लड़की
लड़की चिड़िया बनकर
उड़ान भरती जा रही है आकाश में
और पंख मारती है
अनंत छूने को ।
लड़की नदी की लहर बनकर
बहती जा रही है विराट की ओर।
लड़की किरण बनकर
घेरती जा रही है -
कवि-कल्पित स्थान को।
लड़की स्त्री बनकर
बरसती है नेह की बदली जैसी
और, लड़की
बन रही है सब कुछ।
परन्तु लड़की
आज भी नहीं बोल पा रही है ठीक से ,
लड़की, आज भी धरती बनकर
बिछती जा रही है
पाँवों के नीचे।
-----------
- केशव मोहन पाण्डेय
09015037692
Feb 25, 2010
Feb 23, 2010
हिंदी कविता
संघर्षों का विष
दृग में स्वप्न अनोखे कल का
अनुभूति तेरे बल का
कल की बातें थीं ।
उम्मीद के लौ की ज्योति
उत्साहों के पथ की गति
कल की बातें थीं।
छूछे आदर्शों का मकड़जाल
कर्तव्यों का महाव्याल
हर कदम पर
हर पथ पर
मुँह बाये खड़ा है।
पहले नहीं समझा था कि -
टेढ़े जीवन में
सीधे लोगों के लिए
असफलताएँ छोटीं
और संघर्ष ही बड़ा है।
चल ताल ठोंक कर -
मेरा साथ तो दे
विश्वास न सही
केवल हाथ तो दे,
इस अपनों की बनावटी दुनिया में
कोई अपना तो है-
इस उम्मीद में जी लूँगा,
नहीं मिली मंजील तो क्या
सुख-दुःख की सीढ़ी चढ़ता
संघर्षों का विष पी लूँगा।
-------------
- केशव मोहन पाण्डेय
09015037692
दृग में स्वप्न अनोखे कल का
अनुभूति तेरे बल का
कल की बातें थीं ।
उम्मीद के लौ की ज्योति
उत्साहों के पथ की गति
कल की बातें थीं।
छूछे आदर्शों का मकड़जाल
कर्तव्यों का महाव्याल
हर कदम पर
हर पथ पर
मुँह बाये खड़ा है।
पहले नहीं समझा था कि -
टेढ़े जीवन में
सीधे लोगों के लिए
असफलताएँ छोटीं
और संघर्ष ही बड़ा है।
चल ताल ठोंक कर -
मेरा साथ तो दे
विश्वास न सही
केवल हाथ तो दे,
इस अपनों की बनावटी दुनिया में
कोई अपना तो है-
इस उम्मीद में जी लूँगा,
नहीं मिली मंजील तो क्या
सुख-दुःख की सीढ़ी चढ़ता
संघर्षों का विष पी लूँगा।
-------------
- केशव मोहन पाण्डेय
09015037692
Feb 22, 2010
तीन सीमा रेखाओं का सौंदर्य : त्रिवेणी
मन में भ्रमण का उत्साह, सौंदर्य का आकर्षण और दो देशों की राजनैतिक सीमा के साक्षात्कार की त्रिवेणी में प्रवाहित हो कर ही मैं त्रिवेणी जा रहा था । हम छः मित्र और एक जीप ड्राइवर ! मुझे छोड़ अन्य त्रिवेणी से परिचित थे । मेरा परिचय पहली बार होने वाला था । मेरी बेचैनी का एक यह भी कारण था कि आज तक त्रिवेणी स्थान का नाम इलाहबाद के संगम के लिए सुना था, यह कौन त्रिवेणी है ?
उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जिला मुख्यालय से लगभग १२५ कि.मी. उत्तर-पश्चिम कि दिशा में है त्रिवेणी ! पहले गंडक की भयावहता को पार करना दुरूह था, परन्तु अब पनियाहवा का सामानांतर रेल और सड़क पुल कुछ सहज कर दिया है । हम पड़ोसी देश नेपाल की सीमा छूने चल पड़े हैं । यह गंडक नदी है जिसमे शालिग्राम प्रस्तर की प्राप्ति होती है । शायद इसी लिए इसे नारायणी भी कहते हैं । हम पुल पर जीप रोक कर ऊपर से गंडक की विराटता, सौंदर्य और प्रवाह देखने लगे । अब गंडक को पार कर गए । उस गंडक को, जो बरसात में अपने यौवन के उन्माद में कोई बंधन नहीं स्वीकारती । जैसे असीम से मिलने की व्यग्रता में स्वयं सीमाओं को तोड़ देती है । अपने उग्र रूप में पता नहीं कितने उर्वर खेतों, लहलहाती फसलों, झूमते पेड़-पौधों और असीम सभ्यता-संस्कारों को धोने वाले गाँव को लील जाती है । इसके आक्रामक खोह में जीव-जन्तु, बच्चे-बूढ़े और जवान भी विलीन हो गए हैं | उर्वर मिट्टी रेत के ढेर में बदल गई है | फिर भी इसके कछारों से न जाने क्या मोह है की लोग मौत से जूझ कर जीवन जित ही लेते हैं | नदियों के प्रति आस्था के कारण हमने भी एक सिक्का प्रवाहित किया | आस्था में अँधा मानव तर्क नहीं मानता, नहीं तो इतना कुछ स्वाहा करने वाली गंडक को सिक्के से क्या काम? अभी पञ्च सौ मीटर भी आगे नहीं बढे होंगे की बिहार राज्य प्रारंभ हो जाता है| जिला पश्चिमी चंपारण! चंपारण शब्द से भारतीय इतिहास का एक अध्याय बापू के नाम और तस्वीर की स्मृति के साथ इस पवन भूमि के गौरव के सामने नत होने का मन करता है | सामने हैं अरण्य देव! अपना दिल खोले, पलक-पावडे बिछाए ये महोदय शायद हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं | यहाँ कभी केवल चम्पक-अरण्य ही था | ये महोदय ८४० वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाये हुए हैं | सखो-सागौन के आधिक्य वाले ये अरण्य देव बेंतों के भी खजाना हैं | इन्हें अभी एक की.मी. ही पार किया जाता है की दिल्ली-रक्सौल रेल-मार्ग के किनारे मदनपुर देवी माता का स्थान है | बहुत पवित्र शक्तिपीठ है ये !भक्तों की मनोकामना पूरी करती है माँ ! जैसे उस वन-प्रान्त की और से आगंतुकों के लिए पहला पुरस्कार है यह ! हमने भी दर्शन किया | पूजन-अर्चन के बाद चाय ले कर हम गहन वन-प्रान्त में हम चल पड़े | ......... छोटे-छोटे गाँव, अपनी दिनचर्या में लगे लोग! हम उनके जीवन की दुरुहता देख कर चिंतित थे, वे अपनी जीवन शैली में मस्त !
हमने जगह-जगह सावधानी एवं जानकारी के लिए लगे बोर्ड देखा | वाल्मीकि व्याघ्र योजना | हाय रे मानव! इन वन्य-जीवों की रक्षा के लिए योजना चलने की आवश्यकता पड़ गयी ? पता चला की यह ३३५.६ कि.मी. में फैली देश की १८वीं और बिहार की दूसरी
परियोजना है | इसकी शुरुआत १९९० में की गयी | यह उत्तर में रायल चितवन नॅशनल पार्क (नेपाल) से घिरा है तो पश्चिम में गंडक की जलधाराओं से |
