वसंत! नाम सुनते ही जिस ऋतु का रूप सामने झलकता है, उसमें मादकता का आधिक्य होता है। रंगों की छेड़खानी होती है। रूपों का निखार होता है। जीवन की क्रीड़ा होती है। वसंत पंचमी से ही होली का प्रारंभ माना जाता है। पूर्वी भारत में वसंत पंचमी को विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है। वसंत पंचमी एक भारतीय त्योहार है। इस दिन स्त्रियाँ पीत-पट धारण करती हैं। भक्त माँ सरस्वती की वंदना में लिप्त हो जाते हैं। सभी अपने-अपने भावों से ज्ञान की देवी सरस्वती का अनुग्रह चाहता है। भोजपुरी के मूर्धन्य कवि पंडित धरीक्षण मिश्र की एक प्रार्थना देखिए -
वर दे हमें भारती! भारती का उर में धर छंद प्रभाकर दे,
कर दे वह दिव्य प्रकाश कि आप से आप मिटे तम के परदे,
पर दे शुभ कल्पना का हमको पद और पदार्थ भी सुन्दर दे,
दर दे दुख दोष दया कर के वरदे वर दे तो यहीं वर दे!!
भारत में पूरे वर्ष को जिन छह ऋतुओं में विभक्त किया जाता है, उसमें वसंत ऋतु लोगों का मनचाहा ऋतु है। यह वह ऋतु है, जब फूलों पर बहार आती है, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता है, तीसी और मटर के कासनी फूल मन को झूमाने लगते हैं, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगती है, आम्र-वृक्षों पर बौर आ जाता है और चारों ओर रंग-बिरंगी तितलियाँ मडराने लगती हैं। मान्यता है कि इस वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवें दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता है जिसमें भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा होती है। वह उत्सव ही वसंत पंचमी का त्योहार कहा जाता है।
शास्त्रों में वसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से उल्लेख किया गया है। पुराणों तथा अन्य कथा-ग्रंथों में अलग-अलग रूप में इसका वर्णन मिलता है। वसंत पंचमी के दिन माँ सरस्वती की पूजा के प्रारंभ के विषय में एक कथा है कि सृष्टि के प्रारंभ काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने अन्य जीवों के साथ मनुष्य का सृजन किया। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है, जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु भगवान से अनुमति लेकर ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से जल छिड़का। पृथ्वी पर जल बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद एक अद्भुभ शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। यह प्रादुर्भाव एक चतुर्भूज सुंदर स्त्री का था। उस स्त्री के एक हाथ में वीणा थी तथा दूसरा हाथ वर-मुद्रा में था। अन्य हाथों में पुस्तक और माला थी। ब्रह्मा जी ने देवी से वीणा-वादन का अनुरोध किया। जैसे ही उस देवी ने वीणा का मधुर वादन किया, संसार के समस्त जीव-जंतुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधाराओं को कलकल निनाद मिल गया। हवा सरसराने लगी। पक्षी चहचहाने लगे। भौंरे गुनगुनाने लगे। ब्रह्मा जी ने उस वाणी और स्वर की देवी को सरस्वती नाम दिया। तब से इनके जन्मोत्सव को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। माँ सरस्वती विद्या और बुद्धि प्रदान करने वाली हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की भी देवी हैं।
ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है, -
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात् सरस्वती परम चेतना हैं। ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हम में जो आधार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से खुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी।
