पार करना दुरूह था, परन्तु अब पनियहवा का समानान्तर रेल-सड़क पुल बहुत ही सहज कर दिया है। हम पुल से गुजरते हुए पड़ोसी देश नेपाल की सीमा छूने चल पड़े हैं। यह गंडक नदी है जिसमे शालिग्राम प्रस्तर की प्राप्ति होती है। शालिग्राम प्रस्तर अर्थात् नारायण का प्रतिरूप। शायद इसीलिए इसे नारायणी नदी भी कहते हैं। . . . हम पुल पर जीप रोक कर ऊपर से ही गंडक की विराटता, सौंदर्य और प्रवाह देखने लगे। अब हम गंडक को पार कर गए हैं। उस गंडक को, जो बरसात में अपने यौवन के उन्माद में सारी बाधाओं को तोड़ देती है। अपने उग्र रूप में पता नहीं कितने उर्वर खेतों, लहलहाती फसलों, झुमते पेड़-पौधों और असीम सभ्यता-संस्कारों को ढोने वाले गाँवों को लील जाती है। इसके आक्रामक खोह में अनगिनत जीव-जंतु, बच्चे-बूढ़े और जवान विलीन हो गए हैं। उर्वर मिट्टी रेत के ढेर में बदल गई है। फिर भी इसके कछारों से न जाने क्या मोह है कि लोग मौत से भी जूझकर जीवन जीत लेते हैं। 
नदियों के प्रति आस्था के कारण हमने भी एक सिक्का प्रवाहित किया। आस्था में अंधा मानव तर्क नहीं मानता, नहीं तो इतना कुछ स्वाहा करने वाली गंडक को सिक्के से क्या प्रयोजन? अभी एक-डेढ़ किलोमीटर भी आगे नहीं बढ़े होंगे कि बिहार राज्य प्रारंभ हो जाता है। जिला पश्चिमी चम्पारण! चम्पारण शब्द से भारतीय इतिहास का एक अध्याय, बापू के नाम और तस्वीर की स्मृति के साथ इस पावन भूमि के गौरव के सामने नत् होने का मन करता है। सामने हैं अरण्य देव! अपना दिल खोले, पलक-पावड़े बिछाए ये महोदय शायद हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं! यहाँ कभी केवल चंपक-अरण्य ही रहा होगा, तभी तो इस प्रांतर का नाम चंपारण पड़ा होगा। ये महोदय 840 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। साखो-सागौन के आधिक्य वाले ये अरण्य देव सीसम, सेमल, जामुन, खैर, बेंत आदि के भी खजाना हैं। इस कानन के साथ अभी एक किलोमीटर ही चला जाता है कि दिल्ली-रक्सौल रेल-मार्ग के किनारे मदनपुर देवी माता का स्थान है। बहुत पवित्र शक्तिपीठ है। यहाँ आए सभी भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं माँ। जैसे उस वन-प्रांत की ओर से आगंतुकों के लिए पहला पुरस्कार है यह! यहाँ आने के लिए सामने ही वाल्मीकि नगर रेलवे स्टेशन है। हम भी दर्शन किए। पूजन-अर्चन के बाद चाय लेकर हम गहन वन प्रांत में चल पड़े। 

. . छोटे-छोटे गाँव! उबड़-खाबड़ रास्ते! अपनी दिनचर्या में लगे लोग! जंगल की चारा चबाती गाएँ! रम्भाते बछड़े! कंचा और कबड्डी खेलते बच्चे! मेमियाती बकरियाँ! कूड़े के ढेर पर दंगल करती मुर्गियाँ और लुका-छिपी करती रसीली हवाएँ! मैं उनके जीवन की दुरुहता देखकर दुखी था, वे अपनी जीवन-लीला में मस्त! मैंने जगह-जगह सावधानी और जानकारी के लिए लगे बोर्ड को देखा - वाल्मीकि व्याघ्र योजना। हाय रे मानव! मानव की प्रवृति ऐसे बदली कि इन वन्य-जीवों की रक्षा के लिए योजना चलाने की आवश्यकता पड़ गई? - पता चला कि यह 335.6 किलोमीटर मे फैली देश की 18 वीं और बिहार की दूसरी परियोजना है। इस परियोजना की शुरुआत 1990 में की गई। यह उत्तर में रायल चितवन नेशनल पार्क (नेपाल) से तथा पश्चिम में गंडक की जल-धाराओं से घिरा है। 
इतिहासकार न जाने क्या कहते हैं, लेकिन इस वन में रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी का पवित्र आश्रम है। यहाँ बाघ, चिता, तेंदुआ, भेडि़या, नीलगाय, काला हिरण, भेडि़या, बन्दर, वनमुर्गी, जंगली बिल्ली, अजगर, छिपकलियों के अलावा जूलोजी-बाटनी और चरकशास्त्र की असंख्य सामाग्रियाँ हैं। हम आगे बढ़े जा रहे हैं। सड़क अपने रूप से गुदगुदा कर कहीं-कहीं हँसाती है तो कहीं-कहीं डराती भी है, रुलाती भी है। रूप में विविधता है। चाल में सर्पिली है। ऊँचाई पर चढ़ते-उतरते समय कोई मान की हुई नखरीली गोरी लगती है। आगे छोटे-छोटे पत्थरों से भरा ट्राली पलटा था। यहाँ अवैध रूप से पत्थर उत्खनन का काम बड़े पैमाने पर होता है। हम एक साथ अनेक रसों की अनुभूति कर रहे थे कि जंगल से निकलकर एकाएक कई लोग सड़क पर आ गए। हमें डर हुआ कि कहीं डाकुओं का समूह तो नहीं! पता चला कि नीचे एक गड्ढा है, जिसका पानी उतर रहा है। ये लोग उसी में मछली पकड़ रहे थे। 

यहाँ की औरतें घर के कामों के साथ-साथ सूखी लकडि़याँ बटोरती हैं। बच्चे पढ़ाई कम, बकरियाँ अधिक चराते हैं। यहाँ संयुक्त परिवार बड़ी सफलता से संचालित होता है। बहुत अंतराल से शिक्षा से कोसों दूर रहे ये लोग अब बड़ी बेचैनी से जूड़ गए हैं।
कुछ दूर खुली जगह, फिर मोड़ और अब आ गया वाल्मीकि नगर। सामने अद्भुत नजारा है। नीचे पूर्वी गंडक नहर का हरा पानी, जो कुछ दूरी पर जाकर 15 मेगावाट के विद्युत परियोजना को जन्म देती है। सामने जंगल का वहीं गर्वीला स्वरूप, जिसे हम मदनपुर से आत्मसात् करते आ रहे हैं। ऊपर नीला-धुला आसमान। नहर के एक ओर साखो-सागौन और दूसरी ओर खिलखिलाते गुलमोहर की हरियाली। आगे एक गोल-चौक है, जहाँ ढाई मीटर ऊँचा एक स्तंभ है। इसे देखकर यहाँ से 55-60 किलोमीटर पूरब में स्थित लौरिया के अशोक स्तंभ की याद आ जाती है। उसकी प्रमाणिकता है, पर इसकी नहीं। सैनिक छावनियों को पार करके हम सदानीरा गंडक के किनारे थे। नहीं-नहीं, कुछ पल भ्रम में रहे। आँखें देख रही थीं। मन नहीं मान रहा था। लगता था कि हम किसी और लोक में आ गए हैं। पीछे एक पुराना  गेस्ट-हाउस है। उजड़ा सा। इस समय बड़ी बारीकी से उसके मरम्मत का काम चल रहा है।

