आजकल उत्तर भारत गर्मी की नज़र में है। दिल्ली की दशा कुछ अधिक दयनीय है। यह दयनीयता केवल दिल्ली की जनता के लिए ही नहीं है, यहाँ के सर्वमत संपन्न मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए भी है। मुफ्त पानी-बिजली का सब्ज-स्वप्न दिखाकर सत्ता तक पहुँचाना भले ही आसान रहा हो, मगर अब सत्ता संभालने के बाद बेचारे पार्टी, सरकार और जनता के अंदर-बाहर, चारों ओर अपना पानी बचाने में लगे हैं। अब जनता की सुधि लेने का समय नहीं हैं। अब तो वैसे ही उनके सिर तक पानी पहुँच चुका है।
अब गाहे-बेगाहे, सुबह-शाम पानी की पुकार और सरकार से गुहार का दृश्य दिख जाता है। कल शाम को कमरे से निकला ही था कि महिपालपुर लाल बत्ती के पास, वसंतकुंज मार्ग पर बेजोड़ जाम दिखा। पता चला कि यह जाम ट्रैफिक के कारण नहीं, पानी के कारण है। यह स्थिति सुबह से दो बार आ चुकी है। औरतें पानी का ड्रम लेकर सड़क पर बैठ गई हैं और सड़क जाम। मामला है कि कहाँ तो मुफ्त पानी का सपना और कहाँ पानी-पानी के लिए तरसना।
'पानी' का पोस्टर लेकर औरतें केजरीवाल सर को पानी-पानी होने से बचने की सलाह दे रहीं हैं। और सर हैं कि पार्टी के अंदर और बाहर 'टक्कर' लेने-देने पर उतारू हैं। न्यूज़ चैनल ऑन किया तो 'केजरीवाल के टक्कर' देखकर तरस आने लगी। सर, कथनी और करनी दो दिलों की बात है न। आप भी तो यहीं मानते हैं न। आप ही कहाँ कम हैं। तरस भारतीय राजनीति की संभावनाओं पर आने लगी। तरस दिल्ली की पढ़ी-लिखी जनता पर आने लगी। कम पढ़े-लिए भावनाओं में भले बहते हैं, मुफ्त की रोटी नहीं चाहते। तरस महिपालपुर की उस 64 प्रतिशत जनता पर आने लगी कि उन्होंने भी बिजली-पानी के सपनों को ही चुना था। अब वहीं जनता कई-कई दिन तक पानी के लिए तरस रही है और जो बचा हुआ पानी है, उसे संभालने में ही समय गँवा रही है। अब वहीं जनता स्वम के साथ-साथ सरकार से भी 'रहिमन पानी राखिये' का ज्ञान दे रही है।
ये अलग बात है कि सरकार को अभी कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। सत्ता के मद में कान काम करना छोड़ देता है। सरकारें बहुत जल्द भूल जाती हैं कि जनता भले अपने निर्णय पर पश्चाताप कर ले, मगर एक समय ऐसा आता है कि विश्व-भ्रमण धरा का धरा रह जाता है, अपना पानी बचाने के लिए कइयों को 59 दिवसीय अज्ञातवास पर जाना पड़ता है। तब गलतियों के बाद क्षमा माँगने की राजनीति काम नहीं आती।
मैं भी बहुत बोल दिया। सर! अगर आपके दिल को चोट पहुँचे तो मैं सबके सामने माफ़ी माँगता हूँ। आप भी तो यहीं करते हैं। मगर मुफ्त पानी का क्या हुआ?
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-केशव मोहन पाण्डेय