इतिहासकार न जाने क्या कहते हैं, लेकिन इस वन में रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी का पवित्र आश्रम है | यहाँ बाघ, चिता, तेंदुआ, भेड़िया, नीलगाय, बन्दर, वनमुर्गी, छिपकलियों के आलावा जूलोजी-बाटनी की असंख्य सामग्रियां हैं | हम आगे बढे जा रहे हैं | सड़क अपने रूप से गुदगुदा कर कहीं-कहीं हँसाती है तो कहीं-कहीं डराती भी है, रुलाती भी है | रूप में विविधता है, चाल में सर्पीली है | ऊंचाई पर चढ़ते-उतरते गाँव की नखरीली गोरी लगती है | आगे छोटे-छोटे पत्थरों से भरा ट्राली पलता था | यहाँ अवैध रूप से भी पत्थर उत्खनन का काम बड़े पैमाने पर होता है | हम एक साथ अनेक रसों कि अनुभूति कर रहे थे कि जंगल से निकल क्र एकाएक कई लोग सड़क पर आ गए | हमें दर हुआ कि कहीं डाकुओं का समूह तो नहीं! पता चला कि निचे एक गड्ढा है,जिसका पानी उतर रहा है| ये लोग उसी में मछली पकड़ रहे हैं | यहाँ कि औरतें घर के कामों के साथ-साथ सुखी लकड़ियाँ बटोरती हैं | बच्चे पढाई काम, बकरियां अधिक चरते हैं | यहाँ संयुक्त परिवार बड़ी सफलता से संचालित होता है | बहुत अन्तराल से शिक्षा से कोसो दूर रहे ये लोग अब बड़ी बेचैनी से जुड़ गए हैं |
कुछ दूर खुली जगह, फिर मोड़ और अब आ गया वाल्मीकि नगर | सामने अद्भुत नजारा है | नीचे पूर्वी गंडक नहर का हरा पानी, जो कुछ ही दूर जाकर १५ मेगावाट के विद्युत् परियोजना को जन्म देती है | सामने जंगल का वहीँ गर्वीला स्वरूप, जिसे हम मदनपुर से आत्मसात करते आ रहे हैं | ऊपर नीला-धुला आसमान ! नहर के एक ओर साखो-सागौन और दूसरी ओर खिलखिलाते गुलमोहर की हरीतिमा | आगे एक गोल चौक है, जहाँ एक ढाई मीटर ऊँचा स्तम्भ है | इसे देख कर यहाँ से ५५-६० कि.मी. पूरब में स्थित लौरिया के अशोक स्तम्भ की याद आ जाती है | उसकी तो प्रमाणिकता है,इसकी नहीं | सैनिक छावनिओं को पार करते हम सदानीरा गंडक के किनारे थे | नहीं, कुछ पल भ्रम में रहे | आँखें देख रहीं थीं, मन नहीं मान रहा था | लगता था कि हम किसी और लोक में आ गए हैं | पीछे शायद अंग्रेजों के ज़माने का गेस्ट हॉउस है, इस समय बड़ी बारीकी से उसके मरम्मत का काम हो रहा है |
हम गंडक के कछार पर खड़े हैं, लेकिन वह हमसे ७-८ मीटर नीचे बह रही है | इस पिकनिक स्पोट को कभी खूब विकसित किया गया था | अवशेष इस बात को स्पष्ट करते हैं | कितना सौंदर्य यहाँ ! मन करता है कि सबको अपने में समेट लूं | आँखें इस रूप को पी लेने के लिए बेचैन हैं | पैर नाचने को बावले हैं | पीछे विराट अरण्य, सामने हिमालय श्रृंखला की सबसे निचली हरी-भरी पहाड़ियां | नीचे कलकलाती गंडक और ऊपर ललचता सा नीला आकाश | इन प्रसन्नता की लहरों में एक टीस मन को सालता है | प्रकृति का यह अनुपम सौंदर्य और शैलानिओं के नाम पर केवल हम सात ! क्या कारण है कि इस अभयारण्य में एक अपरिचित भय से मन सहमा रहता है ? क्यों कभी माओवादी तो कभी लाल-सलाम शब्द डराते रहते हैं ?
