हिन्दू समाज के पतनोन्मुख काल में कबीरदास का आविर्भाव हुआ था। ब्र्राह्मण वर्ण जहाँ सिद्धांततः एकता तथा समानता का हामी था वही व्यवहारतः वर्ण-व्यवस्था का पोषक था। उस समय देष में विभिन्न साधना-पद्धतियों और संप्रदायों का प्रचलन था। सभी अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने में लगे थे। कोई देव-पाठी था तो कोई उदासी। कोई दीन बना रहता तो कोई दान-पुण्य में व्यस्त रहता। कोई मदिरा सेवन को साधना का चरम मानता तो कोई तंत्र-मंत्र के तमाशे दिखाता। कोई सिद्ध था तो कोई तीर्थ-व्रती। अगर यह कहा जाय कि उस समय मिथ्या अभिमान तथा ब्राह्याचार के थोथे आडंबर के कारण हिन्दू समाज का और हिन्दू मान्यताओं का पतन हो रहा था तो कुछ भी गलत नहीं होगा। हिन्दू और मुसलमान दोनों बड़ी तादाद में आडंबरों के अधीन होते जा रहे थे। कबीर ने अपनी रचनाओं से आडंबरों, धार्मिक संकीर्णताओं और संकुचित मानसिकताओं के अंधकार को रास्ता दिखाने का काम किया है। उन्होंने अपने समय के सामाजिक आडंबरों और दोषों का बेहिचक और निडर रूप से वर्णन किया। वे ना तो हिन्दू थे और ना ही मुसलमान। वे हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। वे अच्छाइयों को स्वीकारने में झिझकते नहीं थे और बुराइयों का खुलकर विरोध करते थे। उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है। वे दिनभर रोजा रखकर रात को गायों की कुर्बानी देने वाले रोजेदार मुसलमानों का विरोध करते हुए कहते हैं, -
दिन को रोजा रखत है, रात हनत है गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुश खुदाय।।
बाबा कबीर दास मानवीय गुणों को महत्त्व देने वाले व्यक्ति थे। वे मानवता के सेवक और मानवता के ही उपासक थे। वे किसी जाति, धर्म, संप्रदाय में सीमित होने वाले व्यक्ति नहीं थे। उनका ईश्वर ही उनका खुदा था। उनके राम और रहीम में कोई भेद नहीं है। उनके इष्ट मंदिर में भी रहते थे और मस्जिद में भी। उनके आराध्य फूल-अक्षत और सिजदा से प्रसन्न होने वाले नहीं थे, वे तो मन की पवित्रता से ही आराधक के हो जाने वाले थे। जो लोग ईश्वर और खुदा में भेद मानते हैं, कबीर ने उनके गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा है।
कबीरदास का समाज छुआछूत की बीमारी से बहुत ग्रसित था। उस समय जाति-भेद और वर्ण-भेद चरम पर था। वे धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व करने वालों से हमेशा छत्तीस का आँकड़ा रखते थे। उनके अनुसार समाज को सही दिशा देने का उत्तरदायित्व मुल्लाओं और पंडितों का था, जो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर रहे थे। वे हमेशा मुल्लाओं और पंडितों की भत्र्सना करते थे। उनका विद्रोही स्वर सिर्फ मुसलमानों का विरोधी नहीं था, अपितु हिन्दुओं के धर्म, तीर्थ, व्रत, मूर्ति-पूजा आदि का भी विरोधी था। कबीर ने एक और ‘पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहाड़’ कह कर हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा का विरोध किया तो दूसरी और प्रेम, प्रकृति, व्यवहार आदि पर अपनी नीति-परक अनुभवी दृष्टि डाली। कबीर के व्यंग्य का सर्वाधिक विषय धार्मिक आडंबर और कर्मकांड रहा है। कबीरदास जी का सिर मुड़ाकर संन्यासी बनने वालों पर एक व्यंग्य देखिए -
मुड़ मुड़ाये हरि मिलै, सब कोई लेई मुड़ाय।
बार-बार के मुड़ते, भेंड़ न बैकुण्ठ जाय।।
कबीर के धार्मिक मत सहज थे। वे अपने सहज धार्मिक विचारों के अंतर्गत समदर्शिता के साथ ही अन्य नैतिक संयमों पर बल दिया है। कबीर के संयम विधान में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, परोपकार, ब्रह्मचर्य, इंद्रीय-निग्रह, सत्संग, ज्ञान आदि हैं। कबीर के समय में सामाजिक परिथितियाँ प्रतिकूल थीं। समाज में गतिषीलता के स्थान पर जड़ता का साम्राज्य था। जनता चारों ओर से असहाय होकर अपना सहारा ढूँढ रही थी। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में जनता का ईश्वर के शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं था। यह तो हर काल-खंड और परिस्थिति की बात है कि ईश्वर सबका होता है और सब ईश्वर के होते हैं, अतएव उस परिस्थिति में सुख-साधनों का एकत्रण सुखकर नहीं है। कबीर ने उस परिस्थिति में भी ‘संतोषम् परमं सुखम्’ के शंखनाद को पूरजोर स्वर दिया। उन्होंने कहा है, -
गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।
