Aug 23, 2015

माँझी : विद्रोह और जिद्द की महागाथा

    रिलीज के दूसरे ही दिन ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म देखकर उठा तो मन कुछ लिखने को बेचैन हो गया। इस फिल्म पर लोगों की भरपूर प्रतिक्रियाएँ आयीं हैं। उन प्रतिक्रियाओं की कतार में मेरा कलम उठाना एक धृष्ठता ही है, क्योंकि मैं कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूँ। पर हाँ, उस संसार से परिचित हूँ। उस विधा से जुड़ा हूँ और देने वाले ने कुछ समझने वाली नजर भी दी है। इन सबसे अलग और बड़ी बात है कि फिल्म देखकर मन आह्लादित है। मनःस्थिति में बहुत कुछ उथल-पुथल चल रहा है। उथल-पुथल कथानक के कारण भी है, वस्तु-स्थिति के कारण भी है और प्रस्तुति के कारण भी है। ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ की कथानक से मैं पूर्णतः 2007 में परिचित हो चुका था। दशरथ माँझी के देहावसान के बाद कई दिनों तक गाहे-बेगाहे समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों पर चर्चाएँ होती रही थीं। 
    आज फिल्म को देखकर मन कई बार आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ को याद करता रहा। कई बार उनकी सर्जना ‘पहलवान का ढोलक’ को याद करता रहा। ‘मैला आँचल’ को याद करता रहा। और याद आती रही उनकी ही लेखनी की कारीगरी का कमाल ‘तीसरी कसम’। मन यही नहीं रूका। कई कलमकारों को याद करता रहा। कई बार राही मासूम रज़ा और उनकी कृति ‘आधा गाँव’, ‘नीम का पेड़’ और ‘टोपी शुक्ला’ को मैं याद करता रहा। सच कहूँ तो ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ को देखकर ‘लगान’ फिल्म भी याद आयी। बस इसलिए कि ‘लगान’ में आंचलिकता को निभाया गया है और ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ में जीया गया है। मेरे विचार से जीना दिखावेपन के धरातल की सरपट दौड़ती सड़क नहीं, वास्तविकता की चट्टानों से लैस चुनौती देता पहाड़ है।
मेरे विचार से ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ एक भाव-प्रवण फिल्म है। इसमें अन्याय का विरोध है और लाठी के विरूद्ध दाँत से काटकर बधुआ न बनने की शक्ति है। शृंगार का सौंदर्य तो है ही, ‘निराला’ के ‘श्याम तन भर बधा यौवन’ का शब्द-शिल्प भी साकार दिखायी देता है। सामर्थ्यहीन दाम्पत्य जीवन का मान और रार-तकरार है तो प्रेम को पाने की पराकाष्ठा भी और ‘फगुनिया’ के पिता की चिंता हर गरीब पिता की चिंता भी है। समुदाय विशेष की रीतियों के साथ ही रूढ़ियों का पूर्णतः चित्रण फिल्म की सार्थकता को बढ़ाते हुए दर्शकों को उनकी जमीन से जोड़े रहता है।
    फिल्म अपने भाव-पक्ष को हर स्तर पर पूर्ण न्याय के साथ प्रस्तुत करने में सफल मानी जा रही है। आज के समाज में सामान्य-से-सामान्य परिवार में भी मातृत्व काल के सपनों को नर्सिंग हाउसों में ही पूरा करने की कल्पना की जा रही है उसके विपरीत साठ के दषक की गरीब ‘फगुनिया’ गृहस्ती में लीन है और तालाब से जल लेते समय बच्चे को जन्म देती है। रोटी के स्वाद के लिए पसीना का टपकाना ही सुखद-जीवन की बुनियाद है। फिल्म अपनी मस्त धारा में बहती चली जाती है और दर्शक एक-एक चित्रण को अपनी आँखों से पीता चला जाता है। 
    सच कहूँ तो मुझे ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म एक जज़्बा की फिल्म लगती है। जज़्बा देश, काल का हो या परिस्थितियों से टकराने का। दशरथ माँझी का चरित्र किसी भी परिस्थिति से लड़ने का चरित्र है। वह अब्बर का समर्थक और जब्बर का विरोधी चरित्र है। चाहे गाँव के मुखिया के पास बधुआ बनने की बात हो या पहाड़ का सीना चीरने का प्रण। ‘मरद’ होने के प्रश्न पर कुल्हाड़ी के धौंस पर अपनी ब्याहता को जबरिया विदा करना का दम-खम हो या बाप के गाली-गलौज को मौन होकर सुनने की शक्ति। चाहे अकाल की परिस्थिति में भी काल से दो-दो हाथ करने की बात हो या पैदल ही दिल्ली की यात्रा पूर्ण करने का जिद्द।