हम बहुत देर तक वहां बैठ कर प्रकृति के इस रूप से आँखें चार करते रहे, फिर हमारी गाड़ी विदेशी कहलाने को आतुर हो उठी | भैसालोटन बैराज हमें नेपाल कब पंहुचा दिया, पता ही नहीं चला | हम इंडो-नेपाल सीमा पार कर गए | ४ दिसम्बर १९५९ को नेपाल की महारानी और भारत सरकार द्वारा जल वितरण के लिए हुए समझौते के फलस्वरूप भैसालोटन बैराज का अस्तित्व सार्वजनिक यातायात के रूप में सामने आया | यहाँ से मुख्य पश्चिमी गंडक नहर, पूर्वी गंडक नहर, एवं पश्चिमी नेपाल नहर निकली है | अब हम त्रिवेणी में हैं, जो नेपाल के नवलपरासी जिले में पड़ता है | गंडक के किनारे चलती- चलती सड़क एक दो बार नृत्य करती सी लगती है | दायें असीम जलराशि वाली गंडक का गंभीर स्वरूप, बाएं छोटी-छोटी झोपडिओं में फ्राई मछली और बोतलबंद दारू के साथ मुरी और चिउड़ा की दूकान | दूकान की सुन्दरता के नाम पर उसकी विक्रेता नेपाली स्त्रियाँ | पीछे हरियाली में नहाई पहाड़ियां | - ये है त्रिवेणी ! छोटा बाजार | छोटी-छोटी मल्टी-परपज दूकानें | एक ही दूकान में सब कुछ | चाय- नाश्ते की दूकानों में वहीँ फ्राई मछली और बोतलबंद दारू के साथ मुरी-चिउड़ा और शीतल-पेय | हम सातों ने एक-दूसरे पार कोई बंधन नहीं लगाया | अब हम वहां गए, जहाँ मेला लगता है | मकर-संक्रांति को यहाँ अद्भुत मेला लगता है | नदी में उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं | किनारे छोटे-बड़े कई मंदिर और छाया के लिए एक विशाल वट-वृक्ष | नदी में छोटी-छोटी नौकाएं हैं, जिनपर हमने नौका-विहार का आनंद लिया | 'शैकत-शैय्या' वाली 'तन्वंगी गंगा' में नहीं, कंठ तक भरी गंडक में |
कितना रमणीय है यह सौंदर्य-प्रदेश ! गंडक से तर इस क्षेत्र की असीम रूप-राशि से जहाँ मैं आनंदित होता, वहीँ मौन हो गया | लगा, जैसे शब्द मर रहे है या ध्वनि लकवा-ग्रस्त हो गयी | आह्लाद में पीड़ा का क्या काम ? परन्तु बावरा मन माने तब तो ! वह तो भटकने लगा | यह क्षेत्र केवल अपने रूप में ही आकर्षण नहीं रखता है, इसके अतीत में भी आकर्षण है | इसी प्रांतर ने रत्नाकर को वाल्मीकि बना दिया | अपने जीवन के मातृत्व काल को सीता माँ यहीं व्यतीत कीं | लव-कुश इसी गंडक में स्नान किए होंगें शायद | महाभारत के २०वें अध्याय में श्रीकृष्ण ने भी गण्डकी-प्रदेश की रमणीयता का वर्णन किया है | सम्राट अशोक को भी इस क्षेत्र का ज्ञान था | बापू और बा इस मिट्टी को छू चुके हैं | नेहरू की आँखें यह सौंदर्य पी चुकी हैं | फिर भी किस अप्रत्यक्ष कारण ने शैलानिओं को नहीं बुलाया पाया ? यह प्रश्न मेरे मन को मथ देता है |
त्रिवेणी में तीन अलग- अलग नदियाँ नहीं हैं | गंडक की ही तीन धाराएँ आ कर मिलती हैं | केवल तीन धाराएँ हीं नहीं मिलतीं, तीन राजनैतिक सीमा रेखाएं भी आ कर मिलती हैं | एक ओर नेपाल की, दूसरी ओर पश्चिमी चंपारण की और पश्चिम से आओ तो उत्तर-प्रदेश के महराजगंज (झुलनीपुर) की सीमा भी गलबांही करती है | जंगल, नदी और पहाड़ जैसे तीन प्राकृतिक रचनाएँ भी दृष्टिगत होती है यहाँ | पुल, फूल और कंद-मूल का भी आनंद मिलता है यहाँ | मन, मस्तिष्क और तन को आराम मिलता है यहाँ | यहाँ भौतिक रूप से सामान्य जीवन, राजनैतिक शिथिलता और सामाजिक मौनता है | चर्चा से दूर रह कर भी नैसर्गिक सुख का यह दृष्टान्त उपेक्षा से आहात नहीं है | बिहार सरकार सड़कों का जीर्णोद्धार करा रही है | उत्तर-प्रदेश ने ध्यान देना तेज कर दिया है | त्रिवेणी की जनता प्रसन्न है | गेस्ट-हॉउस चमकने लगा है | सीमा सुरक्षा बल की मौजूदगी बढ़ने लगी है | लग रहा है की तीन सीमा रेखाओं का यह अद्भुत सौंदर्य सबके दिलों में उतरने को व्याकुल है |
भ्रमण की उत्कंठा, जो मेरे मन में रहती थी, यहाँ आ कर और बढ़ गई | प्रकृति की चित्रकारियां मुझे और बुलावा भेजने लगीं | मैं कही भी जाता हूँ, पहली नजर में वह जगह त्रिवेणी ही लगता है | अब त्रिवेणी मै बार-बार जाता हूँ | उसे बार-बार देखता हूँ | छूता हूँ | पूछता हूँ,-'त्रिवेणी, अब कैसी हो ?'