अब हम गंडक के कछार पर खड़े हैं लेकिन वह हमसे 7-8 मीटर नीचे बह रही है। इस पिकनिक-स्पॉट को कभी खुब विकसित किया गया था, अवशेष इस बात को स्पष्ट करते हैं। कितना सौंदर्य है यहाँ! मन करता है कि सबको अपने में समेट लूँ। आँखें इस रूप को पी लेने के लिए बेचैन हैं। पैर नाचने को बावले हैं। पीछे विराट कानन-प्रदेश, सामने हिमालय शृंखला की सबसे नीचली हरी-भरी पहाडि़याँ, नीचे कलकल करती गंडक और ऊपर ललचता-सा नीला आकाश। प्रसन्नता की इन लहरों में एक टीस मन को सालता है कि प्रकृति का यह अनुपम सौंदर्य और शैलानियों के नाम पर केवल हम सात! क्या कारण है कि इस अभ्यारण्य में एक अपरिचित  भय से मन सहमा रहता है? क्यों कभी कोई वादी तो कभी कोई सलाम जैसे शब्द डराते रहते हैं?
हम बहुत देर तक बैठ कर प्रकृति के इस रूप से आँखें चार करते रहे। अब हमारी जीप विदेशी कहलाने को आतुर हो उठी। भैंसालोटन बैराज हमें नेपाल कब पहुँचा दिया, पता ही नहीं चला। हम इंडो-नेपाल सीमा पार कर गए। 4 दिसम्बर 1959 को नेपाल की महारानी और भारत सरकार द्वारा जल वितरण के लिए हुए समझौते के फलस्वरूप भैंसालोटन बैराज का अस्तित्व सार्वजनिक यातायात के रूप में सामने आया। यहाँ से मुख्य गंडक नहर, पूर्वी गंडक नहर एवं पश्चिमी नेपाल नहर निकलती है। अब हम त्रिवेणी में हैं। हिंदुओं का धार्मिक स्थल! त्रिवेणी नेपाल के नवलपरासी जिले का एक छोटा-सा बाजार है। गंडक के किनारे चलती सड़क एक दो बार नाचती सी लगती है। दाएँ असीम जलराशि वाली गंडक का स्वरूप, बाएँ छोटी-छोटी झोपडि़यों में तली मछली और बोतलबंद दारु के साथ मुरी-चिउड़ा की दुकान। दुकान की सुन्दरता के नाम पर उसकी विक्रेता नेपाली स्त्रियाँ, लड़कियाँ और पीछे हरियाली में नहाई पहाडि़याँ। ये है त्रिवेणी ! छोटा बाजार। छोटी-छोटी मल्टी-परपज दुकानें। एक ही दुकान में सबकुछ। चाय-नाश्ते के दुकान में ही तली मछली और बोतलबंद दारु के साथ मुरी-चिउड़ा और शीतल पेय। हम मित्रों ने आपस में किसी पर कोई बंधन नहीं लगाया। छककर आनंद उठाया। अब हम वहाँ गए, जहाँ मेला लगता है। यहाँ मकर-संक्रांति के दिन पवित्र स्नान-मेला लगता है। नदी में उतरने के लिए सीढि़याँ बनी हैं। किनारे छोटे-बड़े कई मंदिर हैं और सघन छाया युक्त एक विशाल वट-वृक्ष भी है। नदी में छोटी-छोटी नौकाएँ देखकर हम दौड़ पड़े। हमने नौका-विहार का आनंद लिया। ‘शैकत-शैय्या’ वाली ‘तनवंगी गंगा’ में नहीं, कंठ तक भरी गंडक में।

आगे जाने पर गज-ग्राह का युद्ध स्थल है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार विष्णु के भक्त गज और ग्राह के बीच यही सं युद्ध प्रारंभ हुआ था। कितना रमणीय है यह सौंदर्य-प्रदेश! गंडक से तर इस क्षेत्र की असीम रूप-राशि से जहाँ मैं आनंदित हो रहा था, वहीं मौन होने लगा। जैसे शब्द मर गए या ध्वनि लकवाग्रस्त हो गई। आह्लाद में पीड़ा का क्या काम? परन्तु बावरा मन माने तब तो! वह तो भटकने लगा। यह क्षेत्र केवल अपने रूप में ही आकर्षण नहीं रखता है, इसके अतीत में भी आकर्षण है। . . . इसी प्रांतर ने रत्नाकर को वाल्मीकि बना दिया। सीता माँ ने अपने जीवन के मातृत्व काल को यहीं व्यतीत किया। लव-कुश इसी गंडक में स्नान किए होंगे। महाभारत के 20वें अध्याय में कृष्ण ने भी शायद इसी गंडकी-प्रदेश का वर्णन किया है। सम्राट अशोक को भी इस क्षेत्र का ज्ञान था। ‘नंद वंश’ का नंदनगढ़ इसी तराई प्रदेश में है। बापू और बा इस मिट्टी को छू चुके हैं। नेहरू की आँखें इस सौंदर्य को पी चुकी हैं। फिर किस अप्रत्क्ष कारण ने शैलानियों को नहीं आकर्षित किया? शैलानियों को इस रूप से डर क्यों लगता है? . . . ये प्रश्न मेरे मन को मथ देते हैं।
त्रिवेणी में तीन अलग-अलग नदियाँ गंडक, पंचनद तथा सोनहा का मिलन होता है। इनमें गंडक या गंडकी या नारायनी मुख्य नदी है। इतना ही नहीं, यहाँ तीन राजनैतिक सीमा रेखाएँ भी मिलती हैं। - एक ओर से नेपाल की, दूसरी ओर से पश्चिमी चम्पारण (बिहार) की और पश्चिम से जाओ तो उत्तर-प्रदेश के महराजगंज की सीमा भी गलबाँही करती है। जंगल, नदी और पहाड़ जैसी तीन प्राकृतिक रचनाएँ भी दृष्टिगत होती हैं। यहाँ पुल, फूल और कंद-मूल का भी आनंद मिलता है। यहाँ मन, मस्तिष्क और तन को आराम मिलता है। यहाँ भौतिक रूप से सामान्य जीवन, राजनैतिक शिथिलता और सामाजिक चुप्पी है। चर्चा से दूर रहकर भी नैसर्गिक सुख का यह दृष्टांत उपेक्षा से आहत नहीं है। बिहार सरकार सड़कों का जीर्णोंद्धार करा रही है। उत्तर-प्रदेश ने ध्यान देना तेज कर दिया है। गेस्ट-हाउस चमकने लगा है। सीमा सुरक्षा बल की मौजुदगी बढ़ने लगी है। लग रहा है कि तीन सीमा रेखाओं का यह सौंदर्य सबके दिलों में उतरने को व्याकुल है। 
भ्रमण की उत्कंठा जो मेरे मन में रहती थी, यहाँ आने पर और बढ़ गई। प्रकृति की चित्रकारियाँ मुझे और बुलावा भेजने लगीं। मैं कहीं भी जाता हूँ, पहली नजर में वहाँ त्रिवेणी को ढूढता हूँ। अब मैं बार-बार त्रिवेणी जाने लगा हूँ। छूने लगा हूँ। पूछने लगा हूँ, - ‘त्रिवेणी, अब कैसी हो?’
जैसे ममता भरी हाथों को मेरे माथे पर फेरती त्रिवेणी कहती है, - ‘ऐसे ही आते रहो, मेरा हाल अच्छा तो होता ही जाएगा।’
त्रिवेणी के सौंदर्य पर अब अक्सर सोचता हूँ कि जब प्रकृति में जीता मनुष्य अपने रूप-प्रदर्शन के लिए इतना उत्कंठित रहता है, तब प्रकृति क्यों नहीं? . . . नदी किनारे घूमते-घूमते हम भी पत्थरों की भीड़ में एक-दो शालिग्राम पत्थर पा ही गए। मैंने कुछ अन्य रोचक आकृति वाले पत्थरों को भी बैग मे रखा। मन सौंदर्य से अघाया तथा परिस्थितियों से व्यथित था। हम जीते भी थे, हारे भी थे। सूर्य की टहक कम होते-होते हमारी जीप भी घर की ओर दौड़ पड़ी।     
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सूर्योपासना की परंपरा का प्रमाण है तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर


     सूर्य देव सभी प्राणियों के पोषक हैं। दिवा-रात्रि और ऋतु परिवर्तन के कारक हैं। विभिन्न व्याधियों के विनाशक हैं। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही हैं। सूर्य से ही जीवन है। पृथ्वी है। आकर्षण है और हरीतिमा है। सूर्य सर्वमान्य सत्य है। सत्य के प्रतीक हैं। सत्य के साथ तेज के प्रतीक हैं। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य अर्थात सर्व प्रेरक। सूर्य सर्व प्रेरक हैं। सर्व प्रकाशक हैं। सर्व प्रवर्तक हैं। सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी भी है। ऋग्वेद के देवताओं में सूर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘सूर्य आत्मा जगत्स्तथुषश्च’ कहा गया है। यजुर्वेद ने ‘चक्षो सूर्यो जायत’ कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। गीता में ‘ज्योतिषां रविरंशुमान’ कहा गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। सूर्य को ही संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्त्व समझाया गया है। 
      अनेक पुराणों के आख्यान के साथ-साथ लोक प्रचलित भी मान्यता है कि श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र शाम्ब बहुत सुंदर थे। ऋषि दुर्वासा के श्रापवश उन्हें कुष्ट रोग हो गया। यह निश्चित हुआ कि सूर्य-पूजा से ही इस रोग से मुक्ति मिल सकती है। इसके लिए भारत के बाहर शक द्वीप से सूर्योपासना में प्रवीण ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। उन्होंने विधि-विधान-पूर्वक सूर्य को पूजित कर उन्हें प्रसन्न कर लिया और शाम्ब कुष्ट रोग से मुक्त हो गए। भविष्य पुराण में इस घटना का उल्लेख है-
न योग्यरू परिचर्यायां जम्बूद्वीपे ममानघ।
तन्मगान् मम पूजार्थ शकद्वीपादिहानय।।  

