Mar 3, 2010

नारी और नारी-मुक्ति (कविता)

मुझे याद है-
जब मैं छोटा था
मेरी माँ सम्मिलित होती थी
बहुत सारी सभा-समितियों में,
देती थी भाषण- नारी मुक्ति पर
अकाट्य तर्क से सिद्ध करती
नारी का पृथक स्तीत्व,
नारा लगातीं-
स्वच्छंद स्त्री का।
और घर में आते ही
संभाल कर रखती
सिन्दुरदानी अपनी
कंगन चूड़ियाँ भी,
कभी नहीं निकालती
गले का मंगलसूत्र।
परिवार की सरसता और सुदृधता
कैसे रहे कायम
यहीं चिंतन करती निरंतर
बातें करती सुहाग की
और पिताजी के बीमार पड़ जाने पर
तड़प उठती।
अपनी सिन्दुरदानी, कंगन, चूड़ियाँ
साथ ले कर
पूजा घर में
घंटों बैठी रहती।
पिताजी के स्वस्थ हो जाने पर
करती पूर्ण सृंगार
पुनः होता पूजन-अर्चन
देवों के साथ पिताजी कभी।
जब कोई पड़ोसन कहती-
यह चूड़ी अच्छी नहीं है, फोड़ दो,
मंगलसूत्र पुराने मोडल का है-
तोड़ दो,
तब काली बन जाती माँ-
रूप से भी, रंग से भी,
जैसे नोच खायेंगी
गाली देने वाली उस चुड़ैल को।
तब मैं छोटा था
नहीं समझ पाया था- माँ को
एक स्त्री को भी,
जो एक नारी थी
और भाषण देती थी नारी-मुक्ति पर।
आज बड़ा होने पर भी
मैं नहीं समझ पाया माँ को,
एक स्त्री को भी।
लेकिन जब पिताजी गुजरे थे
तब फोड़ दी गईं
माँ की चूड़ियाँ
तोड़ दिए गए कंगन
और मंगलसूत्र भी
तथा पछाड़ खाती माँ
पिताजी के शव के सिरहाने
अपने ही हाथों से
लाकर रख दी
सिन्दुरदानी अपनी।
................
- केशव मोहन पाण्डेय
9015037692

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