सनातन धर्म की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। अपनी विशिष्ट विशेषताओं के कारण ही उसे जगत में ऊँची पदवी प्राप्त थी। इसके हर रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार और संस्कार में महत्त्वपूर्ण रहस्य छिपा रहता है। रहस्यों को वैज्ञानिक प्रमाणिकता भी प्राप्त है। इन रहस्यों से हमारे जीवन के किसी-न-किसी समस्या का समाधान भी होता है। ये रहस्य भी हमारे मानसिक और आत्मिक विकास के साधन बन जाते हैं। इनसे मनुष्य शारीरिक और बौद्धिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है। विचारों को एक नया मोड़ प्राप्त होता है। हमारे अधिकांश त्योहारों का किसी न किसी देवता की उपासना और पूजा से संबंध है। वसंत पंचमी का त्योहार विशेष रूप से ऋतु-परिवर्तन के रूप में एक सामाजिक समारोह के रूप में मनाया जाता है। यह मानसिक उल्लास और आनन्द के भावों को व्यक्त करने वाला त्योहार है। विद्या मनुष्य के व्यक्तित्व के निखार एवं गौरवपूर्ण विकास के लिए है। कौन क्षुद्र-मति होगा जो अपना उज्ज्वल व्यक्तित्व एवं प्रतिष्ठित विकास नहीं चाहेगा? माँ सरस्वती के पूजन के साथ ही हमें उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि स्वाध्याय हमारे दैनिक जीवन का अंग बन जाए। हमें ज्ञान की गरिमा की समझ हो जाए। मन में जिज्ञासा की तीव्र उत्कंठा जागृत हो जाए। पूजन से जड़ से जड़ मानव का भी अंतःकरण चमत्कृत हो जाए। पूजन के समय हवन और सामग्रियों के मिश्रण से परिवर्तित वातावरण मानसिक वृद्धि के लिए और उपयुक्त हो जाता है।
माँ सरस्वती के कर-कमलों की वीणा हमें यह प्रेरणा देती है कि मनुष्य की हृदय रूपी वीणा सदैव झंकृत रहे। वीणा से अपनी आंतरिक कला के भावोत्तेजक प्रक्रिया को, अपनी सुप्त सरसता को जागृत करने के लिए प्रयुक्त करनी चाहिए। कई बार नारीत्व के सौंदर्य के प्रसंग में भी वीणा का उल्लेख होता है। वैदिक साहित्य में वीणा का उल्लेख बारंबार संगीत के संदर्भ में होता है। मध्यकाल तक भी विभिन्न कलात्मक कृतियों में वीणा को शास्त्रीय संगीत से जोड़ा जाता रहा। यह अति प्राचीन तंत्रीनाद है। माँ सरस्वती के हाथ में पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है। यह व्यक्ति की आध्यात्मिक और बौद्धिक प्रगति के लिए स्वाध्याय की अनिवार्यता की प्रेरणा देता है। इसके विपरीत जनमानस की यह मानसिकता है कि विद्या नौकरी करने के लिए प्राप्त करनी चाहिए। परिस्थितियाँ सोच को तो बदलती ही हैं। प्राचीनकाल में जब लोग सच्चे हृदय से सरस्वती की उपासना करते थे, तब इस भारतभूमि को जगत-गुरु का उच्चासन प्राप्त था। दूर-दूर से यहाँ लोग सत्य और ज्ञान की खोज में आते थे और यहाँ गुरुओं के चरणों में बैठकर विद्या सीखते थे। आज उपासना में बदलाव के साथ ही सोच और स्थिति में बदलाव आ गया है। विद्या की देवी, माँ सरस्वती का वाहन है मोर। मोर अर्थात् मृदुभाषी! हमें माता का अनुग्रह पाने के लिए मोर की तरह बनना चाहिए। हर किसी याचक को मृदुभाषी, नम्र, विनीत, शिष्ट और आत्मीयता से पूर्ण संभाषण का वरण करना चाहिए। हमें भी मोर की भाँति कलात्मक और सुसज्जित बनने की अभिरूचि रखनी चाहिए। माँ सरस्वती की प्रतीक प्रतिमा के आगे पूजा-अर्चना का सीधा तात्पर्य यह है कि शिक्षा की महत्ता को शिरोधार्य किया जाए। माँ सरस्वती की कृपा के बिना मानव जीवन का कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य सफल नहीं हो सकता।
वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो मानव हैं, पशु-पक्षी भी उल्लास और उमंग से भर जाते हैं। प्रतिदिन नई उमंग से सूर्योदय होता है और प्रकृति के चर-अचर सबमें नई चेतना का संचार करता है। वैसे तो माघ का पूरा महीना ही उल्लसित करने वाला है, परन्तु माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् वसंत पंचमी का पर्व भारतीय लोक-जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। आज के दिन को प्राचीन काल से ही ज्ञान और कला की देवी माँ सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। शिक्षा और कला से जुड़े लोग आज के दिन व्रत रह कर माँ शारदे की पूजा और आराधना करते हैं।
रसिकों का हृदय वसंत पंचमी के दिन वसंत ऋतु के स्वागत के लिए मचलने लगता है। एकाएक हवा सुगंधित हो जाती है। शीत के बाद मौसम में ताजगी अनुभव होने लगता है। छात्र सुबह-सवेरे ही उठकर माँ सरस्वती की पूजा के लिए तैयारियाँ करने लगते हैं। छात्र-जीवन से वसंत-पंचमी और सरस्वती पूजा की स्मृतियाँ हृदय में अपना अमिट छाप छोड़ी हुई है। उन्हीं स्मृतियों के परिणामस्वरूप आज ज्ञान की देवी और वसंत-पंचमी पर कुछ लिखने को बेचैन हो गया। कई काम तो रात-रातभर जागरण करके भी किया जाता है। माँ के पूजन के लिए बड़े-बड़े एवं भव्य पांडालों का निर्माण किया जाता है। विद्यालय का तो पूरा माहौल ही कई दिन पहले से ही सरस्वतीमय हो जाता है। कोई मूर्ति की व्यवस्था में लगा है तो कोई लाउड-स्पीकर आदि लाने गया है। कोई सजाने में लगा है तो कोई अन्य व्यवस्था में।