कबीर का काल संक्रांति का काल था। उस संक्रांति का की विषम परिस्थितियों में कबीर को मार्गदर्शक का काम करना था। उस समय तो धर्म और समाज में से किसी एक की श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा था। कबीर ने उन नकारात्मक प्रयासों को छिन्न-भिन्न कर के मानवता के विकास के लिए सामान्य धर्म और सामान्य समाज की स्थापना करने का प्रयास किया। सरल जीवन बड़ा कठीन होता है। वे सरल जीवन को अनुभव के धरातल पर स्थापित करना चाह रहे थे। वे अनुभवजन्य ज्ञान के समक्ष पुस्तकीय ज्ञान को तुच्छ समझते थे।
कबीरदास ने जीवन के पुस्तक को स्वयं पढ़ा और ‘ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय’ कह कर दूसरे को भी प्रीति के पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इस बात को कबीर भी मानते थे कि जीवन यापन के लिए धन आवश्यक है, परन्तु वे संचयवृŸिा के समर्थक नहीं थे। वे संचयवृŸिा को सामाजिक विषमता की जननी मानते थे। अराजकता का केंद्र मानते थे। वैमनष्य का आधार मानते थे। असहिष्णुता का घर मानते थे। उनकी मान्यता थी कि पशु-पक्षी या जीव-जन्तु भी तो जीवन व्यतीत करते हैं। वे तो बिना पूँजी के ही जीवन का आनन्द उठाते हैं। अतः धन के संचय की प्रवृŸिा त्याज्य है। वे सदा भोजन और उच्च विचार का आदर्श मानते थे। वे गोश्त-रोटी के बदले खिचड़ी खाने के पक्ष में थे, क्योंकि उन्होंने कहा भी है ‘हेरा रोटी कारनै, गला कटावै कौन।’
किंवदन्ती है कि कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के कोख से हुआ था, जिसने लोक-लाज के कारण उन्हें त्याग दिया था। निरू और निमा नामक जुलाहा दंपति ने उन्हें ‘लहरतारा’ के किनारे पाया था। इस प्रकार वे ब्राह्मण होते हुए भी जुलाहा हो गए। कबीर के इस जीवन-घटना का उनके विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उन्हें लगता है कि कोई परम शक्ति हमारे कर्मों का परिणाम हमें दिया करती है। वे समस्त तŸववाद का निचोड़ राम-नाम को मानते हैं। उनकी मान्यता है कि राम से विरत किये गये कृत्य बंधन है। वे मानते हैं कि समाज के तथाकथित उच्च वर्ग सिर्फ उस वर्ग में जन्म ले लेने से महान नहीं बन जाता। वे ज्ञान को महŸव देते हैं। वे कहते हैं कि तू ब्राह्मण (तथाकथित ज्ञानी) हो और मैं काशी का जुलाहा। तुम्हें मेरे ज्ञान की परख नहीं है। यह तो कर्मों की बात है कि ओछे कर्मों के कारण और तप विहिन होने के कारण मैं भी पूर्व जन्म में ब्राह्मण होते हुए भी राम-सेवा में चूक के कारण जुलाहा बन गया। कबीर अपने जुलाहा बनने की बात कह कर स्वयं को कोस नहीं रहे हैं, उन ज्ञानियों को बताना चाहते हैं कि कल तुम भी जुलाहा बन सकते हो। अतः राम (सत्य) की सेवा से चूकना नहीं चाहिए। आप भी देखिए -
‘तू बाम्हन मैं कासी का जोलहा, चीन्हि न मोर गियाना।
तैं सब माँगै भूपति राजा, मोरे राम धियाना।
पूरब जनम हम बाम्हन होते, ओछे करम तप हीना।
रामदेव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीना।।
कबीर सहज पंथ की भक्ति भावना रखते थे। उनके दर्शन में मायावाद की स्पष्ट झलक है। वे पूर्ण रूप से एक कवि हैं तो समर्थ भाव से एक विचारक हैं। वे एक क्रूर आलोचक हैं तो सहृदय समाज-सुधारक। वे निडर वक्ता हैं तो भावुक ज्ञानी। उन्होंने अपनी रचनाओं की मनका पर प्रेम का रंग चढ़ाया है तो मनका के रंगों में कही उस प्रेम का रहस्य भी अंतध्र्यान है। संत कबीरदास भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वे कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।
कबीर की रचनाओं में अद्भुत प्रतीक विधानों को देखा जा सकता है। कबीर भारतीय संप्रदाय और धर्म-साधना के शीर्ष पर विराजमान हैं। काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि कबीर, सन्त कवि और समाज सुधारक थे। वे सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- श्मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।श्उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति्त, रोजा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर में उपरोक्त सभी गुणों के साथ ही मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत व्यावहारिक विचार भी है। यह अतिशयोक्ति नहीं कहा जाएगा कि कबीर अपने समय के रूढि़गत सामंती दुराचार और अन्यायी सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध डंटकर लड़ते भी हैं और किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को लड़ना सिखाते भी हैं।
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- केशव मोहन पाण्डेय