बहुत ठण्ड है। अँगुलियाँ जकड़ी जा रही है। कान-नाक गलते से लग रहे हैं। बिस्तर में दुबके रहने की इच्छा ही बलवती है। छुट्टियाँ मनाने का मन कर रहा है। हम तो बस ऐसे ही मन के करने और कल्पनाओं में जाड़े को दूर करने की सार्थकता पर विचार करते हुए अपनी दिनचर्या में मग्न हो जाते हैं। आज कवीश्वर पद्माकर की पक्तियाँ बहुत याद आ रही है। जाड़े के लिए पद्माकर का मसाला आप भी तो देखिये। उन्होंने अपने एक ही छन्द में तत्कालीन दरबारों की रूपरेखा के साथ ही सिसिर (शिशिर) अर्थात् जाड़े का अंकन कर दिया है-
गुलगुली गिल में गलीचा हैं, गुनीजन हैं, चाँदनी है, चिक है चिरागन की माला हैं।
कहैं पद्माकर त्यौं गजक गिजा है सजी, सेज हैं सुराही हैं सुरा हैं और प्याला हैं।
सिसिर के पाला को व्यापत न कसाला तिन्हें, जिनके अधीन ऐते उदित मसाला हैं।
तान तुक ताला है, विनोद के रसाला है, सुबाला हैं, दुसाला हैं, विसाला चित्रसाला हैं।।
कवि ने सजीव मूर्त विधान करने वाली कल्पना के माध्यम से शौर्य, श्रृंगार, प्रेम, भक्ति, राजदरबार की सम्पन्न गतिविधियों, मेलो-उत्सवों, युद्धों और प्रकृति-सौंदर्य का मार्मिक चित्रण किया है। आज न वैसा राजदरबार है, न वैसे कवि हैं, परन्तु शिशिर ऋतु का चरम आज भी है। मैं भी हूँ। तह-दर-तह वस्त्र से आवृत्त। कई हज़ारों और भी है। ‘सीस पगा न झगा तन में’ वाले भी।
मैं तो बस अपनी बात कहने के लिए पद्माकर और उनके छन्दों का जिक्र कर दिया, परन्तु वास्तविकता तो यह है कि किसी भी कामकाजी या मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए जाड़े का दुख अनुभव करना नहीं संभव है। हम भेगते तो हैं और घर जाकर बस रूम हिटर की शरण में तन को तनिक तपिश देने का प्रयास करते हैं। आज न अंगिठी है, न लकडि़याँ हैं और न बाबुजी की धुईं।
मेरे बाबुजी के लिए जाड़े की तैयारी और मौसम कुछ अलग होता था। वे पहले तो अपने ताकत भर, फिर थक जाने पर मजदूर लगाकर बाँस के कोठ से उसका सूखा हुआ जड़ (खुत्था) निकलवाकर दालान में ढेर लगवा लेते थे। दालान में पूरे जाड़ा अलाव जलता रहता था। अलाव की निरंतरता के कारण उसे हम सभी धुईं कहते थे। जब कोई चलते राह ठंड से सिकुड़कर आकर बैठ जाता और गरम होकर ताजा हो जाता तो बाबुजी को उसमे सुकून मिलता था। जब कोई काँपता हुआ बिना मेरे दालान में आये ही जाने लगता तो बाबुजी बुलाते, - ‘अरे भाई, तनिक देंह सेंक लो। बाहर बहुत ठण्ड है।’ - धुईं के पास उस आगंतुक के बैठते ही माई चाय बनाने का उपक्रम करने लगती। आगंतुक आग और चाय से ताजा होकर जाता तो आशीष का बाग बसाते जाता।
अब न वैसा समय है, न संवेदना। संवेदना है भी तो पता नहीं सामने वाला अजनबी कौन है? कहीं आतंकवादी तो नहीं? अपहरणकर्ता तो नहीं? धूर्त-धोखेबाज या और कुछ तो नहीं। दिल्ली जैसे शहरों में रैनबसेरों पर तो रिपोर्ट पढ़ा ही जा रहा है, मैं स्वयं भी सुबह-सुबह विद्यालय जाते समय बत्ती के पास एक बुढि़या को देखता हूँ। चिथड़ों में लिपटी बुढि़या को देखकर दया आती है। दया तो आती है, मगर उस दया, अपनी संवेदना को व्यक्त करने के लिए समय कहाँ? देखता हूँ और अपने गंतव्य पर समय से पहुँचने के लिए आगे बढ़ जाता हूँ। अपनी उसी संवेदना के उद्यान में अपने पिता जी की धुईं देखता हूँ और चाहता हूँ कि उस बुढि़या के जर्जर तन को थोड़ा तपिश मिल जाए। उस तपिश को पद्माकर के पद न सही, अभिनव शुक्ल की कविता भी तो तपिश दे रही होगी। उस तपिश की सत्यता को आप भी तो अनुभव कर रहे होंगे -
धर्म टूटकर,
धर्म बना है,
लाल रक्त से,
धर्म सना है,
धर्मगुरू नें ढोंग रचाकर,
बेशर्मी बिखराई है,
कैसी सर्दी आई है।
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