      प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध है और कुछ अपनी पहचान के लिए संघर्षरत। उन्हीं पहचान के लिए संघर्षरत मंदिरों में से एक है उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जनपद के तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर।

      कसया-तमकुही मार्ग पर एक छोटा सा बाजार है तुर्कपट्टी। यह स्थल भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर से सत्रह कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का अस्तित्व प्राचीन काल के पुराणों, ग्रंथों आदि में मिलता है। यह काफी पुराना मंदिर है। इस सूर्य मंदिर के बारे में स्ंकद पुराण और मार्केंडय पुराण में भी पढ़ा जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ होने वाली खुदाई के दौरान चैथी, पाँचवीं, आठवीं और नौवीं सदी की सूर्य भगवान की दो मूर्तियों को खोजा गया था। खुदाई से प्राप्त उन मूर्तियों को इस मंदिर में स्थापित कर दिया गया था। दोनों मूर्तियाँ काले पत्थर की बनी हुई हैं जिसे यहाँ के स्थानीय क्षेत्र में नीलमणि पत्थर कहा जाता है। इस मंदिर को गुप्त वंश के दौरान बनवाया गया था।
      एक मान्यता यह भी है कि तुर्कपट्टी महुअवा खास गाँव के रहने वाले सुदामा शर्मा को रात में स्वप्न दिखा कि वह जिस जगह पर सोया है उसके नीचे भगवान सूर्य की मूर्ति है। सुदामा ने इस स्वप्न पर ध्यान नहीं दिया। कुछ दिन बाद उसके परिवार के एक सदस्य की अकाल मृत्यु हो गई। इसके बाद सुदामा ने यह बात कुछ लोगों को बताई। 31 जुलाई 1981 को सूर्य ग्रहण लगा था। उसी दिन पूर्व ग्राम प्रधान मथुरा शाही के नेतृत्व में ग्रामीणों ने सुदामा शर्मा के बताए गए स्थान पर खुदाई की थी। खुदाई में यहाँ दो प्रतिमाएं मिलीं। इनमें से एक बलुई मिट्टी की थी और दूसरी नीलमणि पत्थर की। इतिहासकारों ने इसे गुप्तकालीन बताया था।
      इतिहासकारों की माने तो इस पुराने मंदिर को भारत के पहले पुरातत्व सर्वे के दौरान खुदाई में जनरल ए. कनिंघम द्वारा खोजा गया था। बाद में 1876 में इसका जीर्णोद्धार करवाया गया और 31 जुलाई 1981 को इसे आम जनता के लिए खोल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि सोमवार और शुक्रवार को इस मंदिर में दर्शन करने का सबसे अच्छा दिन होता है। कार्तिक माह के षष्ठी और फाल्गुन माह के तेरस के दिन यहाँ भक्तों का तांता लगा रहता है। इसके अलावा, जन्माष्टमी के पर्व पर भी यहाँ श्रद्धालुओं का काफी जमावड़ा रहता है।
      सूर्य देवता न केवल अन्नों, फलों आदि को पकाते हैं, बल्कि नदियों, समुद्रों से जल ग्रहण कर पृथ्वी पर वर्षा भी कराते हैं। संपूर्ण प्राणियों के वे पोषक हैं। उपासना करने पर वे सभी प्रकार की मनोकामनाओं की पूर्ति करने में भी सक्षम हैं। चर्म रोग, जिसमें कोढ़ के समान असाध्य रोग भी सम्मिलित है, से छुटकारा पाने के लिए सूर्योपासना सर्वाधिक सशक्त साधन है। सूर्य की उपासना हमें दीर्घायु भी बनाती है। सूर्य की उपासना-आराधना ऋग्वैदिक काल से ही प्रचलित है। ऋग्वेद के एक सूक्त में सूर्य को सभी मनुष्यों का जनक, उनका प्रेरक और इच्छित फलदाता घोषित किया गया है- उद्वेति प्रसवीता जनानां महान् केतुरर्णवरू सूर्यस्या। 

      सूर्योपासना के विभिन्न रूप रहे हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-महर्षि नदियों-सरोवरों के जल में पूर्व की ओर मुख कर सूर्य को जल का अर्घ्य अर्पित करते थे। कुछ लोग गायत्री-मंत्र का जाप कर उन्हें प्रसन्न करते। सूर्योपासना का एक प्रकार सूर्य-मंदिरों में स्थापित विग्रह का पूजन है। प्राचीनकाल से ही सूर्य-मंदिर भारत ही नहीं, विदेशों में भी बनते आए हैं। रोम में ईसाई धर्म के आगमन के पूर्व सूर्य-पूजा का प्रचलन था और वहां कई सूर्य-मंदिर निर्मित हुए। राजा के महल के प्रवेश-द्वार के ऊपर सूर्य की आकृति अंकित थी। दक्षिण अमेरिका में भी सूर्य-मंदिरों के अवशेष पाए गए हैं। माया-सभ्यता निवासियों में सूर्योपासना यहां प्रचलित थी। भारत में श्रीकृष्णकाल से ही मंदिर-निर्माण का प्रचलन है। तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर सूर्योपासना के उन्हीं रीतियों और परंपराओं से जुड़ा एक ऐतिहासिक मंदिर है।
      तुर्कपट्टी में मिली भगवान सूर्य की मूर्ति अद्भुत है। पुराणों में सूर्य के जो लक्षण वर्णित हैं वे इस मूर्ति में दिखते हैं। रथ में जुते सात घोड़े, सूर्य की रानियाँ और सारथी अरुण की छवि साफ दिखती है। प्रतिमा में राहु और केतु भी दिखते हैं। भगवान सूर्य के दोनों हाथों में कमल है। साथ ही किन्नर और गंधर्व सूर्य का गुणगान करते दिखते हैं। यहाँ पहली बार 1985 में सूर्य महोत्सव का आयोजन हुआ था। प्रदेश के संस्कृति विभाग और स्थानीय लोगों के सहयोग से शुरू हुए इस महोत्सव से इस जगह को काफी प्रसिद्धि मिली। देशी-विदेशी पर्यटक भी आने लगे। 1992 में सूर्य महोत्सव बंद हुआ तो पर्यटकों ने भी यहाँ से नाता तोड़ लिया। 24 अप्रैल वर्ष 1998 की रात्रि में यहाँ से नीलमणि पत्थर वाली भगवान सूर्य की मूर्ति चोरी हो गई थी। काफी प्रयास के बाद मूर्ति तो मिली लेकिन उसके बाद भी सुरक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं किया गया। कुछ दिन तक दो सिपाही तैनात रहते थे। अब एक होमगार्ड की भी ड्यूटी नहीं है। 
      पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर वर्तमान समय में प्रशासनिक उपेक्षा का दंश झेल रहा है। गुप्तकालीन नीलमणि पत्थर की मूर्ति वाला यह सूर्य मंदिर उत्तर भारत में इकलौता है। बावजूद इसके मंदिर तक जाने के लिए ढंग का रास्ता भी नहीं है। इस सूर्य मंदिर के विकास पर सरकार ने शुरू में ध्यान दिया। तब 25 लाख रुपये भी यहाँ विकास के लिए दिए गए थे। बाद में किसी ने इसकी सुधि नहीं ली। विधायक निधि से मंदिर परिसर में बना फव्वारा कई साल से बंद पड़ा है। विश्राम गृह भी देखभाल के अभाव में जर्जर हो गया है। आवागमन का कोई सरकारी साधन न होने के चलते पर्यटकों को तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ता था। इससे उनका यहाँ से मोहभंग हो गया। तुर्कपट्टी बाजार से सूर्य मंदिर होते हुए फाजिलनगर तक जाने वाली सड़क गड्ढों में तब्दील हो चुकी है। हल्की बारिश में ही यह सड़क जलमग्न हो जाती है। पूरा परिसर गंदगी से पटा रहता है।
     कुछ वर्ष पहले आए कुशीनगर के एक जिलाधिकारी आर. सैम्फिल ने एक निरीक्षण के दौरान तुर्कपट्टी महुअवां स्थित सूर्य मंदिर पहुँच कर भगवान सूर्य का पूजन अर्चन किया। वहाँ के पुजारी ने मंदिर के महत्ता की कहानी विस्तार से बताई। मंदिर परिसर में मौजूद नागरिकों ने जब उनसे इंटरलाकिंग, पेयजल तथा प्रकाश व्यवस्था की मांग करते हुए सड़कों के जीर्णोद्धार की मांग की तब डीएम ने कार्रवाही का आश्वासन तो दिया मगर अभी कुछ विशेष नहीं हुआ। आज भी सूर्योपासना की परंपरा का प्रमाण देता तुर्कपट्टी का यह सूर्य मंदिर अपने काया-कल्प की बाट देख रहा है लेकिन आस्था से सराबोर भक्तों का मन जाता ही रहता है। भगवान भाष्कर को प्रसन्न करता ही रहता है। 
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Oct 8, 2014