जैसे बड़ी ममता भरी हाथों को मेरे माथे पर फेरती त्रिवेणी कहती है,-'ऐसे ही आते रहो, अच्छा तो होता ही जायेगा |' -जब मनुष्य अपने रूप-प्रदर्शन के लिए इतना उत्कंठित रहता है, तब प्रकृति क्यों नहीं ? ...... नदी किनारे घूमते-घूमते हम भी पत्थरों की भीड़ में एक-दो शालिग्राम पत्थर पा ही गए | कुछ अन्य रोचक पत्थरों को भी बैग में रखा | मन सौंदर्य से अघाया और परिस्थिति से व्यथित हो गया था | हम जीते भी थे, हारे भी थे | सूर्य की टहक कम होते-होते हमारी जीप भी घर की ओर दौड़ पड़ी |
.............................................
- केशव मोहन पाण्डेय
समर फील्ड्स स्कूल,
कैलाश कालोनी,
नई दिल्ली -४८,
मो. ९०१५०३७६९२
उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जिला मुख्यालय से लगभग १२५ कि.मी. उत्तर-पश्चिम कि दिशा में है त्रिवेणी ! पहले गंडक की भयावहता को पार करना दुरूह था, परन्तु अब पनियाहवा का सामानांतर रेल और सड़क पुल कुछ सहज कर दिया है । हम पड़ोसी देश नेपाल की सीमा छूने चल पड़े हैं । यह गंडक नदी है जिसमे शालिग्राम प्रस्तर की प्राप्ति होती है । शायद इसी लिए इसे नारायणी भी कहते हैं । हम पुल पर जीप रोक कर ऊपर से गंडक की विराटता, सौंदर्य और प्रवाह देखने लगे । अब गंडक को पार कर गए । उस गंडक को, जो बरसात में अपने यौवन के उन्माद में कोई बंधन नहीं स्वीकारती । जैसे असीम से मिलने की व्यग्रता में स्वयं सीमाओं को तोड़ देती है । अपने उग्र रूप में पता नहीं कितने उर्वर खेतों, लहलहाती फसलों, झूमते पेड़-पौधों और असीम सभ्यता-संस्कारों को धोने वाले गाँव को लील जाती है । इसके आक्रामक खोह में जीव-जन्तु, बच्चे-बूढ़े और जवान भी विलीन हो गए हैं | उर्वर मिट्टी रेत के ढेर में बदल गई है | फिर भी इसके कछारों से न जाने क्या मोह है की लोग मौत से जूझ कर जीवन जित ही लेते हैं | नदियों के प्रति आस्था के कारण हमने भी एक सिक्का प्रवाहित किया | आस्था में अँधा मानव तर्क नहीं मानता, नहीं तो इतना कुछ स्वाहा करने वाली गंडक को सिक्के से क्या काम? अभी पञ्च सौ मीटर भी आगे नहीं बढे होंगे की बिहार राज्य प्रारंभ हो जाता है| जिला पश्चिमी चंपारण! चंपारण शब्द से भारतीय इतिहास का एक अध्याय बापू के नाम और तस्वीर की स्मृति के साथ इस पवन भूमि के गौरव के सामने नत होने का मन करता है | सामने हैं अरण्य देव! अपना दिल खोले, पलक-पावडे बिछाए ये महोदय शायद हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं | यहाँ कभी केवल चम्पक-अरण्य ही था | ये महोदय ८४० वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाये हुए हैं | सखो-सागौन के आधिक्य वाले ये अरण्य देव बेंतों के भी खजाना हैं | इन्हें अभी एक की.मी. ही पार किया जाता है की दिल्ली-रक्सौल रेल-मार्ग के किनारे मदनपुर देवी माता का स्थान है | बहुत पवित्र शक्तिपीठ है ये !भक्तों की मनोकामना पूरी करती है माँ ! जैसे उस वन-प्रान्त की और से आगंतुकों के लिए पहला पुरस्कार है यह ! हमने भी दर्शन किया | पूजन-अर्चन के बाद चाय ले कर हम गहन वन-प्रान्त में हम चल पड़े | ......... छोटे-छोटे गाँव, अपनी दिनचर्या में लगे लोग! हम उनके जीवन की दुरुहता देख कर चिंतित थे, वे अपनी जीवन शैली में मस्त !
