माँ अपने बच्चे को थपकियाँ देकर सुलाती है। बच्चे के शरीर पर माँ की थाप ही केवल नहीं पड़ता। वह थपकियाँ देते समय कुछ गुनगुनाती भी है। माँ द्वारा उस गुनगुनाहट में लय की प्रधानता होती है। वह लय किसी प्रतिस्पर्धा या किसी उत्सव का नमूना नहीं होता। माँ की ममता में सिक्त थपकियों का संघाती होता है। थपकी देकर गाये जाने वाले गीतों को लोरी कहते हैं। लोरियों की परंपरा चिर-प्राचीन है। इनकी प्राचीनता के पक्ष में यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि इनका प्रदुर्भाव मनुष्य की पहली बोली के साथ ही हुआ होगा।लोरियों का कोई अर्थ नहीं होता। इनमें लय की ही प्रधानता होती है। उस लय में माँ की थाप मिली होती है। माँ के थाप के साथ ही बच्चे की तंद्रा में ऊँ-ऊँ का लय कुछ गहरी निद्रा को आमंत्रित करता है। लोरी के लय में माँ वात्सल्य की सुधा शब्दों के माध्यम से आँचल में छिप कर स्तनपान करते हुए शिशु पर बरसाती है। और वह बच्चा स्नेह-सुधा में भींगकर विभोर हो जाता है।
लोरियों में दो या तीन से अधिक शब्दों या वाक्यों का प्रयोग नहीं होता है। लोरी की आवाज़ पालने के हिलने या थपकियों के ताल से एकदम लयबद्ध होती है। इसका शिशु के ज्ञानेन्द्रियों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। लोरी सुनने वाले बच्चे को कम से कम इस दुनिया की तो कोई भी भाषा नहीं आती, लेकिन फिर भी वह माँ के इन प्रेम की थपकी भरे गीतों का अर्थ बखूबी समझ जाता है। तभी तो तुरन्त सो जाता है। लोरी की परंपरा अति प्राचीन है। हर तरह के ताल, तुक, लय और छंद-बंधन से मुक्त इन लोरियों में माँ अपने बच्चे के लिए हमेशा ही स्वर्ग का आनंद खोजने की कोशिश करती रही है। इन लोरियों की एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी रही है कि इनके लिए न तो माँ को किसी तरह का कोई अभ्यास करना पड़ता है और न ही उसे कभी कहीं से कोई प्रशिक्षण लेना पड़ता है। लोरियाँ क्षेत्रीयता और सामाजिकता से संबद्ध होकर साहित्य में मिलती हैं। लोरी तो माँ के वे लयबद्ध सुरीले भाव रहे हैं जो बच्चे को कंठ की नहीं, दिल की आवाज सुनाते हैं। संस्कृत साहित्य से भी लोरियाँ प्राप्त हैं। लोरी केवल शिशु के लिए निद्रा का बाट जोहती माता द्वारा गाया जाने वाला एक गेय पद ही नहीं है, इसमें दर्शन, अद्वैत, वेदान्त आदि के गूढ़ तत्त्वों का समावेश भी पाया जाता है। महभारत में मदालसा अपने शिशु से कहती है, -
नाम विमुक्त शुद्धोऽसि रे सुत!
मया कल्पितं तव नाम।
न ते शरीरं न चास्य त्वमसि
किं रोदिषि त्वं सुखधाम।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपने रामचरित मानस में बालकाण्ड के छठवें विश्राम में लिखते हैं कि माताएँ पालने पर या गोद में लेकर शिशुओं को प्रिय ललन आदि कहा करती हैं। देखिए -
हृदय अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा।।
कबहुं उछंग बहूँ बर पलना। मातु दुलारई कहि प्रिय ललना।।
लोरियों में माता का वात्सल्य अपने बच्चे के प्रति छलक पड़ता है। हृदय की अतल गहराइयों से ममता की सुरसरि फूट ही पड़ती है। भोजपुरी की लोरियों में नेह की शब्द-धारा कुछ अधिक ही सरस हो उठती है। भोजपुरी की लोरियों में स्वर-समानता पैदा करने के लिए एक ही शब्द की कई बार आवृत्ति होती है। एक उदाहरण देखें -
हेलेऽ हेलेऽ बबुआ
कुरूई में ढेबुआ
माई अकसरूआ
बाप दरबरूआ
केऽ खेलाई बबुआ।।
बच्चों को सुलाने के लिए माता द्वारा विभिन्न तरीके अपनाए जाते हैं। माँ कभी बच्चे को अपने दोनों पाँव पर पेट के बल लेटाकर या घुटने के बल बैठाकर लोरी गाती है। कौन नहीं सुना होगा इस लोरी को -
घुघुआ मामा
ऊपजे धाना
ओही पड़े आवेलें
बाबू के मामा।
इन उपक्रमों के बाद भी अगर शिशु के नयन-द्वार पर निद्रा देवी नहीं आतीं तो माताएँ उसी क्रिया में दूसरी लोरी गाती हैं -
अनर-मनर पुआ पाकेला
चीलर खोंइचा नाचे ला
चीलरा गइल खेत-खलिहान
ले आइल तील-कंचन धान।।