केन के पुल पर


     बात 2003 के अक्टूबर की है। हमलोग प्रतिवर्ष दशहरा के अवकाश में कहीं-न-कहीं भ्रमण पर निकल जाते हैं। यह भ्रमण एकल तो कत्तई नहीं होता। सामूहिकता का अलग ही आनन्द होता है। इस बार भी ड्राइवर को लेकर हम दस थे। उनमें उम्र में सबसे छोटा मैं ही था। हमारी यात्रा अपनी गाड़ी से ही प्रारंभ हुई थी। दस आदमी की बैठक क्षमता वाली मार्शल गाड़ी लिया गया था। हमारा पहला विराम आजमगढ़ में कुछ घंटों के लिए हुआ। वहाँ बालमुकुंद भैया के पास चाय-पानी करने के उपरांत हम शाम होते-होते चित्रकूट पहुँच गए थे। ‘चित्रकूट में रमि रहे रहीमन अवध नरेस। जा पर विपदा पड़त है, सोई आवत एही देस।।’......मगर आज हम भगवान राम के विपत्तिकाल में व्यतीत किए गए स्थली का दर्शन करने आए थे। 
     दो रात और दो दिन चित्रकूट में बिताने के बाद हम सतना होते हुए मैहर गए। शारदा माँ का आशीर्वाद लेने। माता की कृपा और उनके भक्तों में आल्हा-उदल की वीरता की कथा तो सुना ही था, मैं एकबार दर्शन भी कर चुका था। तब ट्रेन द्वारा आया था। आज सड़क मार्ग द्वारा। संध्या की कालिमा का साम्राज्य होते-होते हम सतना में थे। मार्ग भटकने के कारण हमें वहाँ विलंब हो गया। अग्रसेन चैराहे से हमें जाना था उत्तर और आ गए थे दक्षिण। बस-स्टैंड की ओर। पहले रास्ता नहीं पता था और आज उसी सतना में पली-बढ़ी लड़की मेरी जीवन-संगिनी है। 
     दूसरे दिन सुबह मैहर वाली माता का दर्शन करने के बाद हम लोग करीब डेढ़ बजे दोपहर तक नीचे आ गए थे। खाना के बाद तीन बजे से हमारी यात्रा अब खजुराहो के लिए प्रारंभ हुई। सतना से आगे कुछ ही किलोमीटर चलने के बाद हरिशंकर परसाई जी की रचना ‘मेरी बस यात्रा’ की एक-एक पंक्तियाँ याद आने लगीं। तब मुझे प्रमाण मिल गया कि लेखक की लेखनी कितनी प्रमाणित है। उस रचना का अक्षर-अक्षर प्रमाण दे रहा था। सड़क नाम की कोई चीज भर लगती थी। कहीं-कहीं कंकरीट नज़र आ जाता तो हम ‘अब अच्छी सड़क है’ की बात कहकर प्रसन्न होते कि गाड़ी थोड़ी स्पीड पकड़ेगी। कहीं तारकोल नज़र आया तो उस क्षणिक खलेपन का सुख हमारे लिए ‘मल्टी लेन हाई वे’ होता था।
     हम जहाँ कहीं भी अपनी इस यात्रा के बोरियत को दूर करने रूकते तो लोगों से जरूर पूछते, - भाई अगले चुनाव में दिग्विजय सिंह का क्या हाल होगा? लगभग सबका एक ही उत्तर होता - ‘जमानत जब्त।’ हमने रास्ते भर तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को चाहकर खुब गालियाँ दी। उस समय उस बोरिंग यात्रा में हमारे द्वारा दी गई गाली हमें अपनी यात्रा ज़ारी रखने की शक्ति देती। कुछ पल के लिए जी हल्का हो जाता। तब लगता कि गाली तो संजीवनी है, लोग इसे बुरा क्यों कहते हैं? अब तो ऐसा ही लगता है कि हमारे कष्टों की तड़प का ही पाप उन्हें लग गया और आज तक बेचारे बिना सिर-पैर का बयान देते हुए खिसियानी बिल्ली के जैसे खंभा नोंचते हैं। खैर, हम दस बजते-बजते पन्ना पहुँचे। सतना से पन्ना तक की 74 किलोमीटर की यात्रा हमने पाँच घंटे में पूरा किया था। यात्रा की थकान और अरूचिकरता के कारण अभी यहीं रूकने का विचार बना। सारे लाॅज बंद थे, अतः हम बस स्टैंड के लाॅज में ही शरण लिए।
     लाॅज में सुविधा के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं था जिसका रत्ती भर भी तारीफ किया जाय। वह एक ऐसी रात थी जिसे मैं भूल ही नहीं पाता हूँ। उस रात हमें न खाने के लिए कुछ मिला, न सोने के लिए उचित साधन। बस, वह लाॅज हमारे लिए केवल अंधे की लकड़ी जैसे था। हम रात गुजारे और सुबह की मरीचि के दर्शन देने के पहले ही नित्यकर्म के बाद अपनी यात्रा प्रारंभ कर दिए। पन्ना की रात सबसे दुखदायी रात थी। हम अतिशीघ्र पन्ना को छोड़ना चाहते थे। उस पन्ना को, जो हीरे की खानों के शहर के रूप में प्रसिद्ध है। उस पन्ना को, जो एक ऐतिहासिक नगर है। यह नगर मध्य-प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित है। बुंदेलखंड की रियासत के रूप में इस नगर को बुंदेला नरेश छत्रसाल ने औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् अपने राज्य की राजधानी बनाया था। मुगल सम्राट बहादुरशाह ने 1708 ई. में छत्रसाल की सत्ता को मान लिया था। पन्ना में अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के भवन हैं जिनमें संगमरमर के गुंबद वाला स्वामी प्राणनाथ मंदिर और श्री बलदेवजी मंदिर शामिल हैं। यहाँ पद्मावती देवी का एक मंदिर है, जो उत्तर-पश्चिम में स्थित एक नाले के पास आज भी स्थित है। किंवदंती है कि प्राचीन काल में पन्ना की बस्ती नाले के उस पार ही थी। वहाँ राजगौंड और कोल लोगों का राज्य था। पन्ना से दो मील उत्तर की ओर महाराज छत्रसाल का पुराना महल आज भी खण्डहर रूप में विद्यमान है। पन्ना को अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में पर्णा भी कहते थे। यह नाम तत्कालीन राज्यपत्रों में उल्लिखित है।
     पन्ना में हीरे की महत्त्वपूर्ण खानें हैं, जिनमें 17वीं शताब्दी से खुदाई हो रही है। यह भारत में हीरा उत्पादन करने वाला एकमात्र खदान क्षेत्र है। यह नगर कृषि उत्पादों, इमारती लकडि़यों और वस्त्र व्यापार का केंद्र है। यहाँ के हीरे सारी दुनिया में गुणवत्ता और स्पष्टता के लिए ही नहीं बल्कि हर महीने के आखिर में जिला मजिस्ट्रेट के द्वारा नीलामी किए जाने के कारण भी विख्यात है। हमने चलते-चलते ही सब जाना और समझने का प्रयास किया। अब हम पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट से गुजर रहे थे। 