हमने जगह-जगह सावधानी एवं जानकारी के लिए लगे बोर्ड देखा | वाल्मीकि व्याघ्र योजना | हाय रे मानव! इन वन्य-जीवों की रक्षा के लिए योजना चलने की आवश्यकता पड़ गयी ? पता चला की यह ३३५.६ कि.मी. में फैली देश की १८वीं और बिहार की दूसरी
परियोजना है | इसकी शुरुआत १९९० में की गयी | यह उत्तर में रायल चितवन नॅशनल पार्क (नेपाल) से घिरा है तो पश्चिम में गंडक की जलधाराओं से |
इतिहासकार न जाने क्या कहते हैं, लेकिन इस वन में रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी का पवित्र आश्रम है | यहाँ बाघ, चिता, तेंदुआ, भेड़िया, नीलगाय, बन्दर, वनमुर्गी, छिपकलियों के आलावा जूलोजी-बाटनी की असंख्य सामग्रियां हैं | हम आगे बढे जा रहे हैं | सड़क अपने रूप से गुदगुदा कर कहीं-कहीं हँसाती है तो कहीं-कहीं डराती भी है, रुलाती भी है | रूप में विविधता है, चाल में सर्पीली है | ऊंचाई पर चढ़ते-उतरते गाँव की नखरीली गोरी लगती है | आगे छोटे-छोटे पत्थरों से भरा ट्राली पलता था | यहाँ अवैध रूप से भी पत्थर उत्खनन का काम बड़े पैमाने पर होता है | हम एक साथ अनेक रसों कि अनुभूति कर रहे थे कि जंगल से निकल क्र एकाएक कई लोग सड़क पर आ गए | हमें दर हुआ कि कहीं डाकुओं का समूह तो नहीं! पता चला कि निचे एक गड्ढा है,जिसका पानी उतर रहा है| ये लोग उसी में मछली पकड़ रहे हैं | यहाँ कि औरतें घर के कामों के साथ-साथ सुखी लकड़ियाँ बटोरती हैं | बच्चे पढाई काम, बकरियां अधिक चरते हैं | यहाँ संयुक्त परिवार बड़ी सफलता से संचालित होता है | बहुत अन्तराल से शिक्षा से कोसो दूर रहे ये लोग अब बड़ी बेचैनी से जुड़ गए हैं |
कुछ दूर खुली जगह, फिर मोड़ और अब आ गया वाल्मीकि नगर | सामने अद्भुत नजारा है | नीचे पूर्वी गंडक नहर का हरा पानी, जो कुछ ही दूर जाकर १५ मेगावाट के विद्युत् परियोजना को जन्म देती है | सामने जंगल का वहीँ गर्वीला स्वरूप, जिसे हम मदनपुर से आत्मसात करते आ रहे हैं | ऊपर नीला-धुला आसमान ! नहर के एक ओर साखो-सागौन और दूसरी ओर खिलखिलाते गुलमोहर की हरीतिमा | आगे एक गोल चौक है, जहाँ एक ढाई मीटर ऊँचा स्तम्भ है | इसे देख कर यहाँ से ५५-६० कि.मी. पूरब में स्थित लौरिया के अशोक स्तम्भ की याद आ जाती है | उसकी तो प्रमाणिकता है,इसकी नहीं | सैनिक छावनिओं को पार करते हम सदानीरा गंडक के किनारे थे | नहीं, कुछ पल भ्रम में रहे | आँखें देख रहीं थीं, मन नहीं मान रहा था | लगता था कि हम किसी और लोक में आ गए हैं | पीछे शायद अंग्रेजों के ज़माने का गेस्ट हॉउस है, इस समय बड़ी बारीकी से उसके मरम्मत का काम हो रहा है |