    फिल्म की कहानी भले ही दशरथ माँझी की है मगर अभिनेताओं ने खूब जीया है। नवाजुद्दीन सिद्दिकी कहीं से भी अभिनेता नहीं लग रहे हैं। प्रारंभ से अंत तक लगता है कि साक्षात् दशरथ माँझी को ही देख रहे हैं। राधिका आप्टे भी अपनी भूमिका ईमानदारी से जी रही हैं, मगर नारी पात्रों में वास्तविकता के पास उनसे अधिक ‘लौकी’ लग रही है। फिल्म के पहले शॉट से अंत तक निर्देशक केतन मेहता की कलाकारी देखते बनती है। सिनेमेटोग्राफी भी उम्दा है। बस मुझे लगता है कि टूटते तारा को देखते समय पात्र कुछ अधिक अस्पष्ट हो गया है। वहाँ का रंग-संयोजन कुछ और संपादन लायक लगता है।
    साहित्य व सिनेमा का सीधा संबंध हृदय से होता है। इन दोनों माध्यमों में सिनेमा से कही गई बातों का असर तीब्र होता है। ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म अपने कथानक द्वारा मानव-मन के आंतरिक भावों को व्यक्त करने में पूर्णतः सफल नज़र आती है। अगर देखा जाय तो मुख्य रूप से आंचलिक फिल्मों को मर्मस्पर्शी बनाने में सार्थक व सहज आंचलिक शब्द-प्रयोगों का बड़ा महत्त्व है। फिल्म में प्रयुक्त सहज बातों में भी गालियों का प्रयोग हो या एक-एक संवाद की प्रस्तुति, सारी चीजें फिल्म को ऊँचाई देने में अपनी भूमिका निभाती हैं। किसी छोटे उम्र या जाति वाले व्यक्ति के नाम के आगे ‘वा’ लगाना हो या ‘मेहरिया’ हो या ‘ड़’ का ‘र’ बोलना या वाक्यों के पहले और अंतिम शब्दों पर जोर देकर बोलना, फिल्म को देशज आवरण में सजाकर गया (बिहार) के दशरथ माँझी के गाँव में पहुँचा देता है।
    संवाद में भाषा के सहज प्रयोग से फिल्म का कथानक और भी स्पष्ट व प्रभावशाली हो गया है। किसी भी दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति में भाषा का चयन संवाद को आकर्षक और पूर्ण बनाता है। निर्देशक केतन मेहता की कल्पना भाषा के सार्थक व सहज प्रयोग से पात्रों को साकार व जीवन्त कर बैठती है। पात्रों के हृदय की भावनाओं को भाषा के देशज प्रयोग ने सजीव कर दिया है।
    भाषा की शक्ति, कथानक का गुण, लयात्मक संवाद, सब मिलकर फिल्म को एक रोचक व मनोरंजक फिल्म बना रहे हैं। कुछ संवाद तो अनेक दर्शकों से जुबान से निकलने पर भी सुनता रहा। जैसे, ‘सब राजी-खुशी?’, ‘शानदार, जबरदस्त, जिन्दाबाद’, ‘जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं’ आदि। सहज, असरदार और बेजोड़ संवादों के साथ ही चित्रात्मक प्रस्तुत करने में भी यह फिल्म पूर्णतः सफल रही है। सीने में आग लिया दशरथ माँझी जब पहाड़ को चुनौनी देता है तो एक छोड़े से पत्थर से ही आग लगा देता है। अकाल के समय में जब माँझी जीवन से जुझने के लिए ताल ठोक लेता है तो पानी का स्रोत मिल जाता है। सबसे बड़ी बात कि माँझी जब जिद्द पर अड़ जाता है तो मुखिया, फगुनिया के पिता और पहाड़ से विद्रोह कर के वह आज का ‘दशरथ माँझी पथ’ का निर्माता बन जाता है।
    कुल मिलाकर ‘माँझी: द माउण्टेन मैन’ फिल्म सिनेमा के स्क्रीन पर दशरथ माँझी के प्रेम, विद्रोह और जिद्द की महागाथा बन कर दर्पण की तरह उभरी है। यह फिल्म दशरथ की कथा को पात्रों के अभिनय, संवाद, देश-काल और वातावरण के साथ प्रस्तुत करने में सफल रही है। वास्तविकता यह है कि फिल्म देखते समय मैं कई बार कलाकारों के अभिनय, संवाद अदायगी व फिल्म की प्रस्तुति की सराहना तो कर ही रहा था, साथ ही अपनी पत्नी से हमेशा कहता रहता हूँ कि माँझी के संघर्ष की इस महागाथा को आॅस्कर में जाना चाहिए। जरूर जाना चाहिए।
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                                                                                  - केशव मोहन पाण्डेय

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