     अब हम राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या - 75 से खजुराहो की यात्रा पर थे। यह सड़क पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट के बीचोंबीच से गुजरती है। हम दोनों ओर स्थान-स्थान पर सूचना और सुझााव के लिए लगे बोर्ड देखते और रोमांचित होते बढ़े जा रहे थे। जंगल में सुबह के आगमन के साथ ही वन्य-जीवों और पक्षियों की आवाज़ें अपना अलार्म बजा रही थी। यह टाइगर रिजर्व का खूबसूरत जंगल रंग-बिरंगे प्रवासी पक्षियों के कलरव से भी जीवंत हो गया था। दुर्लभ कहे जाने वाले गिद्ध प्रजाति के प्रवासी पक्षी भी इस अभय वन के ऊँचे वृक्षों पर डेरा डाले थे। पन्ना टाइगर रिजर्व के 543 वर्ग किमी क्षेत्र में तीन सौ से भी अधिक प्रजातियों के पक्षी देखने को मिलते है। पन्ना आने वाले प्रवासी गिद्धों में हिमालयन वल्चर, यूरोपियन ग्रिफिन वल्चर तथा सेनरस वल्चर प्रमुख हैं। पर्यटन स्थल के रूप में यह राष्ट्रीय उद्यान बहुत ही महŸव रखता है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना पर्यटन का एक मुख्य आकर्षण है, यह उन सभी वाइल्ड लाइफ रिजर्व में से एक है जहां बाघों को पाया जा सकता है। यह पार्क, खजुराहो से आसान दूरी पर स्थित है। 
     पन्ना टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट के बीच से गुजरने पर हमें उस सुहानी सुबह में सुखद अनुभूति हो रही थी। रात की सारी पीड़ा हम भूल गए थे। सुबह-सुबह विविध पक्षियों के कलरव के साथ किसी हरे-भरे वातावरण की मोहकता बढ़ ही जाती है। जंगल की सर्पिली सड़क अच्छी थी। अब सब कुछ हमारे मन लायक था। जंगल समाप्त हो रहा था कि अचानक एक लंबा पुल दिखाई दिया। हमारे वरिश्ट सह-यात्री विनय राय जी ने बताया कि यह केन नदी है। मध्य-प्रदेष की विशालतम नदियों में से एक। उन्होंने पुल के प्रारंभ होते ही गाड़ी रूकवा दिया। हम सब उतर गए। नीचे उतर कर देख तो पीछे जंगल की विशालता और सामने लंबा पुल। पुल के दोनों ओर असीम केन का जल-संसार। दूर खड़े पहाड़ों और दायें-बायें जंगलों की हरियाली के बीच केन का स्वरूप अंतर तक उतर गया। किसी को भी अरूचिकर नहीं लग रहा था और ना ही किसी को वहाँ से जाने का मन कर रहा था। हम सभी कभी पुल के किनारों पर बैठकर तो कभी जमीन पर बैठकर समय को अपने साथ बाँध लेना चाहते थे। अनगिनत फोटो लिया गया। सबने सड़क के कंकरीटों को उठा-उठाकर नदी की जल-घाराओं को नापने का फालतु प्रयास किया। वह प्रयास नहीं, बस केन के किनारे रूकने का बहाना था।

     केन जैसी सुन्दर नदी के विषय में मैं अज्ञानी पहले कुछ भी नहीं जानता था। विनय राय जी आदि ने बहुत ज्ञान दिया तब अपनी अज्ञानता पर हँसी आने लगी। पता चला कि केन, यमुना की एक सहायक नदी है जो बुन्देलखंड क्षेत्र से गुजरती है। दरअसल मंदाकिनी तथा केन यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं, क्योंकि इस के बाद यमुना गंगा से जा मिलती है। केन नदी जबलपुर, मध्यप्रदेश से प्रारंभ होती है। पन्ना में इससे कई धारायें आ जुड़ती हैं और फिर बाँदा, उत्तर-प्रदेश में इसका यमुना से संगम होता है। इसकी लंबाई सिर्फ 250 किलोमीटर है परन्तु प्रवाह बहुत तीब्र होता है।
     यह नदी कैमूर पहाडि़यों की उत्तरी-पश्चिमी ढाल से निकलकर मध्य प्रदेश के दमोह, पन्ना इत्यादि क्षेत्रों से होती हुई बाँदा में चिल्ला नामक स्थान पर यमुना से मिलती है। इस नदी को कियाना नाम से भी जाना जाता है। इस नदी को प्राचीन समय में ‘कर्णावती’, ‘कैनास’, ‘शुक्तिमति’ आदि नाम से जाना जाता था। ‘सोनार’, ‘वीरमा’, ‘बाना’, ‘पाटर’ इत्यादि केन नदी की सहायक नदियाँ हैं। इसकी घाटियाँ बहुत ही पथरीली हैं जिसके कारण इसमें चलने वाली नावें यमुना नदी और केन के संगम से बाँदा तक ही आती-जाती हैं। नदी में ‘पाँडवा घाट’ तथा ‘कोराई’ नामक दो जलप्रपात भी हैं। यह नदी केवल वर्षा ऋतु में ही जलमग्न रहती है। गर्मी के मौसम में नदी लगभग सूख जाती है। केन तथा मंदाकिनी यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं, क्योंकि इसके बाद यमुना गंगा से जा मिलती है। इस नदी का ‘शजर’ पत्थर मशहूर है। 


     इसके नामकरण से संबंधित एक कथा यह है कि नदी के किनारे अक्सर एक प्रेमी युगल अठखेलियाँ किया करता था। बाद में किसी ने युवक की हत्या कर उसके शव को नदी के किनारे दफना दिया। युवक की प्रेमिका ने ईश्वर से अपने प्रेमी का शव दिखाने की प्रार्थना की। तब नदी में भीषण बाढ़ आई और नदी का किनारा कटा तो शव उसके सामने नजर आया। शव देखते ही लड़की ने भी अपने प्राण त्याग दिए। इस घटना के बाद नदी का नाम कर्णवती से ‘कन्या’ हो गया। कन्या का अपभ्रंश ‘कयन’ और फिर ‘केन’ हो गया। अब उसी केन नदी के लिए कहा जाता है कि यह सात पहाड़ों का सीना चीरकर बहती है। यह नदी अपनी यात्रा में पत्थरों में रंगीन चित्रकारी भी करती है। इसमें पाए जाने वाले चित्रकारी वाले पत्थरों को ‘शजर’ कहा जाता है। शजर में झाडि़यों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, मानव और जलधारा के विभिन्न रंगीन चित्र देखने को मिलते हैं। इसके किनारों पर अवैध रूप से बड़ी ही तादाद में बालू उत्खनन का काम होता है। 
     हम अब तक की यात्रा का सबसे सुखद और चित्ताकर्षक समय केन के पुल पर व्यतीत किए थे। हमें वहाँ से जाने का मन तो नहीं कर रहा था, मगर लक्ष्य तो खजुराहो के ऐतिहासिक और विश्व-प्रसिद्ध मंदिरों का दर्शन था। हम अनमने मन से चल पड़े। 
     पन्ना से खजुराहो की दूरी 44 किलोमीटर है। पन्ना से राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या -75 पर 35 किलोमीटर आगे बामिथा जाकर वहाँ से उत्तर दिशा में अर्थात बायें मुड़ने पर नौ किलोमीटर बाद खजुराहो आ जाता है। पन्ना और बामिथा के ठीक मध्य में केन नदी मिलती है। हम बमिथा में एक ढाबा पर रूके। सुबह का दस बज रहा था। हम ढाबे पर ही स्नन किए और पूरी यात्रा का सबसे ताज़ा भोजन किया। अब सब कुछ हमारे पक्ष में जो हो गया था। केन ने हमारी पीड़ा को धो जो डाला था।
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Oct 7, 2014