उस समय छात्रों की एकता और सहयोग देखकर ऐसा लगता है कि अवश्य ही माँ सरस्वती इन पर प्रसन्न रहती होंगी। कैसा तो अद्भुत और मनोरम दृश्य होता है! पूजन-अर्चन के बाद सभी लोग माता की वंदना में लग जाते हैं। वंदना क्या? यह तो वाग्देवी का पूरा वर्णन ही होता है, -
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना,
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वंदिता,
सा मां पातु सरस्वतीती भगवती निःशेष जाड्यापहा।।
वसंत पंचमी का त्योहार हिंदू धर्म में विशेष महत्त्व रखता है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। पूर्वी भारत में (विशेषकर भोजपुरी क्षेत्र में) बड़े उल्लास एवं धूमधाम से किया जाता है। इस दिन ऋतुराज वसंत के आगमन का प्रथम दिन माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण को इस उत्सव का अधि देवता माना जाता है। वसंत ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य निखर उठता है। इस दिन अन्य पर्वों-त्योहारों की ही भाँति घर की शुद्धि कर पीताम्बर धारण करके उत्सव मनाया जाता है। वसंत पंचमी मानव के आनंद के अतिरेक का प्रतीक होता है। वसंत पंचमी यानि वसंत के आगमन का दिन। यानि विद्या की देवी माँ सरस्वती को प्रसन्न करने का दिन। माँ सरस्वती से मनचाहा आशीर्वाद पाने का दिन। यह दिन विद्यार्थियों के लिए अति महत्त्वपूर्ण होता है। वसंत पंचमी के इस पावन दिन को ही माँ भारती के वरद्पुत्र पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस भी मनाया जाता है। सभी भक्त विद्या की इस देवी के सामने नत् एवं करबद्ध होकर प्रार्थना करने लगते है। ज्ञान किसे नहीं प्यारा होता? कला का कौन प्रेमी नहीं होता? ज्ञान और कला तो वह वैभव है, जिसके दम पर माँ सरस्वती की संतति विश्व-विजय कर जाती हैं। ज्ञान ही हृदय में परमार्थ का बीज बोता है। उमंग की लहरें पैदा करता है और प्रेम, सौहार्द्र के साथ अपने प्रकाश में संसार की सारी बुराइयों को जड़ से मिटाने की ताकत रखता है। भक्त याचक माँ सरस्वती से प्रार्थना करते हुए अधीर हो जाता है। माँ का आशीर्वाद पाकर सूर सूरदास हो जाते हैं। रत्नावली का दीवाना रामचरित मानस की सर्जना कर देता है। रत्नाकर वाल्मीकि हो जाते है। अज्ञान को छोड़कर चाहे वह कोई भी ज्ञान हो, (विज्ञान, संज्ञान आदि) व्यक्ति को विशेष तो बना ही देता है। माँ भारती के वरद्पुत्र पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की सरस्वती वंदना में भारत के मंगल की अभिलाषा देखें, -
वर दे, वीणा वादिनी वर दे!
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे!
माँ सरस्वती जीवन की जड़ता को दूर करती हैं। सिर्फ हमें उनके योग्य अर्थ में उपासना करनी चाहिए। माँ सरस्वती का उपासक भोगों का गुलाम नहीं होता है। सनातन धर्म के अनुसार शुक्लवर्णी, संपूर्ण चराचर में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, भयदान देने वाली, अज्ञानता के तमस को दूर करने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली, पद्मासन पर विराजमान, बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा सबके कष्टों को दूर करती हैं।
माँ सरस्वती झूठे स्वांग, छल, आत्मप्रवंचना और पाखंड के प्रति निर्मम हैं। वसंत पंचमी का यह उत्सव वर्तमान युग की अस्त-व्यस्तता और आपाधापी में ज्ञान की उपासना को एक विशेष संदर्भ प्रदान करता है। यदि हम दिशाहीन, विषाद, अवसाद और खिन्नता से मुक्त रहना चाहते हैं तो इसके लिए माँ सरस्वती का अनुग्रह ही सहायक सिद्ध हो सकता है। अतः हम मनुष्यों को न केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपितु अपने जीवन को क्लेषरहित और उत्साहयुक्त बनाए रखने के लिए भी माँ सरस्वती की आराधना करनी चाहिए। सरस्वती माता की आराधना के समय वसंत-पंचमी का आकर्षण तो रहेगा ही साथ ही बचपन की स्मृतियाँ भी आकर्षक बनी रहती है और ज्ञान की देवी के समक्ष मन नत-मस्तक होता रहता है।
- केशव मोहन पाण्डेय
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