संसार के हर समाज में किसी-न-किसी रूप में लोरी की परंपरा रही है। भाषा, शब्द और उनका अर्थ भले ही अलग-अलग रहा हो, लेकिन माँ के अंतर से निकले भाव सभी में एक से रहे हैं। पर अब ऐसा नहीं रहा। आधुनिक हो-हल्ले के बीच लोरी के बोल ऐसे दबे की फिर न उठ सके। रही-सही कसर संयुक्त परिवारों के टूटने-चटखने की तीखी गूंज ने पूरी कर दी। शहरी संस्कृति में जी रही आजकल की नौकरी-पेशे वाली माताओं के पास जब अपने बच्चे को ठीक से दूध पिलाने तक का भी समय न मिल पाता हो, तो वे उसे लोरी ही क्या सुनाएँगी? केवल शहरी ही नहीं, ग्रामीण स्त्रियाँ भी घर के अन्दर और बाहर का कार्य देखती हैं। अपनी व्यस्तता के कारण वे शिशु को सुलाने के लिए बेचैन रहती हैं। वे घर में चैका-चूल्हा से लेकर खेतों में पुरुषों के साथ भी हाथ बँटाना अपना कर्त्तव्य समझती हैं। असली अर्धांगिनी बनकर। एकदम बराबर की हिस्सेदारी।
लोक-जीवन की यह मान्यता है कि हँसते-हँसते भी शिशु सो जाता है। माताएँ शिशु को हँसाने के लिए उसकी हथेली पर थपकी देते हुए गाती है -
आटा-पाटा
नौ-दस गाटा
गोली-गैया
गोलंधर बाछा।
लोरियों की प्रधानता और महत्त्व इनके शब्दों में निहित है। लोरी का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग स्वर होता है। लोरी में स्वर भी होता है, लय भी होता है। लोरी में माँ की क्रिया होती है। उसका वात्सल्य होता है। शिशु का सहज स्वभाव होता है। शिशु के प्रति माँ का स्वाभाविका प्रेम होता है। एक लोरी में वात्सल्य, लय और रस को एक साथ देखा जा सकता है। प्राकृतिक उपादानों से संबंध स्थापना का एक उदाहरण देखें, -
चंदा मामा
आरे आवऽ, पारे आवऽ
नदी के किनारे आवऽ
सोने के कचोरवा में
दूध-भात लेहले आवऽ
बाबू के मुँहवा में घुटुकऽऽ।
पुत्र वत्सला माँ अपने शिशु को बहुत ममत्व से सुलाती है। माँ हिलाती भी है। पुचकारती भी है। लोरी भी गाती है।
लोरी का आधार न तो जाति होता और न ही सामाजिक दायरा, फिर भी इसे विभिन्न आधार पर बाँटा जा सकता है। संसार के सभी जातियों में लोरी सीधे-सपाट शब्दों में ही गाया जाता है। माता और संतति का वात्सल्य, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी का बनावटी व्यवहार नहीं देखता। जैसे तितली सबको प्यार लगती है, भौंरा सबको भाता है, मधुमक्खी सबको शहद देती है। वैसे ही माँ की प्रकृति है अपनी संतान पर मुग्ध रहना। संतान से प्रेम करना है। एक माँ के लिए माँ बनना गर्व की बात होती है। एक माँ सभी रत्नों को अपने पुत्र में ही पाती है। एक लोरी का उदाहरण देखें -
ए बबुआ तूँ कथी के?
छने सोना छने रूपा के
बप चउवा चन्दन के
पितिया पीताम्बर के
लोग बिराना माटी के।
भैतिकवादी जीवन-शैली की व्यस्तता के फलस्वरूप आज हम अपने लोक-जीवन से दूर होते जा रहे हैं। हम सम्पन्नता पाने की दौड़ में आँख पर पट्टी बाँधकर दौड़ता आज का आदमी अपनी मिट्टी को भूलता जा रहा है। आज कामकाजी माँ-बाप को अपनी ही संतानों के साथ समय बिताना संभव नहीं हो पा रहा है। शिशुओं का शैशव माँ की स्नेहिल थाप और लोरी से दूर होता जा रहा है। लोग अपने बच्चों के बचपन को सुधारने के लिए नर्सरियों का सहारा ले रहे हैं। आधुनिकता का वरण किसी भी मायने में गलत नहीं है। समय के साथ चलना तो समय की माँग है। हमारे लोकगीतों की भी अलग स्थिति है। बाजारवाद के आज के हालात में जहाँ अश्लीलता को लोकगीतों का नाम देकर परोसा जा रहा है, वहीं लोरियाँ स्वयं के भाग्य पर रो रही हैं। लोरियों के माधुर्य को मधुमेह हो गया है। उनके लालित्य को लकवा मार गया है। लोरियों के लय को क्षय रोग ने पकड़ लिया है। नन्हें हाथों में लेटेस्ट मोबाइल सेट्स पर अनेकानेक एप्प डालकर पकड़ा दिया जाता है।
हमारी लोक-संस्कृति अति समृद्ध है। समृद्धि को आँकने-मापने के लिए ही सही, जब कभी हम किसी भी कारण से एक बार मुड़कर अपने लोक-जीवन को देखेंगे तब सहज ही पता चल जाएगा कि भोजपुरी के लोक जीवन की तरह ही लोक-साहित्य भी कितना समृद्ध है। भोजपुरी लोरियों का स्तर कितना ऊँचा है। तब निश्चय ही इन लोरियों पर गर्व होगा। भोजपुरी पर गर्व होगा और अपने श्लील लोक-जीवन से तथाकथित अश्लीलता को दमर करने के लिए जन-चेतना का जागरण होगा। तब फिर माँ की थाप के साथ लोरियों की स्वर-लहरी गुँजेगी।
- केशव मोहन पाण्डेय
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Wah, kya baat hai!
ReplyDeleteप्रणाम।
DeleteMothers see the angel in their Children because the angel is there
ReplyDeleteGood Work.. Keep Writing Keshavji..
ReplyDeleteसाहस बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार।
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