कुछ घंटे नर्मदा के किनारे


     दिल्ली में रहते हुए मैं राष्ट्रीय राज मार्ग - 8 से पूर्णतः परिचित हूँ। जीवन के अनेक अध्यायों से भी परिचित हो चुका हूँ। लोग सिद्धांतों की बातें करते हुए ‘बीती ताहि बिसार दे’ की बातें करते हैं, मगर मुझे तो लगता है कि कोई तपस्वी भी बीती बातों को नहीं भूल पाता होगा। खैर, मैं तो नहीं भूल पाता हूँ। उन्हीं बीते पन्नों को पलटते वक्त मेरी नज़र कहीं ठहर जाती है तो वह 2009 का समय होता है। समय ने मुझे अपने सामर्थ्य भर पढ़ाया, ईश्वर ने मुझे पढ़ने का साहस भी भरपूर दिया। उन्हीं खट्टे वक्त का स्वाद कभी-कभी जीभ पर चटकारा भी दे जाता है।
     बात 2009 के अक्टूबर माह का है। समय के दावानल में झुलसता हुआ मैं दिल्ली का एक-एक क्षेत्र भ्रमण कर चुका था। जब लगा कि दिल्ली में गलने के लिए दाल नहीं खरीद पाऊँगा तो इंटरनेट की सहायता से भारत-भ्रमण करते हुए अपने लिए रोटी का बहाना ढूँढता रहा। उन्हीं खोज में मुझे आत्मीय विद्या मंदिर, कामरेज, सूरत तथा सर्वनमन विद्या मंदिर भरुच से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। बुलावा ई-मेल द्वारा था। सुविधा यह थी कि एक ओर से शयनयान के टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा और अगर चयन होता है तो दोनों तरफ के टिकट का पैसा दे दिया जाएगा। ..... नौकरी की तलाश थी ही, मुझे लगा कि जाना चाहिए।  वैसे, मैं चयनित हो गया था और मुझे दोनों तरफ का किराया मिल गया था।
     संयोग ही था कि दोनों विद्यालय एक ही संस्था संचालित करती है। मुझे आत्मीय विद्यामंदिर में साक्षात्कार के दौरान पता चला। दूसरे दिन भरुच आना था। मैं सुरत या भरुच को सिर्फ नाम से जानता था, आँखों से देखा नहीं था। मुंबई जाते वक्त मेरी ट्रेन यहीं से गई थी, तब मैं निशा-निद्रा में रहा था। आज आँखों में उतारने का अवसर मिला था। यह अलग बात थी कि अवसर तनाव वाला था। नौकरी के तलाश की यात्रा, परिणाम की चिंता और नौकरी-विहीन व्यक्ति के लिए यात्रा-खर्च अपना एक अलग तनाव का कारण बन गए थे। फिर भी पहली बार साक्षात् होने के कारण जिज्ञासा अनायास ही बलवती होती रहती थी। मैं कामरेज पुलिस स्टेशन के चैराहे से, फ्लाई-ओवर के नीचे से राज्य परिवहन की बस से भरुच जा रहा था। हाई वे का विस्तार हो रहा था। निर्माण के पहले का ध्वंसात्मक रूप भी मेरे लिए आकर्षक था क्योंकि इस मिट्टी की सोंधी गंध मेरे लिए नयी थी। 
     ताप्ती को पार किया तो मन हरा-भरा हो गया। मैं सुरत, भरुच, ताप्ती आदि से केवल भूगोल पढ़ते समय ही परिचित हुआ हूँ। सूरत और भरुच को तो इंडस्ट्रीज़ के कारण भी जानता हूँ। एक कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध है और एक इस्पात उत्पादों के लिए। सुरत में तो मेरे गृह-नगर के कई मारवाड़ी व्यावसायी आकर अपना कारखाना लगा लिए हैं। और ताप्ती! यह वहीं ताप्ती है जो पूरब से पश्चिम की ओर बहती हुई अरब सागर में गिरती है। अपने मन को मील के पत्थरों, बैनरों, साइन बोर्डों के गुजराती शब्दों और अक्षरों समझने में उलझाता मैं भरुच आ ही गया। तब तक बहुत सारे वर्णों के लेखन-लिपि को समझ चुका था। अभ्यास में नहीं रहने के कारण अब भूल चूका हूँ। 
    अब मैं उस भरुच की धरती पर था, जो कभी गुर्जरों द्वारा शासित रही है। भरुच का अपना एक समृद्ध और गौरवमयी इतिहास है। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार गुर्जर सूर्यवंश या रघुवंश से सम्बन्ध रखते हैं। 7वीं से 10वीं शताब्दी के गुर्जर शिलालेखों पर सूर्यदेव की कलाकृतियाँ भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है। अब मैं उसी भरुच की धरती पर अपना पाँव जमाने के लिए आ गया था। 

     वैसे मैं बता दूँ कि दोनों विद्यालय, आत्मीय विद्या मंदिर, कामरेज, सुरत और सर्वनमन विद्या मंदिर, भरुच, ही सी.बी.एस.ई. पाठ्यक्रम पर आधारित शिक्षण देने वाले पूर्णतः आवासीय हैं। यहाँ अध्यापकों के लिए भी रहना, खाना और बच्चों के निःशुल्क शिक्षण की व्यवस्था है। आत्मीय विद्या मंदिर बालकों के लिए है तो सर्वनमन विद्या मंदिर बालिकाओं के लिए। ये संस्थाएँ योगी डिवाइन सोसायटी द्वारा संचालित हैं। दोनों विद्यालयों की स्थापत्य स्थिति और वास्तु-व्यवस्था बहुत ही आकर्षक और मनोहारी है। मैं कल यानि कि 26 अक्टूबर को करीब ग्यारह बजे कामरेज में था और आज भरुच के इस राष्ट्रीय राज्य मार्ग संख्या - 8 पर जाडेश्वर में उतर चुका था। पूछने पर एक दूकानदार सज्जन ने बताया कि सड़क के उस पार जाकर आप दायें वाली सड़क से पैदल ही चले जाइए। यहाँ से बस तीन सौ मीटर की दूरी पर है। आप पैदल ही चले जायेंगे। 
     दो सौ मीटर चलने के बाद थोड़ा वृत्त रूप में सड़क बायें घूमती है और सर्वनमन का अहाता। पहली ही दृष्टि में आकर्षक भवनों का गुच्छ। मुख्यद्वार के पहले वृत्ताकार स्थल को पार करते हुए मैं रिसेप्शन पहुँचा, प्रधानाचार्य से मुलाकात, कुछ पल की प्रतीक्षा। एक कमरे में बुलाया गया। वहाँ पहले से चार माननीयगण थे, जिसमें प्रधानाचार्य भी थे। उन्होंने हिंदी विभागाध्यक्ष तथा प्रबंध तंत्र के दो अन्य महानुभावों से परिचय करवाया। प्रश्नों की बौछार होने लगी। मैं यथाज्ञान उत्तर देने लगा। एक और प्रत्याशी थे। बनारस के रहने वाले जो कच्छ में रहते थे। अतः मुझसे कहा गया कि आप एक-डेढ़ घंटे बाद आइए। मैं कहाँ जाऊँ? तब तक बताया गया कि सामने मंदिर है, मैं घूम आऊँ। मुझे फोन कर दिया जाएगा। मैं परिणाम की प्रतीक्षा का बोझ लिए चला गया।
     अब मैं बाहर आ गया। जिस रास्ते से यहाँ आया था और जो रास्ता विद्यालय से निकलता था, से सभी एक त्रिभूज बनाते हैं वहाँ। उस त्रिभुज को पार करने के बाद नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर का प्रांगण प्रारंभ होता है। परिणाम की प्रतीक्षा में मैं ईश्वर का शरण उपयुक्त समझा। हारे को हरिनाम। बहुत ही विशाल प्रांगण है। शांत वातावरण। वृक्षों की अधिकता के कारण शीतलता रहती है। साफ-सफाई का खासा ध्यान रखा जाता है। इसमें महादेव के मंदिर के अतिरिक्त हनुमान जी का भी मंदिर है। छोटे-बड़े अन्य भी मंदिर हैं। वहाँ अभी-अभी संपन्न हुए छठपूजा का अवशेष भी देखा। मंदिर के पार मैं नीलाभ युक्त जलधाराओं को देखकर वहाँ गया तो पता चला कि यह निर्मल धारा नर्मदा का है। नर्मदा का? अरे वाह!.... मैं नर्मदा की असीम जलराशि के किनारे था।

     नर्मदा नदी मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई 1310 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ आकर यहीं भरुच से ही कुछ दूरी पर खम्भात की खाड़ी में गिरती है। नर्मदा नदी को ही उत्तरी और दक्षिणी भारत की सीमारेखा माना जाता है। यह विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधि-स्थल से जन्म लेती है। विंध्याचल और सतपुड़ा के बीचोबीच पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होती है तथा मंडला और जबलपुर, होशंगाबाद से होकर गुजरती है। यह नर्मदा का जन्म-स्थान सागरतल से 3000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। मंडला के बाद उत्तर की ओर एक सँकरा चाप बनाती हुई यह जबलपुर की ओर मुड़ जाती है। इसके बाद 30 फीट ऊँचे धुँआधार नामक प्रपात को पार कर यह दो मील तक एक संकरे मार्ग से होकर बहने के बाद जलोढ़ मिट्टी के उर्वर मैदान में प्रवेश करती है, जिसे नर्मदाघाटी कहा जाता है। यह घाटी विंध्य और सतपुड़ा पहाडि़यों में है। पहाडि़यों से बाहर आने के बाद नर्मदा फिर से एक खुले मैदान में प्रवेश करती है। इसी स्थान पर आगे ओंकारेश्वर एवं महेश्वर नामक नगर इसके किनारे बसे है। यहाँ उत्तरी किनारे पर कई मंदिर, महल एवं स्नानघाट बने हुए हैं। इसके बाद यह भरुच पहुँच कर अंत में खंभात की खाड़ी में एकाकार हो जाती है। भरुच में आने से पहले शुक्लातीर्थ से नर्मदा की बनी दो धाराएँ नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर पर फिर एक हो जाती हैं।
     मंदिर का प्रांगण आकर्षक और रूचिकर था, पेड़-पौधों का सानिध्य मनभावन था, लोगों का आना-जाना सजीवता दे रहा था, मगर मैं एक चबुतरे से उठकर दक्षिणी बाउंड्री वाल की ओर चला गया। वहाँ खड़ा होकर मैं नर्मदा की विराटता देखने लगा। एक अथाह शान्ति का अनुभव मेरे लिए आज भी प्रेरणादायक बना रहता है। जैसे उस सागर-संगिनी नर्मदा ने मेरे मन के सारे उथल-पुथल को शांत कर दिया था। साक्षात्कार के परिणाम की प्रतीक्षा मैं भूल गया। जैसे मैं उस सरिता के सानिध्य से सब कुछ पा रहा था। नदी की मंद धाराएँ मुझे प्रसन्नता दे रहीं थीं। नदी भी तो कम प्रसन्न नहीं लग रही थी। अब वह अपने विराट का हो जाएगी। खंभात की खाड़ी तो बस अब कुछ ही दूर है। कौन विरहिणी होगी जो अपने प्रिय को पाकर प्रसन्न न हो?