हम गंडक के कछार पर खड़े हैं, लेकिन वह हमसे ७-८ मीटर नीचे बह रही है | इस पिकनिक स्पोट को कभी खूब विकसित किया गया था | अवशेष इस बात को स्पष्ट करते हैं | कितना सौंदर्य यहाँ ! मन करता है कि सबको अपने में समेट लूं | आँखें इस रूप को पी लेने के लिए बेचैन हैं | पैर नाचने को बावले हैं | पीछे विराट अरण्य, सामने हिमालय श्रृंखला की सबसे निचली हरी-भरी पहाड़ियां | नीचे कलकलाती गंडक और ऊपर ललचता सा नीला आकाश | इन प्रसन्नता की लहरों में एक टीस मन को सालता है | प्रकृति का यह अनुपम सौंदर्य और शैलानिओं के नाम पर केवल हम सात ! क्या कारण है कि इस अभयारण्य में एक अपरिचित भय से मन सहमा रहता है ? क्यों कभी माओवादी तो कभी लाल-सलाम शब्द डराते रहते हैं ?
हम बहुत देर तक वहां बैठ कर प्रकृति के इस रूप से आँखें चार करते रहे, फिर हमारी गाड़ी विदेशी कहलाने को आतुर हो उठी | भैसालोटन बैराज हमें नेपाल कब पंहुचा दिया, पता ही नहीं चला | हम इंडो-नेपाल सीमा पार कर गए | ४ दिसम्बर १९५९ को नेपाल की महारानी और भारत सरकार द्वारा जल वितरण के लिए हुए समझौते के फलस्वरूप भैसालोटन बैराज का अस्तित्व सार्वजनिक यातायात के रूप में सामने आया | यहाँ से मुख्य पश्चिमी गंडक नहर, पूर्वी गंडक नहर, एवं पश्चिमी नेपाल नहर निकली है | अब हम त्रिवेणी में हैं, जो नेपाल के नवलपरासी जिले में पड़ता है | गंडक के किनारे चलती- चलती सड़क एक दो बार नृत्य करती सी लगती है | दायें असीम जलराशि वाली गंडक का गंभीर स्वरूप, बाएं छोटी-छोटी झोपडिओं में फ्राई मछली और बोतलबंद दारू के साथ मुरी और चिउड़ा की दूकान | दूकान की सुन्दरता के नाम पर उसकी विक्रेता नेपाली स्त्रियाँ | पीछे हरियाली में नहाई पहाड़ियां | - ये है त्रिवेणी ! छोटा बाजार | छोटी-छोटी मल्टी-परपज दूकानें | एक ही दूकान में सब कुछ | चाय- नाश्ते की दूकानों में वहीँ फ्राई मछली और बोतलबंद दारू के साथ मुरी-चिउड़ा और शीतल-पेय | हम सातों ने एक-दूसरे पार कोई बंधन नहीं लगाया | अब हम वहां गए, जहाँ मेला लगता है | मकर-संक्रांति को यहाँ अद्भुत मेला लगता है | नदी में उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं | किनारे छोटे-बड़े कई मंदिर और छाया के लिए एक विशाल वट-वृक्ष | नदी में छोटी-छोटी नौकाएं हैं, जिनपर हमने नौका-विहार का आनंद लिया | 'शैकत-शैय्या' वाली 'तन्वंगी गंगा' में नहीं, कंठ तक भरी गंडक में |