     मैं नर्मदा के दर्शन में खो सा गया था। आकंठ डुबकर स्वयं से दूर सा हो गया था। यात्रा का निमित्त तो मैं भूल ही गया था। यात्रा की सारी थकान गायब हो गयी थी। लगता था कि मैं किसी पुण्य का परिणाम पा रहा था कि तभी सर्वनमन विद्यालय से फोन आया। असली निमित्त तो नौकरी पाना ही था। अतः भारी मन से उस नीली जल-राशि को प्रणाम कर, उसमें एक सिक्का प्रवाहित कर, विद्यालय आ गया।
    मेरा चयन हो चुका था। वेतन पर चर्चा हुई। कुछ मैं झुका, कुछ वे बढ़े। बात तय हो गयी तो खाना खाने के उपरांत मैं स्टेशन के लिए चला। मन में ख़ुशी इस बात की थी कि अब नर्मदा को रोज ही निहारा करूँगा। वैसे, मीठास वाला खाना मुझे अरूचिकर लगा। आज ही मेरी वापसी थी। सर्वनमन विद्या मंदिर से मैं रेलवे स्टेशन के लिए चला। आॅटो लिया। हाई वे से रेलवे स्टेशन की दूरी करीब 5 किलोमीटर है। जाडेश्वर, बस स्टैंड, शीतल सर्कल रोड को पार करता मैं स्टेशन आ गया। मैं यहाँ सड़क मार्ग से आया था। आत्मीय विद्या मंदीर कोली भार थाना, कामरेज से मैं सर्वनमन विद्या मंदीर आया था। कामरेज से सर्वनमन की दूरी 63 किमी है। अब परिणाम भी अच्छा मिला था और दर्षन भी अच्छे का हुआ था, अतः सब कष्ट भूल गया।
     जब दिल्ली आया तो किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से वहाँ जा नहीं पाया। नर्मदा का फिर से दर्शन नहीं हो पाया। मन में टीस बनी रहती है। इच्छा भी बलवती होती रहती है। समय बदलता रहता है मगर नर्मदा को नहीं भूल पाता हूँ। मैं उसके तट पर कुछ ही घंटे व्यतीत किया था मगर उसका सौंदर्य और आकर्षण आज भी सम्मोहित करता है।
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Oct 5, 2014

इण्डिया गेट पर एक दिन


     दिल्ली का महत्त्वपूर्ण स्मारक, जिसे 80,000 से अधिक भारतीय सैनिकों की याद में निर्मित किया गया था, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में वीरगति पाई थी। उस महा-स्मारक को इण्डिया गेट से अभिहित किया जाता है। इण्डिया गेट नई दिल्ली के राजपथ पर स्थित 43 मीटर ऊँचा विशाल द्वार है। यहाँ वर्ष भर, हर मौसम में, हर हाल में शैलानियों की भीड़ उमड़ी रहती है। यह स्वतन्त्र भारत का राष्ट्रीय स्मारक है। इसका डिजाइन सर एडवर्ड लुटियन्स ने तैयार किया था। यह स्मारक पेरिस के आर्क डे ट्रॉयम्फ से प्रेरित है। इसे सन् 1931 में बनाया गया था। मूल रूप से अखिल भारतीय युद्ध स्मारक के रूप में जाने जाने वाले इस स्मारक का निर्माण अंग्रेज शासकों द्वारा उन 90000 भारतीय सैनिकों की स्मृति में किया गया था जो ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर प्रथम विश्वयुद्ध और अफगान युद्धों में शहीद हुए थे। लाल और पीले बलुआ पत्थरों से बना हुआ यह स्मारक दर्शनीय है। भले ही व्यक्ति किसी भी उम्र का हो, यहाँ आकर कुछ घंटे अवश्य व्यतीत करना चाहता है। चाहे व्यक्ति दिल्ली में रहने वाला हो या बाहर से आया हो, छुट्टियों में आउटिंग या पिकनिक मनाने का सबसे मनोहारी और आकर्षक स्थल है इंडिया गेट।
    इंडिया गेट के पूरब में मेज़र ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम है तो इन दोनों के बीच में ही जार्ज पंचम के पुतला वाला छतरी। दक्षिण में बाल उद्यान (चिल्ड्रेन्स पार्क) का मनोहारी दृश्य है जहाँ बच्चों की किलकारिया गुँजती रहती हैं। बाल उद्यान के ठीक उत्तर में अगस्त क्रांति मैदान है। इंडिया गेट से पश्चिम की ओर दोनों तरफ समानान्तर  ही कृतिम जलाशय है। इंडिया गेट के इर्द-गिर्द शेरशाह रोड, डाॅ. ज़ाकिर हुसैन मार्ग, शाहजहाँ रोड, अकबर रोड, अशोक रोड, के जी मार्ग, तिलक मार्ग, पुराना किला रोड, का चक्र बना हुआ है। जिस तरह इसके पूरब में मेज़र ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम है, ठीक वैसे ही इसके ठीक पश्चिम में राजपथ है। राजपथ मानसिंह मार्ग, जनपथ आदि को चिरता हुआ राष्ट्रपति भवन तक जाता है। इंडिया गेट के तल पर एक अन्य स्मारक, अमर जवान ज्योति है, जिसे स्वतंत्रता के बाद जोड़ा गया था। यहाँ निरंतर एक ज्वाला जलती है जो उन अंजान सैनिकों की याद में है, जिन्होंने इस राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। अमर जवान ज्योति की स्थापना 1971 के भारत-पाक युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों की याद में की गई थी।

     इंडिया गेट से राजपथ की लंबाई नौ सौ मीटर है जिसे पैदल ग्यारह मिनट में पूरा किया जा सकता है। राजपथ को 1947 के पूर्व ‘किंग्स् वे’ के नाम से जाना जाता था। यह पश्चिम में राष्ट्रपति भवन से विजय चौक होकर पूर्व में इण्डिया गेट होकर ध्यानचंद राष्ट्रीय स्टेडियम तक जाता है। इसके दोनोँ ओर घास की हरितिमा से परिपूर्ण सुन्दर मैदान हैं। राजपथ के साथ ही दोनों ओर एक-एक कृत्रिम झील साथ-साथ चलती है, जो कि इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाती है। यहाँ घासों की हरियाली के साथ ही छायादार पेड़ों का भी भरमार है। इन पेड़ों की छाया के कारण इंडिया गेट के आस-पास दिन के दोपहरी में भी आगंतुकों की भीड़ रहती है। पश्चिम में रायसीना की पहाड़ी पर चढ़ कर हम राष्ट्रपति भवन जा सकते हैं। राष्ट्रपति भवन के दोनो ओर सचिवालय है एवं उत्तरी खण्ड नार्थ ब्लॉक व दक्षिणी खण्ड साउथ ब्लॉक हैं। विजय चौक पर यह रफी मार्ग को काटती है, जहाँ से संसद भवन दिखाई देता है। अगला चौक जनपथ के काटने से बनता है। फिर मानासिंह मार्ग के काटने से अगला चौक है। आगे शान से सीना ताने विराजमान - इण्डिया गेट। 
     कहते हैं कि जब इण्डिया गेट बनकर तैयार हुआ था तब इसके सामने जार्ज पंचम की एक मूर्ति लगी हुई थी। जिसे बाद में ब्रिटिश राज के समय की अन्य मूर्तियों के साथ कोरोनेशन पार्क में स्थापित कर दिया गया। अब जार्ज पंचम की मूर्ति की जगह प्रतीक के रूप में केवल एक छतरी भर रह गयी है। 
     अगर मैं कहूँ कि यह दिल्ली को एक पहचान तो देता ही है, साथ ही सबसे बेहतर स्थान पर भी स्थित है, तो कोई मिथ्या नहीं। दिल्ली की कई महत्वपूर्ण सड़कें इण्डिया गेट के कोनों से निकलती हैं। वैसे तो दिलभर यहाँ लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है, मगर रात के समय यहाँ मेले जैसा माहौल होता है। मैं इस वर्ष के दशहरे की अवकाश में एक दिन पत्नी और अपने सुपुत्र के साथ एक दिन पहुँचा। रेंट के कमरे की कैद से आज़ाद और इतना खुला स्थान पाकर मेरा बेटा कुलांचे मारने लगा। उसकी प्रसन्नता उसके चेहरे, हाव-भाव और क्रिया-कलाप से दिखाई दे रही थी। कभी दौड़कर अपने माँ को पकड़ता कभी मुझे अपने साथ दौड़ने का न्योता देकर आगे निकल जाता। बच्चा तो नहीं समझ रहा था, मगर मैंने पत्नी को समझाया कि अभी पाँच ही दिन हुए, 28 सितंबर को यहीं से एक तीन वर्ष की बच्ची जाह्नवी गायब हो गई है। घरवालों से लेकर पुलिस तक खोज रही है, बच्ची का कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तो इंडिया गेट पर भी कोई महफूज नहीं है। बेटे पर नज़र रखना।


     अब तो इण्डिया गेट सुरक्षा चाक-चौबंद रहती है। मैं पहले भी एकबार पत्नी को लेकर आया था। पास तक नहीं जा पाया था। जनपथ के बाद बैरेकेटिंग थी। बैरेकेटिंग तो अभी भी है, मगर हम पैदल जा सकते हैं। छू तो कभी नहीं सकते। बस, बगल से ही छू सकते हैं। पूरब-पश्चिम की ओर से लौहे का मोटा जंजीर लटका रहता है। उस पर सूचनार्थ एक तख्ती भी है, - ‘स्मारक की दीवार, जंजीर व खंभे को नहीं छुए।’ अमर जवान ज्योति के पास एक जवान मूर्तिवत खड़ा था, दूसरा लोहे की जंजीर के अंदर ही गस्त लगा रहा था। हमने अपनी सुविधा और माध्यम से तो फोटो लिया ही, एक प्रोफेशनल कैमरा मैन से भी तीन फोटो बनवाए। फोटो की प्रतीक्षा करते-करते पानी का बोतल गटका। लोगों की भीड़ और बेटे की प्रसन्न्ता के बीच का सामन्जस्य थोड़ा हर्षक इसलिए भी था कि यहाँ से यातायात के साधन नहीं आते-जते। सभी जनपथ से गुजर जाते हैं। कहते हैं कि पहले इसके आसपास होकर काफी यातायात गुजरता था। परन्तु अब इसे भारी वाहनों के लिये बन्द कर दिया गया है। शाम के समय जब स्मारक को प्रकाशित किया जाता है तब इण्डिया गेट के चारो ओर एवं राजपथ के दोनों ओर घास के मैदानों में लोगों की भारी भीड़ एकत्र हो जाती है। 625 मीटर के व्यास में स्थित इण्डिया गेट का षट्भुजीय क्षेत्र 306000 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में फैला है। इस परिसर में अब जो वाहन दिखाई दे रहे थे, वे सुरक्षा कारणों से आ-जा रहे थे या रूके थे।
     दिल्ली के सभी मुख्य आकर्षणों में से पर्यटक, इंडिया गेट जाना सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। दिल्ली के हृदय में स्थापित यह भारत के एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में शान से खड़ा है। अबकी बार मैं लगभग आठ माह बाद यहाँ परिवार लाया था। इस बार भागमदौड़ की भी कोई बात नहीं थी। पर्याप्त समय था। मैं अपने मोबाइल से हर पाँच-दस मिनट पर बेटे का चित्र लेता रहता था। उसकी प्रसन्नता के कारण मैं सबको लेकर बाल-उद्यान की ओर चला गया। झूला और बस झूला। खेल के इतने साधनों को देखकर बेटा हमारे पास ही नहीं रहता था। उसकी तो अलग दुनिया बन गई थी। कभी इसपर, कभी उसपर। बाल उद्यान में हम उत्तरी द्वार से प्रवेश किए थे और अपने दाँये से परिक्रमा करते हुए उस छोटे से उद्यान से लगभग दो घंटे बाद निकले। जब पूर्वी छोर पर गए तो पापड़ खाने के चक्कर में वह थोड़ा रूका। चेहरा खेलने और धूप के कारण लाल हो गया था मगर इधर झूला न देखकर थोड़ा उदास हो गया। अब बाहर निकलने के लिए बेचैन। 
बाल उद्यान के उस उत्तरी द्वार पर बैठे खोमचे वाले बहुत ही अच्छी तरह से बाल-मनोविज्ञान के ज्ञाता होते है। बबल्स, पाॅपकोर्न, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक और बाॅल। सबकुछ के लिए आवाज़ लगाने लगते हैं। मेरा बेटा जूस के लिए बेचैन हो गया। उसके लिए जूस का अर्थ है - फ्रूटी। फ्रूटी नही तो कोई भी शीतल पेय।.…..हम उसे बहलाने का प्रयास करते हुए इंडिया गेट की बाँयी ओर वाली कृत्रिम नहर के पास एक पेड़ की छाया में बैठ गए। बेटा जूस के लिए परेशान कर रहा था। हमने कॉर्न खाया। जब वह नहर के फव्वारे से पानी निकलता देखा तो बारिश का पानी समझ नहाने की इच्छा व्यक्त करने लगा। मैं उसकी हर एक क्रिया-कलाप का फोटो लेता रहा। वह जूस के लिए परेशान करता रहा। ‘मैं जूस ले लूँ?’ कह कर कुछ दूर गया और आकर पैसा माँगने लगा। अब मैं कोल्ड ड्रिंक खरीदने के लिए मन बना चुका था। हम चल पड़े, मगर मैं उसका फोटो लेता रहा। मेरे बार-बार फोटो लेने से वह इस कदर परेशान हो गया कि दोनों हाथों से सिर पकड़ कर कहने लगा, - ‘मेले समझ में कुछ नहीं आ रहा।...अब मैं क्या कलूँ?’ 

     हँसी की एक लहर फूटी। भले ही मैं पत्नी को नहीं बताया, मगर मेरे द्वारा बार-बार फोटो लेने का वास्तविक कारण तो यह था कि जाह्नवी की घटना चर्चा में है। एक तीन वर्षीय बच्ची अपहृत या गायब हो गई थी। मैं बार-बार फोटो ले रहा था, उसी के बहाने मेरी नज़र बेटे पर रहती थी। अगर सावधानी नहीं रहेगी तो क्या पता, विपदा किस रूप में आ जाए। .....खैर, मैंने एक शीतल पेय लिया। माँ-बेटे ने आनन्द लिया। इंडिया गेट के समक्ष का सारा पसारा अपने आकर्षण से सबको सम्मोहित तो करता ही है, आज मेरे बेटे ने भी पूरा आनन्द उठाया।
     अब हम राजपथ पर थे। मैं अपने आप में गर्वित हो रहा था। मैं उस राजपथ पर था, जहाँ राजपथ 26 जनवरी को परेड होता है। जहाँ रिवलुएशन के नाम पर कैंडल लेकर या मौन रूप से या उग्रता के रूप में भी लोग पहुँचा करते है। …मेरा बेटा आनंदातिरेक से भर उठा था। उसके साथ हम पति-पत्नी भी बच्चे हो गए थे। अब हम आॅटो के लिए जनपथ की ओर बढ़ चले थे। बैरेकेटिंग पर एक सूचना चस्पा किया गया था। जान्ह्वी के गुमशुदा की सूचना। पत्नी को दिखाया तो रूक कर पढ़ने लगी और उस मासूम की पीड़ा की कल्पना कर के द्रवित भी हो गईं। मैं का नहीं। वे भी आ गई। इंडिया गेट पर एक पूरे दिन को व्यतीत कर के अब हम अपने बसेरे की ओर चल दिए।
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