कितना रमणीय है यह सौंदर्य-प्रदेश ! गंडक से तर इस क्षेत्र की असीम रूप-राशि से जहाँ मैं आनंदित होता, वहीँ मौन हो गया | लगा, जैसे शब्द मर रहे है या ध्वनि लकवा-ग्रस्त हो गयी | आह्लाद में पीड़ा का क्या काम ? परन्तु बावरा मन माने तब तो ! वह तो भटकने लगा | यह क्षेत्र केवल अपने रूप में ही आकर्षण नहीं रखता है, इसके अतीत में भी आकर्षण है | इसी प्रांतर ने रत्नाकर को वाल्मीकि बना दिया | अपने जीवन के मातृत्व काल को सीता माँ यहीं व्यतीत कीं | लव-कुश इसी गंडक में स्नान किए होंगें शायद | महाभारत के २०वें अध्याय में श्रीकृष्ण ने भी गण्डकी-प्रदेश की रमणीयता का वर्णन किया है | सम्राट अशोक को भी इस क्षेत्र का ज्ञान था | बापू और बा इस मिट्टी को छू चुके हैं | नेहरू की आँखें यह सौंदर्य पी चुकी हैं | फिर भी किस अप्रत्यक्ष कारण ने शैलानिओं को नहीं बुलाया पाया ? यह प्रश्न मेरे मन को मथ देता है |
त्रिवेणी में तीन अलग- अलग नदियाँ नहीं हैं | गंडक की ही तीन धाराएँ आ कर मिलती हैं | केवल तीन धाराएँ हीं नहीं मिलतीं, तीन राजनैतिक सीमा रेखाएं भी आ कर मिलती हैं | एक ओर नेपाल की, दूसरी ओर पश्चिमी चंपारण की और पश्चिम से आओ तो उत्तर-प्रदेश के महराजगंज (झुलनीपुर) की सीमा भी गलबांही करती है | जंगल, नदी और पहाड़ जैसे तीन प्राकृतिक रचनाएँ भी दृष्टिगत होती है यहाँ | पुल, फूल और कंद-मूल का भी आनंद मिलता है यहाँ | मन, मस्तिष्क और तन को आराम मिलता है यहाँ | यहाँ भौतिक रूप से सामान्य जीवन, राजनैतिक शिथिलता और सामाजिक मौनता है | चर्चा से दूर रह कर भी नैसर्गिक सुख का यह दृष्टान्त उपेक्षा से आहात नहीं है | बिहार सरकार सड़कों का जीर्णोद्धार करा रही है | उत्तर-प्रदेश ने ध्यान देना तेज कर दिया है | त्रिवेणी की जनता प्रसन्न है | गेस्ट-हॉउस चमकने लगा है | सीमा सुरक्षा बल की मौजूदगी बढ़ने लगी है | लग रहा है की तीन सीमा रेखाओं का यह अद्भुत सौंदर्य सबके दिलों में उतरने को व्याकुल है |
भ्रमण की उत्कंठा, जो मेरे मन में रहती थी, यहाँ आ कर और बढ़ गई | प्रकृति की चित्रकारियां मुझे और बुलावा भेजने लगीं | मैं कही भी जाता हूँ, पहली नजर में वह जगह त्रिवेणी ही लगता है | अब त्रिवेणी मै बार-बार जाता हूँ | उसे बार-बार देखता हूँ | छूता हूँ | पूछता हूँ,-'त्रिवेणी, अब कैसी हो ?'
जैसे बड़ी ममता भरी हाथों को मेरे माथे पर फेरती त्रिवेणी कहती है,-'ऐसे ही आते रहो, अच्छा तो होता ही जायेगा |' -जब मनुष्य अपने रूप-प्रदर्शन के लिए इतना उत्कंठित रहता है, तब प्रकृति क्यों नहीं ? ...... नदी किनारे घूमते-घूमते हम भी पत्थरों की भीड़ में एक-दो शालिग्राम पत्थर पा ही गए | कुछ अन्य रोचक पत्थरों को भी बैग में रखा | मन सौंदर्य से अघाया और परिस्थिति से व्यथित हो गया था | हम जीते भी थे, हारे भी थे | सूर्य की टहक कम होते-होते हमारी जीप भी घर की ओर दौड़ पड़ी |
.............................................
- केशव मोहन पाण्डेय
समर फील्ड्स स्कूल,
कैलाश कालोनी,
नई दिल्ली -४८,
मो. ९०१५०३७६९२
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